मंजीत ठाकुर
दक्षिण एशिया को बच्चों में कुपोषण का इलाका माना जाता है. दुनियाभर में इसे चिंता का विषय भी माना जात है. तो क्या इस इलाके में बच्चों में कुपोषण को धर्म से जोड़कर देखा जा सकता है? इंटरनेशलन ग्रोथ सेंटर (आइजीसी) की 2015 में आई एक रिपोर्ट इस दिशा में एक दिलचस्प बात पेश करती है.
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत, नेपाल और बांग्लादेश इन तीन देशों में शिशुओं में पहले 12 महीनों में मुस्लिम बच्चों की सेहत अच्छी होता है और उम्र के एक साल पूरे होने के बाद यह स्थिति उलट जाती है.
दक्षिण एशिया के बच्चे दुनिया के सबसे कुपोषित बच्चों में आते हैं. मिसाल के तौर पर, बांग्लादेश और नेपाल में, 2015 तक, पांच साल की उम्र तक के आधे से अधिक बच्चे कम वजन के खतरनाक कुपोषण से जूझ रहे थे. भारत में, विश्व बैंक के आंकड़ों के लिहाज से 2007 तक 48 फीसद बच्चे उम्र के लिहाज से कम लंबाई के थे.
अपने अध्ययन में, आईजीसी कहता है कि इन तीनों देशों में धर्म एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. भारत और नेपाल हिंदू बहुसंख्यक देश हैं जबकि बांग्लादेश में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं.
इस बात को नए आंकड़ों के साथ पेश करता हुआ संयुक्त राष्ट्र का संगठन यूनिसेफ कहता है कि दक्षिण एशिया में पांच साल के कम उम्र के 36 बच्चे नाटे कद के होते हैं. इस इलाके में बच्चों की लंबाई औसत से कम बढ़ने के पीछे तीन मुख्य कारण यूनिसेफ ने बताए हैं. पहला, पांच साल की उम्र में से पहले दो साल में कम पोषण वाला भोजन, गर्भावस्था के पहले और दौरान महिलाओं को मिला कम पोषण और खराब स्वच्छता की व्यवस्था.
आइजीसी अपनी रिपोर्ट में इसकी एक वजह धर्म को भी मानता है. धर्म की वजह से आहार आदतों में बहुत तरह की बंदिशें भी आयद होती हैं. खासकर, रोजे के दौरान अगर गर्भवती महिला या छोटे उम्र के बच्चों की मां रोजा रखती है तो भ्रूण और नवजातों के पोषण पर इसका प्रभाव पड़ता है. यह रिपोर्ट आगे कहती है कि दक्षिण एशिया में बेटों को तरजीह देने की वजह से भी पोषण पर असर पड़ता है.
लेकिन, यूनिसेफ के मुताबिक, अब जाकर स्थिति में सुधार आया है. हालांकि, स्थिति अब भी चिंताजनक है. 2000 और 2017 के बीच, दक्षिण एशिया में अविकसित बच्चों की संख्या 89.2 मिलियन से लगभग 30 मिलियन घटकर 59.4 मिलियन हो गई. लेकिन 2014-2017 की बीच की अवधि में यह कमी लगभग 7-8 मिलियन के बीच थी, जो इस अवधि के दौरान यूनिसेफ के 12 मिलियन के लक्ष्य से कम थी.
वैसे एक अन्य अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि उप-सहारा अफ्रीकी देशों की तुलना में भारत में बच्चों में नाटेपन की समस्या कहीं अधिक है. मिसिंग पीस ऑफ द पजलः कास्ट डिस्क्रिमिनेशन ऐंड स्टंटिंग में अशोका यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर इकोनॉमिक डाटा ऐंड एनालिसिस की अश्विनी देशपांडे और यूनिवर्सिटी ऑफ हिडेलबर्ग के राजेश रामचंद्रन ने लिखा है कि नाटेपन की समस्या भारत के दलित और मुस्लिम तबके में काफी अधिक है.
इस अध्ययन के मुताबिक, देश के मुस्लिम समुदाय के पांच साल से कम उम्र के बच्चों में नाटेपन की समस्या 35 फीसद तक है. जाहिर है, आर्थिक स्थिति में सुधार लाकर ही दलितों और मुस्लिम बच्चों में पोषण को दुरुस्त किया जा सकेगा. इसमें तालीम और जागरूकता की भी अहम भूमिका होगी.