आवाज द वाॅयस/ पटना
भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां खान-पान,रहन-सहन,कपड़े-लत्ते,सभ्यता-संस्कृति की एक अलग पहचान है. हर राज्य और हर जाति-धर्म समूह का एक अलग पहनावा है, जो सदियों से चला आ रहा है. बिहार के मुस्लिम घरानों में एक पारंपरिक लिबास है छापा वाले कपड़े. फ़ैशन और आधुनिक युग में भी इस पोशाक ने अपनी पहचान नहीं खोई है.
छापा कपड़े एक पारंपरिक बिहारी पोशाक है, जिसे बड़े मुस्लिम घरानों में शादियों में पहना जाता है. कहते तो यहां तक हैं कि मुसलमानों की उच्च जातियों में इसके बग़ैर निकाह ही नहीं होता. बिहार में मुस्लिम घरानों की शादी छापा कपड़ों के बग़ैर अधूरी मानी जाती है. दिलचस्प है कि छपाई का पेशा रंगरेज़ बिरादरी के लोग करते हैं, जो मुसलमानों की पिछड़ी जाति से आते हैं. एक तरह से यह लिबास जात-पात से ऊपर समुदाय को जोड़ता है.
छपाई कपड़े का काम बिहार के गया,बिहारशरीफ,औरंगाबाद,दरभंगा,सिवान,मुज़फ़्फ़रपुर,और पटना के सब्ज़ीबाग़ इलाके में होता है.
लिबास की परंपराः बिहार में छापा कपड़ों के बगैर मुस्लिम परिवारों में शादियां मानी जाती हैं अधूरी
सदियों पुराना इतिहास है छापा कपड़ों का
दूल्हे द्वारा दुल्हन को भेजे जाने वाले कपड़े आमतौर पर उस छापे के होते हैं जो दुल्हन शादी के दिन पहनती है. इस कपड़े को पहनकर ही निकाह होता है. छापा कपड़े का इतिहास 19वीं सदी की शुरुआत से माना जाता है. पेशे से डॉक्टर फ्रांसिस बुकानन ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी के रूप में भारत आए थे. उन्होंने 1811और 1812के बीच अपनी पत्रिका में एक लेख लिखा,जिसमें संक्षेप में छापे का उल्लेख किया गया था. बुकानन ने बिहार के गया के अलावा विभिन्न जिलों का दौरा किया था.
बुकानन ने अपने लेख में प्रिंटेड कपड़े बनाने के महत्व और बिहारी मुस्लिम परिवारों के महत्व का उल्लेख किया है.
दरअसल, छापा कपड़ा और बिहारी मुसलमानों को पहनने की परंपरा का ऐतिहासिक महत्व है. परंपराओं के अनुसार,मुस्लिम परिवार विवाह समारोहों के दौरान छापा कपड़े ही पहनते थे,समय बीतने के साथ,नए फैशन के कारण छापा कपड़े पहनने का रिवाज थोड़ा कम ज़रूर हुआ है मगर इसकी पहचान आज भी क़ायम है.
दुल्हन का ख़ास लिबास
रिवायतों के मुताबिक़, दूल्हा का परिवार दुल्हन और उसके रिश्तेदारों को तरह-तरह के उपहार देता है, जिसे बिहार की स्थानीय भाषा में ‘डाला’ कहा जाता है. ‘डाला’ का कपड़ा भी छापे का ही होता है.
दुल्हन के सभी लिबास छापा कपड़ा से ही तैयार होते हैं. चांदी के तबक़ को लकड़ी से बने डिज़ाईन ब्लॉक से साड़ी, सूट सलवार, गरारा, शरारा, लहंगा और अन्य पोशाकों पर प्रिंट किया जाता है. इसे मुस्लिम दुल्हनें अपनी शादी के दिन पहनती हैं. इसके अलावा बक्से,चादरें और पर्दे भी छापा कपड़े से तैयार होते हैं.
शादी के दिन दूल्हा के हाथ में छापा से तैयार रूमाल रखने की भी प्रथा है. इस पेशे की बिरादरी रंगरेज़ जागरण मंच के राष्ट्रीय संयोजक मुस्तकीम अख़्तर रंगरेज़ बताते हैं कि छापा में चांदी का तबक़ फ़िज़िकल और मेडिकल दृष्टिकोण से काफी अहम है,यह पोशाक पहनने वाले को ऊर्जान्वित करता है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है लोकप्रियता
छापा के पोशाक बिहार में ही नहीं देश-विदेश में भी लोकप्रिय है. पाकिस्तान,बांग्लादेश,अमेरिका,कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के अलावा भारत के दूसरे राज्यों में रहने वाले बिहारी मुस्लिम परिवार शादियों में छापे से बने कपड़े ही खरीदते हैं.छापा कपड़े के कारोबारी मुहम्मद मुस्तफा मुताबिक़, “लोग सोचते हैं कि शादी समारोह छापे कपड़े के बिना अधूरा है.
हम छापा के कपड़े तैयार कर बिहार के बाज़ारों सहित देश के अन्य राज्यों विदेशों में बसे बिहारी घरानों को भेजते हैं.”मुस्तफा बताते हैं कि बंटवारे के दौरान कुछ बिहारी परिवार पाकिस्तान चले गए थे लेकिन वे अभी भी अपनी परंपराओं को बनाए हुए हैं. कोरोना महामारी से पहले उनके कपड़े पाकिस्तान के अलावा अन्य देशों में निर्यात किए जाते थे.
छापे के कपड़ों के कारीगर मुहम्मद वसीम कहते हैं, “बदलते फैशन के साथ डिजाइन में भी बदलाव हुआ है. और शादी के सीजन में प्रिंटेड कपड़े बड़ी संख्या में बिकते हैं.”
परंपराः हाथ से छपाई होती है इसलिए नाम है छापा कपड़ा
कैसे तैयार होता है छापा पोशाक?
इसे केमिकल्स और लेयर्स से बनाया जाता है. फूलों की पंखुड़ियों आदि की एक नाजुक डिजाइन के साथ कारीगर लकड़ी के ढांचे पर बारीक-बारीक डिजाइन जिसमें फूल-पतियों का नक़्शा होता है, बनाते हैं. चूल्हे पर खौलते गरम पानी में गोंद और फ़ेविकोल के अलावा कुछ केमिकल भी मिलाया जाता है और उसे खूब गरम किया जाता है. इसे लकड़ी के ढांचे पर लगा कर कपड़ों पर अंकित किया जाता है.
कपड़े पर छपाई करते समय, उन्हें ऊपर की परत पर रखा जाता है, जो कागज की तरह चांदी के रंग का होता है, उस पर रख कर पीटते हैं. इस दौरान इतना दबाव डाला जाता है कि परत पूरी तरह चिपक जाती है. छपे हुए कपड़े को दो-तीन बार धोने पर वह निकलने लगता है लेकिन चमक बनी रहती है.
कारीगर मोहम्मद नौशाद बताते हैं कि उन्हें रसायनों के साथ काम करने की आदत है. एक साड़ी की छपाई में पांच से छह सौ रुपये का खर्च आता है जबकि एक हजार रुपये में बिकता है. नौशाद कहते हैं, “फिलहाल बाजार में इसकी मांग में अचानक वृद्धि हुई है. हमारे यहां हर उम्र की महिलाओं के कपड़े बेचे जाते हैं. छापा कपड़े की ख़ासियत यह भी है कि यह बेहद सस्ता है.” शहर गया में न्यू करीमगंज मोहल्ले की रहनेवाली ग़ज़ाला परवीन कहती हैं, “छापा कपड़ों से दुल्हन की रौनक़ बढ़ जाती है.”
फिर से बढ़ी मांगः छापे के कपड़ों के बाजार ने फिर जोर पकड़ा है
छापा कपड़े को उद्योग का दर्जा ज़रूरी
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस धंधे को लुप्त होने से बचाने और इसके विकास के लिए रंगरेज़ आर्टिजन विकास समिति का भी गठन किया है. हालांकि, लालफ़ीताशाही के कारण समिति सक्रिय नहीं है. समिति के प्रमुख सदस्य मुस्तकीम रंगरेज़ आवाज़ द वायस से कहते हैं कि यदि यह समिति पूर्णरूप से काम करना शुरू कर दे तो छापा पेशा से जुड़ी बिरादरी का दुःख-दर्द दूर हो जाएगा. वह कहते हैं, “नीतीश कुमार की नीयत ठीक है मगर अफसरशाही के चलते समिति निष्क्रिय है.”
रंगरेज़ बिरादरी सहित तीन अन्य मुस्लिम जातियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए 17 सितंबर,2019 को विधिवत रूप से समिति का गठन किया गया. मुस्तकीम कहते हैं, “छापा कारोबार को प्रोत्साहन और अपना बाज़ार की जरूरत है. इसे खादी ग्राम उद्योग की तर्ज़ पर उद्योग का दर्जा मिलना चाहिए साथ ही पटना स्थित खादी मॉल की तरह अपनी चीजों को खुले बाज़ार में बेचने के लिए छापा कपड़ा मॉल की स्थापना होना चाहिए. समिति के गठन का उद्देश्य यह था कि कुटीर उद्योग धंधे को बाज़ार में खड़ा होने के लिए पूंजी मुहैया कराया जाये.”