पांच रुपये में बवासीर का आयुर्वेदिक इलाज: डॉ. शाहना की क्षारसूत्र पद्धति का चमत्कार

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 20-10-2024
My work is worship; Dr. Shahana A.K., Ayurvedic Para-Surgery Specialist
My work is worship; Dr. Shahana A.K., Ayurvedic Para-Surgery Specialist

 

श्रीलता मेनन/त्रिशूर

बीमारी का मतलब दर्द जितना ही शर्म भी हो सकता है.यह खासकर तब होता है जब एनोरेक्टल रोगों की बात आती है.एलोपैथी में उपचार उपलब्ध हैं, लेकिन ये महंगे हैं और दोबारा न होने की गारंटी नहीं देते हैं.पांच रुपये में बवासीर से मुक्ति...हाल ही में एक मलयालम दैनिक में शीर्षक पढ़ा.यह दावा किसी एलोपैथ ने नहीं बल्कि त्रिशूर जिले के चेलाक्कारा में सरकारी आयुर्वेद अस्पताल के क्षारसूत्र क्लिनिक में आयुर्वेद चिकित्सक ने किया था.

क्लिनिक और इसकी प्रमुख डॉ. शाहना ए. के. राज्य के विभिन्न हिस्सों और यहां तक ​​कि बाहर से भी मरीजों को फिस्टुला, बवासीर, गुदा विदर और मलाशय आगे को बढ़ाव जैसी गुदा संबंधी बीमारियों के इलाज के लिए आकर्षित कर रही हैं.वह उनका इलाज क्षारसूत्र की एक प्राचीन विधि से करती हैं जिसमें प्रभावित क्षेत्र या फिस्टुला के माध्यम से एक औषधीय धागा डाला जाता है.

क्षारसूत्र नामक इस पद्धति में बहुत कम समय लगता है.मरीज को भर्ती होने की भी जरूरत नहीं होती.मरीज के ठीक होने तक धागे को कुछ बार नए धागे से बदला जाता है.यह सरल,गैर-आक्रामक है. इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं है. यह लागत प्रभावी है.सर्जरी के विपरीत समस्या की पुनरावृत्ति नहीं होती है.

सुश्रुत को "प्लास्टिक सर्जरी का जनक" माना जाता है.वे 1000 से 800 ईसा पूर्व के बीच भारत में रहते थे.वे सुश्रुतसंहिता नामक ग्रंथ के लेखक हैं, जिसमें प्राचीन भारत में शल्य चिकित्सा प्रशिक्षण, उपकरणों और प्रक्रियाओं का वर्णन करने वाले अनूठे अध्याय शामिल हैं.सुश्रुतसंहिता की सबसे पुरानी पांडुलिपियों में से एक नेपाल के कैसर पुस्तकालय में सुरक्षित है.डॉ. शाहाना पिछले कुछ दशकों से सरकारी क्लिनिक में इस प्राचीन आयुर्वेदिक पैरा-सर्जिकल प्रक्रिया का अभ्यास कर रही हैं और उनका नाम क्षारसूत्र से जुड़ गया है.

 डॉक्टर कहती हैं कि सफलता की कहानियाँ सिर्फ़ मौखिक रूप से पूरे राज्य में फैल रही हैं.किसी ने इसका प्रचार करने की कोशिश नहीं की.वे कहती हैं कि लोग ठीक हो चुके लोगों से इसके बारे में सुनकर यहाँ आते हैं.एक अख़बार में हाल ही में छपी खबर के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा: मैं चाहती हूँ कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस उपचार के बारे में जानें ताकि वे नीम-हकीमों के शिकार न बनें. जो उनके मामलों को हमेशा के लिए खराब कर देते हैं और उनसे भारी रकम वसूलते हैं.

बीएएमएस (आयुर्वेदिक चिकित्सा और शल्य चिकित्सा में स्नातक) के बाद उन्होंने शल्य चिकित्सा या शल्य तंत्र में मास्टर डिग्री प्राप्त की.उस समय राज्य के कॉलेजों में केवल तीन सीटें थीं.आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा में क्षारसूत्र, रक्तमोक्षम, क्षारकर्म और इसी तरह की कई पैरा-सर्जिकल प्रक्रियाएँ शामिल हैं.

उन्होंने इस लेखक को बताया,क्षारसूत्र की रचना आयुर्वेद के जनक सुश्रुत ने सदियों पहले की थी, लेकिन इस प्रक्रिया में कई वर्षों से विकास हुआ है.उन्होंने क्षारसूत्र को क्यों चुना, इस बारे में वे कहती हैं, "मैं अपनी शिक्षा का उपयोग अधिकतम लोगों की मदद करने के लिए करना चाहती थी."

गुदा संबंधी रोगों की दुनिया एक अंधकारमय, शांत और अस्पष्ट दुनिया है, जहाँ रोगी अपने निजी अंगों से संबंधित अपनी पीड़ा को प्रकट करने में डर और शर्म के कारण चुपचाप पीड़ित रहते हैं.अगर रोगी महिलाएँ हैं, तो डॉक्टरों से इस बारे में चर्चा करना और भी शर्मनाक है.

वह कहती हैं,मरीज़ एलोपैथी में इलाज करवाते हैं.बवासीर या दरारें दोबारा होने पर कई सर्जरी करवाते हैं.इसलिए जब वे बार-बार होने वाली बीमारी के लिए आयुर्वेद की ओर रुख करते हैं, तब तक उनके पास पैसे खत्म हो चुके होते हैं. "

वह कहती हैं, जब मैंने काम करना शुरू किया तो झोलाछाप डॉक्टरों का बोलबाला था.वे खुद को इस प्राचीन पद्धति के विशेषज्ञ के रूप में प्रचारित करते थे.बिना सर्जरी के बवासीर, फिशर और फिस्टुला का इलाज करते थे.मरीज़ अभी भी उनके झांसे में आ जाते हैं.बहुत सारा पैसा और अपना स्वास्थ्य खो देते हैं."

उनके क्लिनिक में बवासीर, फिस्टुला या फिशर जैसी बीमारियों का इलाज मुफ़्त है, जबकि केरल के अन्य सरकारी आयुर्वेद अस्पतालों में मामूली शुल्क लिया जाता है.निजी आयुर्वेद क्लीनिकों में, यह बहुत महंगा हो सकता है.वह कहती हैं,इसका मुख्य लाभ यह है कि इससे असंयम नहीं होता है.चूँकि यह गुदा क्षेत्र में उपचार होता है, इसलिए एलोपैथी में सर्जरी के बाद मरीज़ अक्सर अपने मल त्याग पर नियंत्रण खो देते हैं.

वह कहती हैं कि गुदा संबंधी विकारों से पीड़ित मरीजों की प्रोफ़ाइल नाटकीय रूप से बदल रही है."पहले ज़्यादातर मध्यम आयु वर्ग के लोग होते थे.आज उम्र का कोई अंतर नहीं है.वे युवा और बच्चों सहित हर आयु वर्ग से आते हैं.शौचालय की खराब आदतें, तनाव, जंक फ़ूड और शारीरिक गतिविधि की कमी, दस साल से कम उम्र के बच्चों में भी गुदा संबंधी बीमारियों का कारण बनती हैं."

गर्भवती महिलाओं में भी ये बीमारियाँ मुख्य रूप से इसलिए हो रही हैं क्योंकि वे स्वस्थ बच्चे के लिए पारंपरिक खाद्य पूरक लेती हैं.आजकल महिलाओं में पाचन क्षमता नहीं होती.उन्हें अभी भी मांस की खुराक दी जाती है.इसलिए जो महिलाएँ पहले से ही कब्ज से पीड़ित हैं,उनकी स्थिति और खराब हो जाती है.उन्हें गुदा संबंधी जटिलताएँ हो जाती हैं.वे यहाँ आती हैं.”

वह कहती हैं,सभी जाति और समुदाय के मरीज़ आते हैं .विडंबना यह है कि हर धार्मिक त्यौहार पर उनके क्लिनिक में मरीजों की संख्या बढ़ जाती है.ओणम, ईस्टर, क्रिसमस और ईद सभी मामलों में वृद्धि का कारण बनते हैं और पुराने मामले और भी गंभीर हो जाते हैं.रमज़ान के उपवास के महीने में, मरीज़ों को बहुत तकलीफ़ होती है.

वे एक दिन का उपवास तोड़ने के लिए बहुत मसालेदार और तैलीय भोजन खाते हैं.कहती हैं कि इससे ये विकार और भी गंभीर हो जाते हैं.कुछ त्योहारों पर शराब पीने से भी ये बीमारियाँ बढ़ जाती हैं.उनका क्लिनिक जागरूकता शिविरों और पोस्टरों के साथ 20 नवंबर को विश्व बवासीर दिवस मनाने की तैयारी कर रहा है.कहती हैं, “हम ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचने की पूरी कोशिश कर रहे हैं ताकि वे नीम-हकीमों से बच सकें.

अक्सर लोग अपने गुप्तांगों की मेडिकल जाँच से बचने के लिए खुद ही दवा लेने लगते हैं.या फिर वे सर्जरी से बचने के लिए झोलाछाप डॉक्टरों के पास चले जाते हैं.उन्हें यह एहसास नहीं होता कि अक्सर मलाशय कैंसर और बवासीर में एक जैसे लक्षण दिखते हैं, जिन्हें केवल एक अच्छा डॉक्टर ही पहचान सकता है.

वह कहती हैं,पिछले कुछ दशकों से उनके द्वारा अकेले चलाए जा रहे क्षारसूत्र क्लिनिक को केरल सरकार द्वारा उत्कृष्टता केंद्र घोषित किया जाना है.इसका मतलब होगा कि अधिक डॉक्टर और अधिक फंड.वह कहती हैं,"बेशक, मैं तब तक सेवानिवृत्त हो चुकी होती, लेकिन उपचार सुविधाओं में सुधार होता."

यह पूछे जाने पर कि क्या क्षारसूत्र का अभ्यास करने में कोई कलंक है. वह इस बात से सहमत हैं कि राज्य में क्षारसूत्र चिकित्सकों की संख्या बहुत कम है.उन्हें लगता है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि शल्य चिकित्सा या शल्यतंत्र के लिए बहुत कम सीटें उपलब्ध हैं."कोर्स करने वाले हर व्यक्ति को अवसर नहीं मिल सकता है या इस क्षेत्र में आगे बढ़ने की मानसिक इच्छा नहीं हो सकती है.यह हर किसी के लिए संभव नहीं है."

वह कहती हैं, "मेरे लिए, मुझे लगता है कि यह कुछ अच्छा करने का अवसर है.लोग दो या तीन एलोपैथिक सर्जरी के बाद मेरे पास आते हैं.अभी हाल ही में मेरे पास एक मरीज आया था, जिसका बवासीर और फिस्टुला का आठ बार ऑपरेशन हुआ था.वह मानसिक और शारीरिक रूप से टूट चुका था और निराश था.मैं इन लोगों को, जिनमें से कई आत्महत्या के कगार पर हैं, वापस उम्मीद और सामान्य जीवन की ओर लाने में सक्षम हूँ."

वह कहती हैं कि उनका धर्म इस्लाम या उनका लिंग उनके काम को हतोत्साहित नहीं करता.वह कहती हैं, "मुझे लगता है कि एक महिला होना मेरे लिए एक फायदा है क्योंकि मैं उनकी पीड़ा को समझ सकती हूँ और मरीजों से मातृ स्नेह और चिंता के साथ मिल सकती हूँ.एक मुस्लिम के रूप में मैं जो काम करती हूँ उसे भक्ति के बराबर माना जाता है.इस्लाम अच्छे इरादों के साथ किए गए सभी अच्छे कामों को इबादत या भक्ति मानता है.

इन्हें प्रार्थना या धर्मग्रंथों को पढ़ने से बेहतर माना जाता है," वह कहती हैं.डॉ. शाहना का मानना ​​है कि अगर किसी के पास ऐसा काम है जिसमें आम लोगों की भलाई करना शामिल है तो उसे यथासंभव अधिक से अधिक काम करना चाहिए."यही मेरी नीति है.अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं इन मरीजों तक पहुंचने के लिए इतनी परेशानी क्यों उठाती हूं.

मुझे लगता है कि डॉक्टर या राजनेता जैसे लोग जो जनता की भलाई के लिए काम करने की स्थिति में हैं और ऐसा नहीं करते हैं, उनके लिए उस स्थिति में रहना उचित नहीं है."

( लेखक बिजनेस स्टैंडर्ड के पूर्व सोशल-एडिटर हैं और आंध्र प्रदेश के एक वैकल्पिक स्कूल में पढ़ाती हैं)