बिहार के एक गांव के मुस्लिम परिवारों को क्यों रहता है कृष्ण जन्माष्टमी का इंतजार ?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 07-09-2023
Why do Muslim families of a village in Bihar keep waiting for Krishna Janmashtami?
Why do Muslim families of a village in Bihar keep waiting for Krishna Janmashtami?

 

आवाज द वाॅयस / मुजफ्फरपुर.

आम तौर पर माना जाता है कि जन्माष्टमी या कृष्णाष्टमी हिंदुओं का पर्व है और लोगों को प्रति वर्ष बेसब्री से अपने कान्हा का जन्मोत्सव मनाने का इंतजार रहता है. लेकिन, बिहार के मुजफ्फरपुर जिले का एक ऐसा गांव भी है जहां मुस्लिम परिवारों को साल भर जन्माष्टमी का इंतजार रहता है.

दरअसल, मुजफ्फरपुर के कुढ़नी प्रखंड के बड़ा सुमेरा मुर्गिया चक गांव में 25 से 30 मुस्लिम परिवार ऐसे हैं, जो चार पीढ़ियों या उससे भी पहले से बांसुरी बनाने का काम करते हैं. इनका कहना है कि जन्माष्टमी पर्व पर उनकी बांसुरी की बिक्री बढ़ जाती है.

मुस्लिम गांव के लोग बताते है कि पुश्त-दर-पुश्त वे लोग बांसुरी बनाने का काम कर रहे हैं और यही परिवार चलाने का एकमात्र जरिया है. बांसुरी बनाने में निपुण मोहम्मद आलम अपने पिता से करीब 40 साल पहले बांसुरी बनाने की कला सीखी थी और तब से अब तक वे इस कार्य में लगे हुए हैं.

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उन्होंने कहा कि यहां की बनाई बांसुरी की कोई जोर नही है. यहां की बांसुरी की खनक भरी धुन अलग होती है. यहां की बांसुरी बिहार के सभी जिलों के अलावा झारखंड, यूपी के साथ नेपाल, भूटान तक जाती है. वे कहते हैं, जन्माष्टमी के समय भगवान कृष्ण के वाद्ययंत्र बांसुरी की बिक्री बढ़ जाती है.

दशहरा के मेले में भी बांसुरी खूब बिकती है. यहां की बांसुरी नरकट की लकड़ी से बनाई जाती है. जिसकी खेती भी यहां के लोग करते हैं. गांव में बांसुरी बनाने वाले नूर मोहम्मद 12 से 15 साल की उम्र से बांसुरी बना रहे है.

उन्होंने कहा कि नरहट को पहले छिल कर सुखाया जाता है, उसके बाद इसकी बांसुरी तैयार की जाती है. बताया जाता है कि एक परिवार एक दिन में करीब 100 से अधिक बांसुरी बना लेता है. यहां बनने वाली बांसुरी की कीमत 10 रुपए से लेकर 250 से 300 रुपए तक है.

इस गांव में ऐसे लोग भी हैं जो बांसुरी भी बनाते हैं और घूम-घूमकर उसकी बिक्री भी करते हैं. आम तौर पर एक बांसुरी को बनाने में पांच से सात रुपए खर्च आता है. बताया जाता है कि अब नरकट के पौधे में कमी आई है, फिर भी यहां के लोग आज भी नरकट से बांसुरी का पारंपरिक तरीके से निर्माण करते हैं.

कारीगर बांसुरी निर्माण के लिए दूसरे जिले से भी नरकट को खरीदकर लाते हैं. बांसुरी के कारीगरों की पीड़ा है कि उनकी कला को बचाए रखने के लिए कोई मदद नहीं मिल रहा. उनकी मांग है कि सरकार की ओर से इन्हें आर्थिक सहायता प्रदान की जाए, जिससे यह कला विलुप्त होने से बच सके। बांसुरी बनाने वाले कारीगरों का मानना है कि वर्षों तक अपने दम पर इस कला को बचा कर रखा, लेकिन अब इसके व्यापार को बढ़ाने के लिए सरकार के मदद की दरकार है.

इन्हें नरकट की लकड़ी की ही नहीं, बाजार की भी जरूरत है. बहरहाल, यहां के कारीगरों को इस जन्माष्टमी में ऐसे कान्हा की तलाश है, जो इन कारीगरों का ही नहीं यहां की बांसुरी बनाने की कला का उद्धार कर सके.