अमरीक
पंजाब के महानगर जालंधर से सटा एक जिला है कपूरथला. यह जिला कभी ब्रिटिश साम्राज्य की अहम रियासत हुआ करता था. गंगा-जमुनी तहजीब की नायाब मिसाल. यहां की ऐतिहासिक इमारतें बखूबी इसकी गवाही देती हैं. कपूरथला रियासत का घेरा कभी काफी विशाल था और राजधानी अब के शहर कपूरथला में ही थी.
हमेशा तनाव मुक्त रहा यह शहर देखने पर एकबारगी आपको ठहरा-ठहरा सा लगेगा. पंजाब के लगभग तमाम पुराने जिले जीटी रोड से सीधे जुड़े हुए हैं लेकिन कपूरथला एक किनारे पर है. अलबत्ता जिले का एक उपमंडल फगवाड़ा जरूर जीटी रोड पर पड़ता है.
जालंधर से दिल्ली जाते वक्त फगवाड़ा नजर आता है और साथ ही नजर आती है इसकी भीड़ भरी चहल-पहल. ऐसी चहलकदमी आपको पंजाब के सबसे पुराने जिलों में से एक कपूरथला शहर में नहीं मिलेगी.
अलबत्ता धार्मिक सौहार्द की बेमिसाल निशानियां जरूर अपना पुराना रूप और सौंदर्य लिए मिलेंगीं. इनमें से एक है जगप्रसिद्ध कपूरथला की मूरिश मस्जिद! आगे बढ़ने से पहले मूरिश मस्जिद की बाबत एक निहायत दिलचस्प बात लिखना प्रसांगिक होगी.
देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने 17 अगस्तत 2006 के अपने पंजाब दौरे के दौरान इस मस्जिजिद में विशेष तौर पर नमाज पड़ी थी. यह काफी वक्तत तक इस शाही मस्जिजिद में रहे. पंजाब वक्फ बोर्ड की ओर से उन्हें अंग्रेजी मेंंं अनूदित पावन कुरान शरीफ की प्रति दी गई थी.मूरिश मस्जिद की एक खासियत यह भी है कि भारत तो क्या दुनिया में इस तरह की दूसरी मस्जिद मोरक्को के मराकेश में मिलेगी.
ऐसी वास्तुकला देखकर हर कोई दंग रह जाता है और फिर चर्चे शुरू होते हैं उन महाराज जगजीत सिंह के, (जन्म 24 नवंबर अट्ठारह सौ बहत्तर. मृत्यु 19 जून, 1949/कपूरथला रियासत के अंतिम शासक) जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की रियासत में एक धर्मनिरपेक्ष शासक के तौर पर अपना नाम सुनहरी अक्षरों में इतिहास के पन्नों पर दर्ज करवाया.
धर्मनिरपेक्षता के लिए अन्य किसी भी ब्रिटिश रियासत के मुखिया ने ऐसा कुछ नहीं किया जैसा महाराजा जगजीत सिंह ने किया. कपूरथला रियासत के महाराजा जगजीत सिंह सन 1925 में मोरक्को गए थे. उन्हें विदेश भ्रमण और वहां के ख्यात स्थल देखने में बेहद दिलचस्पी थी.
जबकि उनके ज्यादातर समकालीन, अन्य रियासतों के शाही मुखिया विलासिता और मनोरंजन की दुनिया में खोए रहने वाले लगभग बदनाम शासक थे. इनके बीच महाराजा जगजीत सिंह की अलहदा छवि थी और दिलचस्पियां भी. इसीलिए कपूरथला ही नहीं पूरा पंजाब और पाकिस्तानी पंजाब भी उन्हें आज भी बेहद शिद्दत के साथ याद करता है.
ऐसी लोकप्रियता और धर्मनिरपेक्ष छवि भी किसी अन्य रियासत के शासक ने हासिल नहीं की जितनी महाराजा जगजीत सिंह ने की. विश्व भ्रमण पर निकले महाराजा जगजीत सिंह 1925 में मोरक्को गए और वहां अपनी आदत के अनुसार उन्होंने विभिन्न दर्शनीय स्थलों का दौरा किया.
मोरक्को के मराकेश की विशाल मस्जिद और उसकी वास्तुकला उन्हें बेहद पसंद आई और वहीं उन्होंने फैसला किया कि अपनी स्टेट में भी वह ऐसी ही एक मस्जिद का निर्माण करवाएंगे. विदेश भ्रमण से कपूरथला लौटकर सबसे पहला काम उन्होंने इस परियोजना पर शुरू किया.
अधिकारियों के साथ लंबी बैठक की और बजट इत्यादि का तमाम ब्यौरा लिया. कोई कसर शेष न रह जाए, इसके लिए उन्होंने अपने अधिकारियों और सलाहकारों को मोरक्को की मराकेश स्थित मस्जिद देखने वहां भेजा. तमाम लोग शासकीय खर्च पर मोरक्को गए थे.
गौरतलब है कि उस वक्त कपूरथला रियासत की 60 फ़ीसदी आबादी मुसलमानों की थी और महाराजा जगजीत सिंह की धर्मनिरपेक्ष छवि से मुस्लिम बेहद प्रभावित रहते थे. इसलिए भी कि किसी भी स्तर पर उनके साथ भेदभाव नहीं किया जाता था और ऐसा करने वाले को कड़े दंड का प्रावधान था.
महाराजा की शासन व्यवस्था से कई मुस्लिम अधिकारी बकायदा वाबस्ता थे. कपूरथला वाहिद एक ऐसी स्टेट थी जहां कभी भी दंगा-फसाद या सांप्रदायिक तनाव नहीं हुआ. तब की यह रिवायत आज भी यथावत कायम है. कपूरथला की मूरिश मस्जिद का निर्माण 1927 में शुरू हुआ और श्रमिकों ने रात दिन एक करके इसका मुकम्मल ढांचा खड़ा किया. महाराजा जगजीत सिंह खुद निर्माण की देखभाल किया करते थे और काम करने वाले मजदूरों की पीठ थपथपाते थे .
कड़ी मेहनत के लिए श्रमिकों को अतिरिक्त उजरत मिलती थी और काम करने वालों में तमाम समुदाय-धर्मों के लोग शामिल थे. चूंकि निर्माण एक धर्म स्थल का हो रहा था इसलिए मर्यादा का भी पूरा ख्याल रखा जाता था. ऐतिहासिक दस्तावेजों में इसका जिक्र मिलता है.
1927 में शुरू हुई मूरिश मस्जिद 3 साल की कड़ी मेहनत के बाद 1930 में मुकम्मल हुई. उस वक्त इसके निर्माण कार्य में 6 लाख रुपए से भी ज्यादा का खर्च आया था. यह मस्जिद महाराजा जगजीत सिंह की ओर से अपनी मुस्लिम प्रजा को दिया गया सबसे अहम तोहफा था.
ब्रिटिश हुक्मरानों के पैरोकारों ने मस्जिद की लागत की बाबत पूछताछ की तो महाराजा की तरफ से जवाब गया कि उनकी रियासत में मुस्लिम बहुसंख्या में हैं और वह किसी भी सूरत में उन्हें कोई बेमिसाल तोहफा देना चाहते थे. उनके गुरुओं की भी यही सीख है. सो मूरिश मस्जिद बनवाकर उन्होंने अपनी रियासत की बहुसंख्यक मुस्लिम जनता को यादगारी तोहफा दिया है. इस पर किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए.
मूरिश मस्जिद को फ्रांसीसी वास्तुकार एम मॉन्टेक्स ने डिजाइन किया था. इसीलिए इसे फ्रांसीसी वास्तुशिल्प की अद्भुत और शानदार मिसाल कहा जाता है. फ्रांसीसी वास्तुकार मॉन्टेक्स ने मूरिश मस्जिद के निर्माण के दौरान, महाराजा के आग्रह पर कपूरथला में पड़ाव डाल लिया था.
मस्जिद के आंतरिक गुबंद रूप- सज्जा लाहौर के मायो कला स्कूल के कलाकारों ने की थी. मूरिश मस्जिद का एक मॉडल लाहौर संग्रहालय के प्रवेश द्वार पर भी रखा गया है. बाद में इसके महत्व को बखूबी समझ कर भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसे बाकायदा संरक्षित कर लिया और अब इस मस्जिद को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा हासिल है. इसकी देखभाल भारतीय पुरातत्व विभाग करता है. मस्जिद के आंतरिक प्रवेश द्वार पर पवित्र कुरान शरीफ की आयतें अरबी लिपि में लिखी हुईं हैं.
शहर के बीचोबीच स्थित मूरिश मस्जिद को देखने दूर-दूर से लोग आते हैं. 1930 में जब यह पूरी तरह बनकर तैयार हुई तो इसकी चर्चा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हुई. तब भी दूसरे देशों और भारत के विभिन्न हिस्सों से लोग इसे देखने आया करते थे. ऐतिहासिक तथ्य है कि ऐसी कोई दूसरी मस्जिद भारत में नहीं.
सिर्फ सुदूर विदेश मोरक्को के मराकेश में है. कपूरथला रियासत के महाराजा जगजीत सिंह कोई साधारण शासक नहीं थे. विकास और सौहार्द उनकी प्राथमिकताओं में अव्वल थे. खुद महाराजा जगजीत सिंह सिख थे और पंथ की तमाम परंपराओं का श्रद्धापूर्वक पालन करते थे.
जैसा एक सच्चा सिख होता है, वह वैसे थे यानी दूसरे धर्मों और परंपराओं का भी सम्मान करने वाले! इसीलिए उन्होंने अपनी रियासत में मूरिश मस्जिद के साथ-साथ विलक्षण पंच मंदिर (इस मंदिर जैसा धर्मस्थल भी भारत में दूसरा कोई नहीं), चर्च और स्टेट गुरुद्वारा साहिब का निर्माण अपनी देखरेख में करवाया.
महाराजा के ऐसे कार्यों के किस्से अभी भी स्थानीय बाशिंदों की जुबान पर हैं. वास्तविक इतिहास किताबों की बजाए लोकाचार में होता है और कपूरथला के लोकाचार में महाराजा जगजीत सिंह महानायक की छवि रखते हैं, इसीलिए उन्हें कभी जीवनपर्यंत जन-बगावत या विद्रोह का सामना नहीं करना पड़ा.
महाराजा जगजीत सिंह और उनके वंशजों पर एक किताब है, 'प्रिंस, पैटर्न एंड पैटीआर्क-कपूरथला'. इसके सह लेखक रिटायर्ड ब्रिगेडियर सुखजीत सिंह हैं. ब्रिगेडियर सुखजीत सिंह कहते हैं, "मैं एक विवाद की शिकायत लेकर उनके पास गया था.
उन्होंने मुझसे पूछा कि घटना के वक्त आप वहां थे? मेरे नहीं कहने पर उन्होंने मुझे एक सलाह दी जिसे मैं कभी नहीं भूलूंगा. महाराजा का कहना था कि जब आप दिल के मामलों से संबंधित मसलों से निपट रहे हों, तो जो आप सुनते हैं उसे कभी न सुनें और जो सोचते हैं उसे कभी जाहिर न करें". सुखजीत बताते हैं कि इस किताब के बीज वास्तुकार सिंथिया मीरा फ्रेडरिक की बदौलत बोए गए थे. सिंथिया कपूरथला के जगजीत पैलेस को लेकर उत्सुक थीं.
ऐसा महल इससे पहले उन्होंने यूरोप, अमेरिका और चीन में देखा था लेकिन भारत में कभी नहीं देखा. (प्रसंगवश, उसी जगजीत पैलेस में अब प्रसिद्ध सैनिक स्कूल है). बाहरहाल, यकीनन महाराजा जगजीत सिंह लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष तरीके से शासन करने वाले दुर्लभ शासकों में से एक थे.
उन्होंने वंशानुगत रईसों के बजाय मेरीटोक्रेसी को बढ़ावा दिया. अब्दुल हमीद उनके राज में उनके मुख्यमंत्री थे. अमानत खान उनके शेफ थे. दोनों गहरे विश्वासपात्र. महाराजा जगजीत सिंह जहां भी जाते अब्दुल हमीद और अमानत खान उनके साथ जाते थे.
उनके महल में एक साथ हवन और पाठ होते थे. ग्रंथियों, पुजारियों, पादरियों तथा मौलवियों को सम्मान बुलाया जाता था और यादगारी तोहफे दिए जाते थे. सही मायने में कपूरथला के महाराजा जगजीत सिंह एक लोक शासक थे और इसी रूप में याद किए जाते हैं.