हुमा रिज़वी
लखनऊ कभी समृद्ध संस्कृति की झांकी समझा जाता था,जो वक्त की धूल में अपनी पहचान' मिटाता जा रहा है.खंडहरों और गिरती दीवारों के अंदर दफन हो रही हैं शहर की बेमिसाल खूबसूरत यादें.लखनऊ अब इतना फैल गया है कि पुराना शहर चारों तरफ से नई-नई बस्तियों एवं नवनिर्मित इमारतों के घेरे में आ गया है.इतना ही नहीं यहां अब हर जगह और प्रान्त के लोग आकर बस गये हैं.जिसके कारण लखनऊ में एक नया माहौल हावी होता जा रहा है जो इस शहर के स्वभाव से बिल्कुल अलग है.
इसका प्रभाव इतना पड़ रहा है कि नगर के मूल निवासियों की बोली,बातचीत,पहनावे आदि पर इसका प्रभाव पड़ने लगा है.आज इस विषय को लेकर लखनऊ के भावुक और बुद्धिजीवियों में चिंता व्याप्त है कि किस प्रकार अवध की संस्कृति अस्तित्व को नष्ट होने से बचाया जाये.साथ ही इसके मिटती सांस्कृतिक चिन्हों को बरकरार रखा जाये.
ये लोग इस बदलते माहौल से उदास भी हैं.अपने आपको लाचार महसूस करते हैं.
शीश महल के जाफर अब्दुल्ला जिनके बुजुर्ग नवाब आसिफुद्दौला के कार्यकाल में मंत्री पद पर रहे हैं,का मानना है कि लखनऊ में बाहर से आये लोगों की एक बड़ी आबादी का नौकरी और अन्य कार्यों की वजह से यहां पर बसने का खासा असर पड़ रहा है.जिससे ऐसा महसूस हो होता है कि इस शहर का मिजाज (स्वभाव) बदल गया है.
इसी तरह अगर यह अपनी रविश (रास्ते)से हट गया तो अपनी पहचान खो देगा.उनका कहना है कि लखनवी तहजीब की आत्मा उसकी बोली है.लखनऊ के लोगों के बोलने चलने, उठने-बैठने का जो ढंग है,वह बिना लखनवी उर्दू के सही उच्चारण के संभव नहीं.
यहां हर तबके और जात पात के लोग जिनका संबंध लखनऊ से है.एक खास लहजे में बात करते हैं जो दूर से पहचानी जाती है.यहां की सब्जी वालियां, नौकरानियां अथवा मेहरानियां अपनी भाषा बड़ी महावरेदार और चाशनीदार बोलती थीं
.खासकर उस समय की तवायफें तो भाषा का एक स्कूल थी.उस समय की फब्तियां भी अपना मजा रखती थीं.हाजिर जवाबी में भी लखनऊ वाले अपनी अलग मिसाल थे.
जाफर अब्दुल्ला कहते हैं,समय की मांग के चलते आज रहन सहन में भी अंतर हो गया है.लेकिन शादी ब्याह आदि में पुराने रवायती लिबास पहने जाते हैं.
फैशन डिजाइनर भी आज यहां के कॉस्ट्यूम्स से प्रेरणा लेकर कपड़े डिजाइन करते है.वह कपड़े विदेशों में भी बहुत पापुलर हो रहें हैं.मुखतः अंगरखा और पिशवाज को आधुनिक पुट देकर पेश किया जा रहा है.उसके साथ, यहां की कमरखी चौगुशि टोपियां भी रिवाज में आ रही हैं.
लखनवी लिबास दस्तरखान, जबाँदानी अदब, सिपाहगरी, संगीत कला, नृत्य कला गायकी, कबूतर बाजी, बटेर बाजी, मुर्गों की लड़ाई, यहां की दस्तकारी, चिकन जरदोजी, कारचोब का काम, जेवरात, कुंदन, मीना जड़ाऊ आदि बर्तन चांदी, तांबे, मिट्टी के बर्तन आदि एक अलग कलात्मकता रखते हैं.जिसमें यहां के लोगों की स्वाभाविक नजाकत साफ झलकती है.
आज यह लुप्त होती दिखाई दे रही है.लखनऊ उत्सव में लखनऊ की कारीगरी और कलाकारों को उनकी कला के प्रदर्शन का अवसर प्रदान करना चाहिए ताकि वह भी जनता के समक्ष अपनी कला के जौहर दिखाएं.
यहां की तहजीब की तस्वीर का चित्रण करने में मिरासनों,भांडों और तवायफों का एक महत्वपूर्ण स्थान था. यह चरित्र आज भी है.स्वांग या ड्रामों के द्वारा यहां की संस्कृति को चरित्रार्थ कर सकते हैं.यहां का इत्र भी बहुत प्रसिद्ध था.असगर अली मोहम्मद अली इत्र वालों ने भारत ही नहीं अपितु सारी दुनिया में खुशबू फैलाई.
जाफर अब्दुल्ला साहब की मां ने बताया कि यहां की भाषा के पतन के कारण यहां की उठने बैठने, तमीज तौर तरीकों में जो शिष्टता और शालीनता थी वह खत्म होने लगी है.यहां की संस्कृति की नींव सच्चाई, शराफत एवं मानवता पर रखी गई थी,जिसने लखनऊ में आपसी भाईचारे और मेल मिलाप, रवादारी की जो फिजां बनाई थी.पहले खुशहाली का जमाना था.
लोग शौकीन भी थे.इसीलिए सुकून भरी जिन्दगी जीने से लोगों के मन में नए-नए काम करने की ललक जागती थी.आप बताती हैं कि उस जमाने में शादी के समय दुल्हन को रीत का जोड़ा पहनाया जाता था,जिसमें लाल रंग का तंग पाजामा होता था.उस पर किरन टकी रहती थी.
उस पर पिशवाज चुन्नट पड़ी रहती थीं. यह जोड़ा खास तरह के बनारसी और कम्याब वगैरह का बनता था.उस पर दुपट्टा ओढ़ा जाता था,जिसे 'सोरी' कहते थे जो कि जरबफ्त के पतले कपड़े का बना होता था.इन पर बेलें, गोटा (सच्चा) यानि सच्चे काम का टांका जाता था.
इसी तरह दुल्हन की चौथी का पाजामा (गरारा) 21या 26कलियों का होता था.ये काफी भारी होता था.इसे दुल्हन की नौकरानियां संभालती, दुल्हन के अगल-बगल चलती थीं.जेवरों में मीना जड़ाऊ एवं कुंदन का काम बहुत नाजुकता से किया जाता था.
यहां भारी भरकम जेवर के बजाए मौके महज (विशेष अवसर) पर ही पहनने वाले जेवरों का ज्यादा चलन था.इनसे खूबसूरती ज्यादा टपकती थी जो कि बहुत ही सुबुके- नाजुक कशीदाकारी के होते थे.
यहां की अमीर बेगमों की नाजुक मिजाजी बेहद थी,इसलिए यह हल्के रंग और हल्के काम के कपड़ों को पहनना ज्यादा पसंद करती थीं.साथ ही हल्के जेवरों को ही पहना करती थीं.गले, हाथों आदि के हलके आभूषण पहनने से सादगी झलकती थी.
शाहिद जमाल अवध कल्चर पर यू. जी. सी. के लिए एक एजूकेशन फिल्म का निर्माण कर रहे है.वह इसमें अवध का पूरा इतिहास दिखा रहे हैं.
नवाबों से पहले और उनके बाद के कार्यकाल का इसमें पूरा ब्यौरा है.उनका कहना है कि जब नवाब यहां आए तो यहां के लोगों में मिलकर उन्होंने गंगा- जमनी संस्कृति को और परवान (प्रोत्साहन) चढ़ाया और इसकी इतनी तारीफ हुई कि इसके चर्चे पूरी दुनिया में मशहूर हुए.
उन्होंने कहा,आज मिक्स कल्चर का जमाना है.सारी दुनिया ग्लोबल विलेज के रूप में सिमटती जा रही है.
ऐसे में यह सोचना कि पुरानी संस्कृति वैसे ही बरकरार रहे फिजूल लगता है.लेकिन लखनऊ वालों की खुद भी जिम्मेदारी है कि वह अपनी संस्कृति को कायम रखने की पूरी कोशिश करें,ताकि आने जाने वाले पर्यटक भी इससे प्रभावित हों.
लखनऊ के स्थाई निवासियों ने अपने आपको पूरी तरह से एक सीमा रेखा में बांध लिया है,जबकि यहां होने वाले मेलों उत्सवों में उन्हें बढ़ चढ़कर हिस्सा लेना चाहिए. उन्हें भी यहां की सभ्यता और संस्कृति से भरपूर कार्यक्रमों में दिलचस्पी दिखानी चाहिए.
इस क्षेत्र में मुशायरों, कवि सम्मेलनों, महफिलों, कला आदि को प्रोत्साहन देना चाहिए.अफसोस की बात तो यह है कि लखनऊ वालों के पास ऐसा कोई स्टेज मयस्सर नहीं है जिस पर वह अपनी कला के जौहर दिखा सकें.
आज आवश्यकता इस बात की है जो भी सीरियल, फिल्में या ड्रामें यहां बनाए जाएं उसमें लखनऊ की सभ्यता और संस्कृति के हर पहलू को उजागर किया जाए,क्योंकि अब तक जो भी फिल्में बनी हैं वह या तो यहां के जीवन के किसी एक पहलू को उजागर करती हैं या फिर उसमें इस शहर की तहजीब की पूरी हू बहू तस्वीर नहीं उबर पाई है.हालांकि इन फिल्मों में जिन मुद्दों (विषयों) पर ध्यान दिया गया है उसको बहुत अच्छे ढंग से पेश किया गया है.
( हुमा रिज़वी जॉन एलिया की सगी भांजी हैं.)