मीराजी: लकीर से अलग एक फकीर

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 25-05-2021
मीराजी एक गुमनाम पर बड़ा अदीब
मीराजी एक गुमनाम पर बड़ा अदीब

 

आवाज विशेष । शायर मीराजी का 109वां जन्मदिन

अरविंद कुमार

दुनिया के विभिन्न जुबानों के अदब में ऐसे अजीम अदीब पैदा हुए हैं, जिन्होंने बहुत कम उम्र पाई लेकिन अपने टैलेंट के बदौलत उन्होंने अपना नाम विश्व में रोशन किया और सबके दिलोदिमाग पर अमिट छाप छोड़कर चले गए. अंग्रेजी साहित्य में रोमांटिक पोएट जॉन कीट्स, शेली से लेकर लॉर्ड बायरन जैसे कवि जो क्रमशः 25, 30 और 36 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा हो गए. हिंदी में भारतेंदु हरिश्चंद भी मात्र 36 साल की उम्र में चल बसे.

एक ऐसा ही एक शख्स उर्दू की दुनिया में भी हुआ, जिसका नाम था मोहम्मद सलाउल्लाह. मोहम्मद सलाउल्लाह 1912 में 25 मई को पंजाब में पैदा हुए और वह महज 37 साल की उम्र में हमसे विदा भी हो गए. उस शख्स का नाम भी ऐसा, जिसे दुनिया कभी नहीं भूल सकती. आखिर कोई कैसे भूले?वह शख्स किसी जुबान का शायद पहला ऐसा राइटर होगा, जिसने अपनी माशूका के नाम पर ही अपना नाम रख लिया था.

इस दुनिया में मोहब्बत तो बहुतेरे लोग करते हैं. इकतरफा इश्क के भी अनेक किस्से हैं. लेकिन इश्क में माशूका के नाम पर अपना नाम रख लेना एक अभूतपूर्व घटना थी. वह शख्स उर्दू का अजीम शायर मीराजी है जिसकी शायरी की कद्र उसके इंतकाल के बाद लगातार बढ़ती जा रही है. वह फैज, फिराक, मजाज़, साहिर की तरह अमर हो गया.

आज से 109 साल पहले जन्मे इस शायर का एक संचयन सेतु प्रकाशन ने रजा फाउंडेशन के सहयोग से साया किया है, जिसका संपादन उर्दू के जाने-माने अदीब शीन काफ निजाम ने किया है.

मीराजी को हिंदी की दुनिया में प्रकाश पंडित और मंटो ने लोकप्रिय बनाया. मंटो ने मीना बाजार में मीराजी पर संस्मरण लिखकर तो प्रकाश पंडित ने हिंदी में उनकी शायरी को प्रकाशित कर. नरेश नदीम ने भी कुछ साल पहले मीराजी पर एक किताब एडिट की थी.

‘मीराजीः उस पार की शाम’नामक इस किताब से मीराजी की शायरी और उनकी पर्सनेलिटी पर नई रौशनी पड़ती है.

शीन काफ निजाम ने लिखा है, "साना (मीराजी) मैट्रिक में आए तो उनकी नजर एक बंगाली कन्या मीरा सेन पर पड़ी,जिसे उसके परिवार के लोग मीराजी कहते थे.इस सूचना के साथ ही सना ने अपना मूल नाम त्यागकर मीराजी नाम धारण कर लिया. इससे पहले वह ‘साहिरी’उपनाम से शायरी करते थे.

उन्हें मीरा सेन के लंबे बाल बेहद पसंद थे. सो उन्होंने अपने बाल भी बढ़ा लिए. ऐसी मनोदशा में मैट्रिक की परीक्षा का परिणाम जैसा आना चाहिए था, वैसा ही आया. पिता नाराज हुए और उन्हें होम्योपैथिक पद्धति से इलाज की शिक्षा दिलवाने का प्रयास किया. मीराजी इस चिकित्सा पद्धति के जानकार तो हो गये, लेकिन इसे अपने जीवनयापन का जरिया नहीं बनाया."

उर्दू की दुनिया में हुस्न और इश्क ने शायरों को काफी मुत्तासिर किया है और कई शायरों और अदीबों का लेखन इसी प्रभाव से शुरू हुआ.

इस एकतरफा इश्क ने मीराजी के भीतर भी एक रचनात्मक ऊर्जा भर दी और इश्क की  नाकामी ने उन्हें एक आले दर्जे का शायर भी बना दिया. इतना ही नहीं, इश्क की इस नाकामी की वजह से मीराजी ने कभी शादी ही नहीं की और वह 1949 में कुंवारे ही चल बसे.

उनकी जिंदगी बहुत मुफलिसी और संघर्षों में बीती और उनके व्यक्तित्व में भी एक अजीब तरह का पेंचोखम पैदा हो गया और अंतिम दिनों में वे विक्षिप्त से हो गए और अजीबोगरीब हरकतें भी करने लगे. कुल मिलाकर उनकी पर्सनैलिटी असहज बन गई,एक स्प्लिट पर्सनेलिटी बन गई. लेकिन अपनी शायरी से हमें बहुत कुछ वह देकर गए.

उनकी शायरी देखें तो उसमें कई तरह के नए प्रयोग इमेजरी और जुबान में दिखाई देते हैं और उसका अर्थ भी अपने जमाने के हिसाब से बहुत ही मॉडर्न है. उसमे एक जदीदियत भी दिखाई देती है. उन्होंने अपनी नज्मों से उर्दू शायरी में एक नया मुकाम हासिल किया और तब उनकी तरह नज्म लिखने वाला शायद ही कोई शायर रहा होगा, जिसने जुबान और क्राफ्ट के स्तर पर इतने प्रयोग किए.

शीन काफ निजाम ने लिखा है, "मीराजी का जीवन कई रहस्यों से भरा है. जैसा कि पहले कहा जा चुका है. इसे रहस्य में बनाने में स्वयं मीराजी की भूमिका कम नहीं रही. अनोखेपन और कुछ अलग व्यवहार लोगों में जिज्ञासा और कौतूहल पैदा कर देता था."

दरअसल मीराजी ने अपना एक प्रतिसंसार रच लिया था,एक फैंटेसी बना ली थी और वह उसी के भीतर जीने लगे थे. हिंदी के महान कवि निराला और अफसानानिगार-नाटककार भुवनेश्वर के साथ ऐसा ही हुआ था. हालात ने मीराजी को भीतर से तोड़ दिया था और वह दिन-रात शराब पीने लगे तथा कर्ज में अपनी जिंदगी बिताने लगे थे. अख्तर उल उमान और नून मीम राशिद जैसे लोग मीराजी के दोस्त नहीं होते तो मीराजी इस दुनिया से और टूट गए होते.

असल में, उनकी बचपन की परवरिश ने भी इनपर मनोवैज्ञानिक असर डाला था. उनके पिता और मां के झगड़ों से वे बहुत परेशान हुए थे.

शीन काफ निजाम ने एजाज अहमद के अल्फाज को पेश करते हुए बताया है,"बदन लागर (दुबला पतला), हुलिया गलीज (गंदा), सियाह और सफेद बालों की लटें आपस में यूं उठी हुई कि पूरा सर राख का ढेर लगे, चेहरा सुता हुआ,आंखें अंदर को धंसी हुई मगर तीखी और चमकीली आवाज पाटदार,लहजा तहक्कुमाना (आदेशीय) उंगलियों में छल्ले, हाथों में मदारियों के ऐसे गोले जिन पर सिगरेट की खाली डिब्बों में से निकाल-निकालकर चमकदार पन्नियां चिपकाता रहता था. यहां तक कि वे चांदी के लगते... गुफ्तगू में झूठ बोलने का मर्ज, जेहन में कत्ल और खुदकुशी के ख्यालों से अटा हुआ, तखय्यूल घिनावने जिंसी अफ़ाल आल (यौन क्रियाओं) से..."

यह सारी बातें और संकेत मीराजी के अजीबोगरीब पर्सनेलिटी की तरफ इशारा करते हैं, जिनके कारण भी उस जमाने में उनके अदब को गंभीरता से नहीं लिया गया क्योंकि वह जमाना तरक्कीपसंद अदब का था. मंटो, इस्मत और मीराजी को वह स्वीकृति नहीं मिली जो बाद में मिली क्योंकि तब इनपर अश्लील और अराजक लेखन की तोहमते लगी थीं.

शीन काफ निजाम ने लिखा मीराजी का जमाना तरक्कीपसंद तहरीर की उठान-उड़ान का जमाना था. साहित्य को जीवन का अनुवाद और उससे बेहतर से बेहतर बनाना तहरीक का उद्देश्य था, जो गलत नहीं था. लेकिन इसमें अतिवाद ऐसा आया कि ‘यगाना’ का यह शेर याद आता है,

सब तेरे सिवा काफिर आखिर इसका मतलब क्या

सरफिरा दे इंसान का ऐसा खब्ते मजहब क्या

अदीब होने का प्रमाण यह ठहरा कि उनकी हर बात पर हामी भरो, वरना अदीब अदीब ही नहीं. उस जमाने में तो फैज तक को संदेह की दृष्टि से देखा गया.

कुछ लोगों ने इसके विरोध में आवाज उठाई और 29 अप्रैल, 1939 को लाहौर में ‘हल्का-ए-बर-बाबे ज़ौक’की नींव रखी. इसका प्रारंभ तो नसीर अहमद ‘जानी’ ने किया, लेकिन इसे बौद्धिक सम्मान दिलाने वालों में यूसुफ जफर, कयूम नजर और मीराजी थे. इससे पहले केवल कहानी पाठ और उस पर चर्चा होती थी, मीराजी वगैरह के शामिल होने के बाद शायरी पर भी विचार होने लगा."

मीराजी ने पत्रिका में नौकरी करने के अलावा फिल्मों में गीत और संवाद लिखे तथा रेडियो में भी नौकरी की. लेकिन कहीं उनका मन स्थिर नहीं रहा और उनके भीतर एकतरह की बेचैनी और खलबली मचती रही, जिसके कारण वह लगातार लिखते रहे. सच पूछा जाए तो मीराजी लीक से हटकर लिखते रहे और जीते रहे.

इसी वजह से उन्हें तब उर्दू अदब की मुख्यधारा में शामिल नहीं किया गया, लेकिन बाद में उनकी शोहरत बढ़ती गई और उनकी शायरी की मौलिकता की तरफ लोगों का ध्यान गया और पाया गया कि मीराजी तो सबसे निराले और अनूठे शायर थे. उनका व्यक्तित्व भी बहुत ही अनोखा था.

बहुत कम लोगों को मालूम कि उन्होंने बसंत सहाय और बशीर चंद के नाम से भी राजनीतिक लेख लिखे, जिसका अगर मजनुआ हिंदी में आए तो शायद उन पर एक नई रोशनी पड़ेगी. लेकिन इस अजीम शायर के मरने पर उनकी लाश को कंधा देने वाले केवल 4 लोग ही मौजूद थे.

यह अजीब विडंबना है इस दुनिया की, कि वह अपने समय में कई महान अदीबों कलाकारों को पहचान नहीं पाती है लेकिन बाद में उसी की पूजा करती है. मीराजी के साथ भी उनके जीवन में यही हादसा हुआ. उनकी एक मशहूर नज़्म ‘यानी’को पढ़िए और गुनिए,

मैं सोचता हूं एक नज़्म लिखूं

लेकिन उसमें क्या बात कहूं

एक बात में भी सौ बातें हैं

कहीं जीते हैं कहीं माते हैं

दिल कहता है मैं सुनता हूं

मनमाने फूल यूं चुनता हूं

जब मात हो मुझको चुप ना रहूं

और जीत जो हो दर्रा ना कहूं

पलकें पल में एक नज़्म लिखूं

लेकिन उसमें क्या बात कहूं

जब यह उलझन बढ़ जाती है

तब ध्यान की देवी आती है

अक्सर तो वह चुप ही रहती है

कहती है तो इतना कहती है

क्यों सोचते हो एक नज़्म लिखो

क्यों अपने दिल की बात कहो

बेहतर तो यही है चुप ही रहो."

मीराजी एक इंट्रोवर्ट शायर थे. दुर्भाग्य से उन्हें समझने में लोगों को भूल हुई. उम्मीद है शीन काफ निजाम की यह किताब मीराज़ी को नए सिरे से समझने में मदद करेगी.