मलिक असगर हाशमी
बीते कुछ वर्षों में भारतीय मनोरंजन उद्योग, खासकर सोशल मीडिया और स्टैंडअप कॉमेडी, में अश्लीलता और डार्क ह्यूमर की बढ़ती प्रवृत्ति एक गंभीर बहस का विषय बन गई है. हाल ही में देश के दो बड़े यूट्यूबर्स – समय रैना और रणवीर इलाहाबादिया – अपने एक शो में अत्यधिक गाली-गलौज और अभद्र भाषा के इस्तेमाल को लेकर विवादों में आ गए.
उनके शो में मौजूद महिला कॉमेडियन तक ने ऐसी बातें कही, जो आमतौर पर सार्वजनिक मंच पर अस्वीकार्य मानी जाती हैं. लेकिन विवाद केवल गालियों को लेकर नहीं था, बल्कि माता-पिता के निजी संबंधों पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणियों और एक प्रतिभागी से उसकी भागीदारी पर पूछे गए अनैतिक सवालों को लेकर था.
इस विवाद ने पूरे देश में हलचल मचा दी. विभिन्न राज्यों में इन दोनों यूट्यूबर्स के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई, जिसके बाद रणवीर को माफी मांगनी पड़ी. लेकिन यह केवल एक घटना नहीं है – बल्कि यह पूरे मनोरंजन जगत में बढ़ती एक व्यापक प्रवृत्ति का संकेत है, जिसमें अश्लीलता और अनैतिक संवादों को सामान्य बनाने की कोशिश की जा रही है.
डार्क कॉमेडी (जिसे ब्लैक ह्यूमर या गैलोज़ ह्यूमर भी कहा जाता है) वह हास्य शैली है जो आमतौर पर वर्जित और संवेदनशील विषयों जैसे – मृत्यु, हिंसा, युद्ध, बीमारी, सामाजिक असमानता और अन्य गंभीर मुद्दों – को लेकर व्यंग्य करती है.
इसका उद्देश्य लोगों को हंसाना तो है, लेकिन साथ ही सामाजिक मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करना भी है. हालांकि, कई बार यह हास्य का ऐसा रूप ले लेता है, जो संवेदनशीलता की सीमाओं को पार कर जाता है.
डार्क कॉमेडी की जड़ें प्राचीन ग्रीस तक जाती हैं, जहां एरिस्टोफेन्स जैसे नाटककारों ने समाज के बुरे पहलुओं को हास्य के माध्यम से उजागर किया. आधुनिक समय में, यह शैली यूरोप और अमेरिका में 20वीं शताब्दी में लोकप्रिय हुई.
👉 1935 में फ्रांसीसी अतियथार्थवादी सिद्धांतकार आंद्रे ब्रेटन ने पहली बार इस शैली को "ब्लैक ह्यूमर" नाम दिया.
👉 1965 में ‘ब्लैक ह्यूमर’ नामक किताब ने इसे साहित्यिक मान्यता दी, जिसमें एडवर्ड एल्बी, थॉमस पिंचन और जे. पी. डोनलेवी जैसे लेखकों के अंश थे.
👉 हॉलीवुड और यूरोपीय सिनेमा में डार्क कॉमेडी को व्यापक रूप से अपनाया गया, जिसमें कुछ प्रमुख उदाहरण हैं:
👉 आज के दौर में – नेटफ्लिक्स, प्राइम वीडियो और यूट्यूब जैसे प्लेटफार्मों पर डार्क कॉमेडी के नाम पर अश्लीलता, गाली-गलौज और अनावश्यक कंटेंट परोसा जा रहा है, जिसे अब समाज में सामान्य रूप से स्वीकार किया जाने लगा है.
पश्चिमी देशों में डार्क कॉमेडी की जड़ें पुरानी हैं, लेकिन भारत में यह हाल के वर्षों में ही तेज़ी से बढ़ी है. ओटीटी प्लेटफॉर्म्स, स्टैंडअप कॉमेडी और यूट्यूब वीडियोज़ में गालियों का खुलेआम इस्तेमाल किया जा रहा है.
👉 OTT पर बढ़ती अश्लीलता
👉 स्टैंडअप कॉमेडी में अनैतिक संवाद
क्या भारतीय समाज ने अश्लीलता को स्वीकार कर लिया है?
ऐसा प्रतीत होता है कि समाज अब इन चीजों को सामान्य रूप से स्वीकार कर रहा है. जो बातें पहले निजी बातचीत में होती थीं, अब वे मंच से खुलेआम कही जा रही हैं.
👉 "फ्री स्पीच" या नैतिक गिरावट?
कई लोग इसे "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" कहकर समर्थन करते हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या स्वतंत्रता का मतलब सामाजिक और नैतिक मूल्यों को ध्वस्त कर देना है?
👉 सेक्स एजुकेशन न होने के बावजूद खुली बातचीत?
भारत जैसे देश में, जहां सरकार के प्रयासों के बावजूद सेक्स एजुकेशन आम नहीं हो पाया, वहां सार्वजनिक मंचों पर इस विषय को अश्लील ढंग से प्रस्तुत करना क्या उचित है?
👉 संस्कृति और आधुनिकता के बीच संघर्ष
भारत कोई यूरोपीय या अमेरिकी देश नहीं है. इसकी अपनी संस्कृति और इतिहास है, जहां कोणार्क मंदिर की मूर्तियां भी सेक्स पर चर्चा करती हैं, लेकिन वह कला का एक परिष्कृत रूप था, न कि भद्दा मनोरंजन.
1. सख्त कानून और सेंसरशिप
2. जागरूकता अभियान
3. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम नैतिकता
भारतीय समाज एक संक्रमण काल से गुजर रहा है, जहां आधुनिकता और संस्कृति के बीच टकराव साफ दिखाई देता है. डार्क कॉमेडी, सोशल मीडिया पर बढ़ती अश्लीलता और मनोरंजन के नाम पर हो रही अनैतिक गतिविधियां – यह सब केवल "मनोरंजन" नहीं रह गया है, बल्कि यह समाज की नैतिकता पर एक गंभीर सवाल खड़ा कर रहा है.
👉 क्या हम इसे ऐसे ही स्वीकार करते रहेंगे?
👉 या हमें इसे नियंत्रित करने के लिए कदम उठाने होंगे?
समय आ गया है कि हम इस पर गंभीर विचार करें, अन्यथा भारतीय समाज की सांस्कृतिक और नैतिक बुनियाद धीरे-धीरे कमजोर होती जाएगी.