कश्मीरी भाषा में इंद्रधनुष के लिए शब्द राम दून है, जिसका अर्थ है राम का धनुष. दून का अर्थ स्थानीय रजाई-बनाने वालो द्वारा कपास को फुलाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाले कमान की तार भी है. नियंत्रण रेखा के पास उनींदे गांव में बड़े हुए एक बच्चे के रूप मेंइस शब्द, रामा दून के साथ मेरा आकर्षण, इन मायावी कमानों से परे चला गया जब हम उनका पीछा करते हुए अखरोट के पेड़ों के पार निकल आए.
यह राम कौन थे जिनके पास इतना रंगीन धनुष था और इंद्रधनुष का ऐसा रहस्यमय नाम क्यों होगा? या यह किसी रजाई बनानेवाले का था? एक बच्चे के रूप में मैं अक्सर अपने पिता से—जो एक स्कूल-शिक्षक और एक स्व-शिक्षित बहुभाषाविद थे—से ये प्रश्न पूछता था.
लेकिन हर बार जब मैं ऐसा करता, तो वह राम राम भद्रेन बूनी की एक कश्मीरी लोरी की दो पंक्तियों का जवाब देते और फिर जल्दी से अपने शिक्षक की टोपी लगाते और मुझे याद दिलाते कि बैनीआहपीनाला इंद्रधनुष में रंगों का सही क्रम था - बै से बैंगनी, नी से नीला वगैरह. जब हमारा संवाद ला से लाल पर खत्म होता था, तब तक मुझे पता चल जाता था कि राम की चर्चा कब आज तो नहीं हो पाएगी.
इस प्रश्न का वास्तव में कभी उत्तर नहीं मिला और कोई भी मुझे यह नहीं बता सका कि क्या भगवान राम कभी कश्मीर गए थे ताकि उन पर इंद्रधनुष का नाम रखा जा सके? क्या कश्मीरी लोग रामायण से भी परिचित थे, क्योंकि कश्मीरी पंडित शैव परंपरा का सख्ती से पालन करते थे?
12वीं सदी में लिखी कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार, दामोदर द्वितीय के समय में कश्मीर में रामायण का पाठ किया जाता था. दामोदर द्वितीय का काल दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का है. लेकिन फिर, इतनी सदियों और ऐतिहासिक परिवर्तनों के बाद, क्या राम अभी भी कश्मीरी चेतना का हिस्सा थे और वे कौन से तरीके थे जिनसे हमारी पीढ़ी के कश्मीरी मुस्लिम युवाओं ने भगवान राम की विरासत को अचेतन श्रद्धांजलि अर्पित की? ये कुछ अन्य चीजें थीं जिन्हें मैं वास्तव में समझना चाहता था.
हमारे गांव में कश्मीरी पंडितों की अच्छी खासी आबादी थी जो बाजार के पास रहते थे जबकि हम पहाड़ियों की तरफ रहते थे. लेकिन जब मैं छह साल का हुआ, तब तक हमारे पंडित पड़ोसी आतंकी खतरे के कारण पलायन कर चुके थे. मुझे उस समय की कोई बात शायद ही याद हो.
लेकिन मुझे वह सर्द शामें अच्छी तरह याद हैं जब धुंआई हवाएँ हमारे अहातों में पर गर्म राख और जले हुए कागज़ के टुकड़े गिराती थीं, जब हम गाँव के पूर्व की ओर अमंगलकारी धमाके देखते थे.
हर रात एक घर - इस तरह कश्मीरी पंडितों के घरों में आग लगा दी जाती थी. कश्मीरी पंडितों के जम्मू विस्थापित हो जाने के बाद स्थानीय और विदेशी आतंकियों का सड़कों पर शासन था.
हवाएं इन पंडितों के खाली घरों से जली हुई नोटबुक, कपड़े के टुकड़े और जले हुए अखरोट के पत्ते लेकर पूरे गाँव में बरसाती थीं, मानो हवाएँ इतिहास के निषिद्ध टुकड़ों को आग की लपटों से छीन रही हों. कश्मीर वैश्विक जिहाद का हॉटस्पॉट बनने के साथ, क्या किसी ने हमें रात के उस समय राम और रामायण के बारे में बताया होगा? नहीं.
इसके कई साल बाद, एक आईएएस प्रोबेशनर के रूप में अपने जिला प्रशिक्षण के दौरान, जब मैं अतीत के इन प्रेतवाधित प्रश्नों में फिर से दिलचस्पी लेने लगा. कश्मीर के बडगाम जिले के सुथरन गांव के एक फील्ड दौरे के दौरान, मैं रामायण की स्थानीय रीटेलिंग के बारे में जानकर चकित रह गया.
गाँव सुथारन या सीतारन, हरे-भरे घास के मैदानों और देवदार के जंगलों के साथ स्वर्ग के एक टुकड़े सरीखा था. लेकिन उन दिनों वहां ठीक सी सड़क भी नहीं थी. स्थानीय लोककथाओं के अनुसार, वह स्थान था जहाँ रावण ने भगवान राम की पत्नी सीता जी का अपहरण किया था.
एक ताजे पानी के झरने और पास में एक बड़ी चट्टान मुझे ठीक उसी स्थान के रूप में दिखाई गई, जहां श्री रामचंद्र, सीता जी और लक्ष्मण भगवान राम के चौदह वर्ष के लंबे वनवास के दौरान गए थे.
पास ही एक और गाँव था जिसका नाम कंचेतपोरा था (कश्मीरी कंचेत में जिसका अर्थ है फटे हुए कान वाला), जाहिरा तौर पर यह शूर्पणखा का एक संदर्भ है, जिसके कान और नाक वाल्मीकि रामायण के अनुसार, लक्ष्मण जी ने काट दिए थे.
यह कमाम की बात थी कि सुथारन के स्थानीय मुसलमानों को ये घटनाओं की पूरी तरह याद थीं. चौदहवीं शताब्दी में इस्लाम के आगमन के साथ कश्मीर में बहुसंख्यक आबादी ने एक नया धर्म अपना लिया लेकिन कश्मीरी चेतना शैववाद और सूफी इस्लाम की सार्वभौमिकता में निहित रही.
लल्ला डेढ़ और शेख उल आलम की शिक्षाओं ने कश्मीरी जनता को वह चेतना दी, जिसने हिंदू और मुस्लिम के बीच भेद नहीं किया. इस कश्मीरी समुदाय ने संगठित धर्म के कठोर हठधर्मिता की तुलना में समन्वयवाद और पारलौकिक आध्यात्मिक अनुभव को अधिक महत्व दिया.
सांस्कृतिक उत्पादन के हिस्से के रूप में, कला, कविता, संगीत, वास्तुकला, शिल्प, त्योहारों और धार्मिक प्रथाओं का उदय हुआ जो इस्लाम, हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के तत्वों को एक साथ लाए और कश्मीर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का एक सहज मामला बन गया.
फिर भी, भगवान राम की यात्रा एक ऐसी भूमि से हुई जहाँ भगवान शिव राज कर रहे थे, जब तक मुझे सुथरन गाँव से लगभग 150 किलोमीटर दूर एक और जगह के बारे में पता नहीं चला, तब तक मुझे दिलचस्पी बनी रही. वह जिला कुपवाड़ा में फ़ारकिन था, जो पहाड़ियों में एक छोटा सा गाँव था, जिसका सुथरन गाँव से कोई लेना-देना नहीं था.
वहाँ भी, राजा राम की लाडी नामक एक क्षेत्र के साथ इसी तरह की एक किंवदंती जुड़ी हुई थी और कहा जाता है कि सीता सर नामक एक ताजे पानी के झरने का दौरा भगवान राम के वनवास के वर्षों के दौरान सीता जी ने किया था.
फ़ार्किन, कुपवाड़ा उस अर्थ में ओरछा, मध्य प्रदेश के समान है, भारत के उन कुछ स्थानों में से एक है जहाँ भगवान राम को राजा राम या राजा राम के रूप में याद किया जाता है.
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कई सहस्राब्दियों तक भगवान राम कश्मीरी मुहावरों, लोककथाओं, किंवदंतियों, कला और सोचने के तरीकों, कहावतों, स्थान-नामों, लिखित सामग्री और भगवान राम के प्रवास की स्मृति में कश्मीरी चेतना में एक प्रकाश की तरह कायम रहे हैं.
कश्मीर को हमारी सभ्यतागत स्मृति के हिस्से के रूप में पोषित किया जाना चाहिए. इंडोनेशिया से थाईलैंड तक, और कंबोडिया से कुपवाड़ा तक, राम हमारे सामान्य आध्यात्मिक कैनवास में बार-बार उभरने वाले आदर्श हैं जो महासागरों और महाद्वीपों में फैले हुए हैं. और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अल्लामा इकबाल द्वारा इमाम-ए-हिंद कहे जाने वाले श्री राम, भारत के आध्यात्मिक झरने का स्रोत हैं और कश्मीर पर इंद्रधनुष हमेशा हमें घाटी में उनके धन्य प्रवास की याद दिलाएगा.
शुभ दीवाली.
(शाह फैजल जम्मू-कश्मीर कैडर के आइएएस अधिकारी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @shahfaesal है).