मोहम्मद शमी के रोजे पर विवाद: रमजान के दौरान रोजा न रखने पर मौलवियों में मतभेद

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 06-03-2025
Row over Mohammed Shami's fasting: Clerics split over not observing roza during Ramzan
Row over Mohammed Shami's fasting: Clerics split over not observing roza during Ramzan

 

नई दिल्ली
 
भारतीय क्रिकेटर मोहम्मद शमी के रमजान के महीने में रोजा न रखने के फैसले पर एक नया विवाद खड़ा हो गया है. इस मुद्दे पर मुस्लिम मौलवियों और विद्वानों के बीच मतभेद पैदा हो गया है. कुछ लोग उनके काम की निंदा कर रहे हैं, जबकि अन्य इस्लामी सिद्धांतों के आधार पर उनके प्रति नरम रुख अपना रहे हैं.
 
हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें मोहम्मद शमी को ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ भारत के सेमीफाइनल मैच के दौरान पानी पीते हुए देखा गया था.
 
आलोचना मुस्लिम मौलवी इब्राहिम चौधरी ने की, जिन्होंने रमजान के पवित्र महीने के दौरान शमी के सार्वजनिक कार्यों पर निराशा व्यक्त की. उन्होंने शमी की धार्मिक कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्धता, खासकर पवित्र महीने के दौरान रोजा रखने पर सवाल उठाए.
 
चौधरी ने शमी को रमजान के दौरान ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ भारत के सेमीफाइनल मैच के दौरान कथित तौर पर रोजा तोड़ने के लिए 'पापी' करार दिया.
 
चौधरी ने इस बात पर जोर दिया कि इस्लाम में रमज़ान के दौरान रोज़ा रखना एक 'फर्ज' (अनिवार्य) काम है और हर मुसलमान को इसका पालन करना चाहिए. चौधरी ने कहा, "अल्लाह ने जो भी आदेश दिया है, इस्लाम के सभी कर्तव्यों का पालन करना ज़रूरी है. अगर कोई मुसलमान जानबूझकर इन कर्तव्यों से इनकार करता है या उन्हें छोड़ देता है, खासकर जब वे उनका पालन करने में सक्षम होते हैं, तो वे पाप कर रहे हैं." 
 
उन्होंने आगे बताया कि इस्लाम अपने सिद्धांतों के प्रति पूर्ण समर्पण का आह्वान करता है और केवल इसके सभी आदेशों को अपनाने से ही कोई व्यक्ति सफलता प्राप्त कर सकता है. चौधरी के अनुसार, अगर शमी ने जानबूझकर ऐसा किया है, तो इससे धार्मिक कर्तव्यों को पूरा करने से मिलने वाले इनाम से वंचित होना पड़ सकता है. एक अन्य मुस्लिम विद्वान मौलाना कारी इसहाक गोरा ने शमी का बचाव करते हुए एक सूक्ष्म दृष्टिकोण पेश किया. 
 
गोरा ने स्वीकार किया कि रमज़ान के दौरान रोज़ा रखना वास्तव में मुसलमानों के लिए एक बुनियादी ज़िम्मेदारी है, लेकिन उन्होंने बताया कि इस्लाम कुछ अपवादों की अनुमति देता है, जब इसके लिए बाध्यकारी कारण हों. गोरा ने कहा, "अगर कोई व्यक्ति किसी मजबूरी के कारण उपवास नहीं कर पाता है, जैसे कि पेशेवर एथलीट के मामले में, तो इस्लाम उपवास तोड़ने की अनुमति देता है. मुख्य बात यह है कि कारण शरीयत के दिशा-निर्देशों के अंतर्गत होना चाहिए." उन्होंने जोर देकर कहा कि उपवास तोड़ने का निर्णय बाहरी लोगों द्वारा जल्दबाजी में नहीं लिया जाना चाहिए. 
 
गोरा ने कहा, "यह मुद्दा अल्लाह और शमी के बीच का है. इस मामले में किसी को भी न्यायाधीश की भूमिका निभाने की आवश्यकता नहीं है." उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि अगर शमी के कार्य शरीयत के अनुरूप थे, तो किसी को भी कठोर निर्णय नहीं देना चाहिए, क्योंकि अंततः अल्लाह ही ऐसे कार्यों के परिणामों का निर्णय करता है. इस मामले पर धार्मिक समुदाय से आगे भी बहस हुई, जिसमें अन्य हस्तियों ने भी अपना पक्ष रखा. परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती ने धार्मिक अनुष्ठान को राष्ट्र की सेवा के साथ संतुलित करने के विचार पर आधारित दृष्टिकोण प्रस्तुत किया. 
 
उन्होंने कहा, "ऐसे लोग हैं जो अपनी परिस्थितियों के कारण रोज़ा नहीं रख पाते, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनका विश्वास खत्म हो गया है. उनके पास भक्ति या सेवा के अन्य रूप हो सकते हैं, जैसे राष्ट्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता. यह भी पूजा का एक रूप है." उन्होंने स्वीकार किया कि देशभक्ति, अपने काम के प्रति समर्पण और देश के लिए आत्म-बलिदान को भक्ति के कार्य के रूप में देखा जा सकता है, जो ईश्वर की नज़र में समान रूप से मूल्यवान है. उन्होंने निष्कर्ष निकाला, "देश की प्रगति में योगदान देना, देश की बेहतरी के लिए अपना समय और प्रयास बलिदान करना, पूजा से कम नहीं है. हमें इन प्रयासों का सम्मान करना चाहिए, जैसे हम धार्मिक अनुष्ठान करने वालों का सम्मान करते हैं."