कुरबान अली
सैयद अहमद ने अपने चाचा सैयद जैनुल आबेदीन से गणित, भूविज्ञान और चिकित्सा का ज्ञान हासिल किया था. उन्होंने विभिन्न मौलवियों और मौलानाओं से अरबी साहित्य, तफसीर-ए-कुरान, हदीस और फिका की तालीम हासिल की थी.
उनके बड़े भाई सैयद मुहम्मद ने 1837में दिल्ली से एक साप्ताहिक अखबार निकाला करते थे. अपने छोटे भाई सैयद अहमद के नाम पर इस अखबार का नाम रखा ‘सैयदुल-अखबार‘. 1845में सैयद मुहम्मद की मृत्यु के बाद, सैयद अहमद ने ‘सैयदुल-अखबार‘ का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया.
सैयद अहमद, एक बहुआयामी व्यक्तित्व थे. वे एक लेखक, पत्रकार, इतिहासकार, विधिवेत्ता, विचारक, शिक्षाविद्, सांसद, समाज सुधारक और सबसे बढ़कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मिशन की भावना वाले महान इंसान थे. उन्होंने बाईस साल की उम्र में सिविल सेवक के रूप में अपना करियर शुरू किया.
इतिहास में उनकी गहरी दिलचस्पी ने उन्हें तीस साल की उम्र में दिल्ली के पुराने स्मारकों पर ‘आसार-उस-सनादीद‘ नामक एक विशाल पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया. आठ साल बाद 1855 में, उन्होंने सम्राट अकबर के सलाहकार अबुल फजल के 16 वीं शताब्दी के काम ‘आइन-ए-अकबरी‘ का नया संस्करण प्रकाशित किया.
प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. एम. मुजीब के अनुसार, ‘‘उन्होंने अपने बचपन में फारसी और अरबी का अध्ययन किया. उन्हें गणित और खगोल विज्ञान में रुचि थी. उन्होंने चिकित्सा का अध्ययन भी किया. कुछ समय तक इसका अभ्यास भी किया.(भारतीय मुस्लिम पृष्ठ 447)।
1857 के महान विद्रोह के बाद सर सैयद अहमद ने ‘अंग्रेजों की शैली और कला की जांच‘ शुरू की. सैयद अहमद खान के पहले जीवनी लेखक जी.एफ.आई ग्राहम के अनुसार,
‘विद्रोह के बाद, सैयद अहमद ने भारत में अपने सह-धर्मवादीयों की स्थिति का गहराई से अध्ययन किया.
विशेष रूप से शिक्षा के सवाल पर उनका मानना था कि मुसलमानों को दी जाने वाली शिक्षा तर्क, दर्शन, अरबी साहित्य और धर्म की शिक्षा उनके लिए पूरी तरह से अपर्याप्त थी. भूगोल, आधुनिक कला और विज्ञान, इतिहास, उनके लिए सीलबंद किताबें थीं. इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने शिक्षा के अपने ताबीज का प्रचार किया. उनका आदर्श वाक्य था ‘शिक्षा, शिक्षा और शिक्षा (सर सैयद अहमद खान का जीवन और कार्य, पृष्ठ 47-48.
सैयद अहमद का मत था कि इस इलाज से भारत के सभी सामाजिक-राजनीतिक रोग ठीक हो सकते हैं. जड़ को ठीक करो तो पेड़ फलेगा-फूलेगा. उन्होंने एक बार कहा था कि ‘‘विज्ञान और प्रौद्योगिकी का ज्ञान ही मुसलमानों की समस्याओं का एकमात्र समाधान है.‘‘
इसलिए 1857 के विद्रोह के तुरंत बाद,1858 में जब वह मुरादाबाद में ‘सदर-उस-सुदुर‘ (उप-न्यायाधीश) थे, उन्होंने विशेष रूप से आधुनिक इतिहास के अध्ययन के लिए एक स्कूल खोलकर शिक्षा का पहला प्रयास किया था.
ग्राहम आगे बताते हैं ‘सैयद अहमद के अनुमान के अनुसार, अध्ययन की इस शाखा के लिए मूल भाषा में कोई भी किताब उपयुक्त नहीं है, इस प्रकार उनके दिमाग में ‘ट्रांसलेशन सोसाइटी‘ का विचार आया.
1862 में सर सैयद अहमद को पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में स्थानांतरित कर दिया गया, और वहां जाते ही उन्होंने बाइबिल पर पहली टिप्पणी लिखी, जो किसी मुसलमान द्वारा पहला प्रयास था. प्रो. एम. मुजीब के अनुसार, ‘सर सैयद ने जो कुछ भी किया, उसमें श्रमसाध्य था.
उन्होंने जो विद्वतापूर्ण कार्य किए, उनकी योजना बड़े सटीक रूप से बनाई गई थी. बाइबिल पर उनकी टिप्पणी यह दिखाने की कोशिश थी कि इसमें और कुरान के बीच कोई असहमति नहीं है.
नोटः लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. बीबीसी के लिए काम कर चुके हैं.