अशराफ तबका कुल मुस्लिम आबादी का 10 प्रतिशत है. 10 प्रतिशत लोग बैठकर फैसला कर रहे हैं कि 90 प्रतिशत मुसलमान किसको वोट करेंगे. हमारी कोई आवाज ही नहीं है. अल्पसंख्यक की जो भी योजनाएं आती हैं, उसका फायदा अशराफ उठा लेता है. अल्पसंख्यक के नाम पर जो जनरल स्कीमें बनती हैं, उसमें पसमांदा को जरूर फायदा मिल जाता है. यह कहना है उत्तर प्रदेश के डॉ फैयाज अहमद फैजी का. फैजी अच्छे लेखक, स्तंभकार के अलावा देश में चल रहे पसमांदन आंदोलन को आगे बढ़ाने वाली खास शख्सियत भी हैं. पेशे से डॉक्टर फैयाज अहमद फैजी से आवाज-द वॉयस (हिंदी) के संपादक मलिक असगर हाशमी ने खास बातचीत कीे. पेश है बातचीत के खास अंशः
सवालः पहले बताएं कि पसमांदा मुसलमान किसे कहते हैं?
जवाबः शिया, सुन्नी धार्मिक आधार पर साम्प्रदायिक विभेद है. अशराफ का जो विभेद है, वह जाति और नस्लीय आधार पर है. पसमांदा शब्द का अर्थ है, जो पीछे रह गए. जाति संरचना में जो भेदभाव है, उसमें जो पीछे रह गए हैं, उन पर विमर्श आंदोलन की जरूरत है.
किन्ही कारणों से विभिन्न जातियां हैं. (हिंदू) ओबीसी से कन्वर्ट होकर जो इस्लाम धर्म में आए हैं, वह पसमांदा कहलाते हैं. इसमें जब हम इस्लामिक टर्मलॉजी की बात करें, तो जो अरजाल या अजलाफ जैसे शब्दावली मिलेगी. इस्लामिक फिक्र में, उनको पसमांदा कहा जाता है.
सवालः ये तीनों बहुत भारी भरकम शब्द है. अगर इसे आम भाषा में भारतीयों को समझाना हो, तो कैसे बताएं कि पसमांदा मुसलमानों में किसे ला सकते हैं?
जवाबः अशराफ वह हैं, जिन्होंने मूलतः बाहर से आकर इस देश पर शासन किया और आज भी शासक वर्ग हैं. जिसमें से सैयद, मुगल, पठान ये जातियां आती हैं. बाकी जैसे कुम्हार, बुनकर, धोबी, मिरासी, नट इस तरह की जो जातियां हैं, जो हिन्दू समाज में भी हैं. वह पसमांदा के अंदर आती हैं.
शासन के आधार पर देखें, तो पसमांदा जातियां कभी भी शासक नहीं रहीं. अशराफ जातियां जो बाहर से आईं, वह खुद दावा करती हैं, वे उपनाम जैसे शेरवानी, किरमानी रखते हैं, जो विदेशी शहरों के नाम हैं. जैसे सैयद का टाइटल लगाते हैं.
जो अरब, ईरान के लोग हैं, खलीफा ए राशिदीन या फिर अरब नस्ल से जोड़ कर लगाते हैं. पसमांदा में भी सम्मान पाने की लड़ाई रही है. उसमें भी कुछ लोग हैं, जैसे कुछ लोगों ने कुरैशी लिखना शुरु कर दिया.
अगर आप अंसारी या कुरैशी कहते हैं? तो इसका मतलब पसमांदा ही होता है. एक आंदोलन चलाया गया जमीयत उलेमा कासिम उल आलमीन और भैया जी रफीउद्दीन की याद में. उन्होंने एक तरह से ये टाइटल पूरी जिंदगी में खास तौर पर अशराफ कर लिया.
मुख्तार अंसारी, उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी का नाम आता है, जिसे हम पसमांदा समझते हैं, लेकिन आप बलिया में चले जाएं, तो वहां कुछ अशराफ अंसारी हैं, वह अंसारी टाइटल का इस्तेमाल नहीं करते हैं. जैसे फिरंगी महली के उलेमा हैं ये भी अशराफ ही हैं, लेकिन अब अंसारी का मतलब कोईरी और बुनकर ही होता है. पसमांदा जातियां भी अरबों के टाइटल लगाती हैं.
लेकिन मुख्य रूप से जो शासक वर्ग रहा है, जो सेंट्रल एशिया से आए हैं, जो ईरान, अफगानिस्तान से आए हुए लोग हैं या अरब से आए हुए लोग हैं, वह अशराफ में आते हैं. अशराफ शरीफ शब्द का बहुवचन है.
इसका मतलब है उच्च और समृद्ध. अजलाफ अरबी भाषा का शब्द है. जल्फ का मायने है नीच, जिसका बहुवचन अजलाफ है. फिर अरजाल आता है, जो रजील का बहुवचन है. जिसका मायने है बिल्कुल नीचे के लोग. अजलाफ और अरजाल (जाति) ये भारतीय मुसलमानों पर आती है.
जो विदेश से आए हुए मुसलमान हैं, जैसे शेख, सैयद, मुगल, पठान, वो शासक में रहा है. दूसरा जो मूल निवासी मुसलमान है, पसमांदा कहलाता है. देशी-विदेशी का विभेद है. पसमांदा लोकल हैं.
उनका लोकल कल्चर है. उस कल्चर को हिन्दुआना तरीके से करते हैं. इस पर उन्हें प्रताड़ित किया जाता है. हिकारत से देखे जाते हैं. कहा जाता है, तुम ये छोड़ दो. यह हिन्दुओं की रस्म है. तुम्हारे घर में शादी होती है. तो सारी हिन्दुओं के रस्म होते हैं.
मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने साफ लिखा है कि सारी गैर इस्लामी रस्म मिटाना उनका काम है. जब वह गैर इस्लामी कहते हैं, तो हमारे भारत की जो संस्कृति है, को हटाने की बात करते हैं. इसे पसमांदा ओढ़ता- बिछाता है.
पसमांदा की औरतें सिंदूर लगाती हैं, बिछिया पहनती हैं, साड़ी पहनती हैं, शादी में लहंगा सूट का आदान-प्रदान होता है. उनकी भाषाएं मैथिली, भोजपूरी, अवधी, बृज हैं. तेलुगु, बंगाली, गुजराती बोलते हैं.
सवालः क्या आजादी के बाद पसमांदा मुसलमानों की हालत सुधरी है. आप इसे किस तरह से देखते हैं?
जवाबः इस ताल्लुक से मैं शिक्षित कम्यूनिटी का नाम लूंगा. सच्चर कमेटी का जो चैप्टर नंबर 10 है, उसमें डिटेल बहस की गई है. देखिए, पसमांदा जो भारतीय मूल का मुसलमान है, उसके हालात तो आजादी के बाद ही अच्छे हुए हैं.
फिर भी हम यह नहीं कह सकते कि हालात बहुत अच्छे हैं, लेकिन जो कुछ भी हमारे हालात में सुधार हुए हैं, वह संविधान बनने के बाद, एक आजाद देश बनने के बाद हुआ है. इसकी तुलना पाकिस्तान में जो पसमांदा बिसात है, इंडिया में बसने वाले पसमांदा से साफ पता चल जाएगा. हमारी जो भी स्थिति अच्छी हुई है, मैं डॉक्टर हो गया हूं. खानदान में जो लोग आगे बढ़ रहे हैं. वह पढ़-लिखकर आगे बढ़े हैं.
एक स्टडी अशफाक हुसैन अंसारी साहब ने किया है, जो पूर्व सांसद थे. बेसिक प्रॉब्लम में, उन्होंने इस बात को लिखा है कि चौदहवीं लोकसभा तक चार सौ सांसद जो हुए हैं, उसमें 340 या 360 अपर क्लास के जो शेख, सैयद, मुगल, पठान जो तथाकथित अशराफ हैं, उनसे हुए हैं. सिर्फ 60 या 40 के आसपास पसमांदा मुसलमान हैं.
लेकिन जब मुसलमानों का दौर था इस देश में, जिसे हम अशराफ शासन काल कहते हैं. उसमें बहुत खराब हालत थी. अकबर ने भी इस तरह की चीजें निकाली थीं. इस काल में अशराफ ने भारतीय मुसलमानों को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. आजादी के बाद निश्चित हमारी स्थिति अच्छी हुई है.
देखिए, जो अल्पसंख्यक विमर्श है, इस देश के अंदर, मैं हमेशा से कहता हूं कि अल्पसंख्यक का मतलब मुसलमान होता है. मुसलमान का मतलब अशराफ होता है. अभी मैं कुछ दिन पहले एक डिबेट देख रहा था सत्य हिन्दी पर कि मुसलमान किसको वोट देंगे. तो सारे पैनलिस्ट थे, सारे अशराफ थे, जो कुल मुस्लिम आबादी का 10 प्रतिशत हैं.
10 प्रतिशत लोग बैठकर फैसला कर रहे हैं कि 90 प्रतिशत मुसलमान किसको वोट करेंगे. हमारी कोई आवाज ही नहीं है. अल्पसंख्यक की जो भी योजनाएं आती हैं, तो उसका फायदा अशराफ उठाता है.
अल्पसंख्यक के नाम पर जो जनरल स्कीमें बनती हैं राज्य या भारत सरकार की, लोक कल्याणकारी. इसमें पसमांदा को फायदा मिल जाता है. जनरल जो स्कीम है, उसे वहां फायदा मिल जाता है. 90 प्रतिशत जो भारतीय मुसलमान हैं, उसको बीएचयू में दाखिला लेना आसान है.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिला लेना मुश्किल है. इसलिए मैं माइनॉरिटी विमर्श और मुस्लिम विमर्श के खिलाफ हूं. इससे हमारा नुकसान होता है. माइनॉरिटी विमर्श से नुकसान होता है. अभी हमारे प्रधानमंत्री ने एक घर बनाने की योजना बनाई थी.
अभी मैं घर गया था, मस्जिद से सटे हुए जो सब्जीफरोश बिरादरी से हैं, जिसे पसमांदा कहते हैं. नक्कू चाचा का मैंने देखा कि उनके तीनों बेटों के घर बन चुके हैं. तब मैंने पूछा कि कैसे? तो वह कहने लगे कि ये स्कीम आई है, उसी से घर बना है.
मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं अपनी जिंदगी में ठेला चलाकर अपने बच्चों के लिए घर बना सकता हूं. इस तरह का फायदा हो जाता है. यकीन जानिए, बहुत जिम्मेदारी के साथ बात कह रहा हूं कि ये अल्पसंख्यक नाम पर घर बनाने का आया होता, तो मैं जानता हूं कि हमारे शेख, सैय्यदों के घर बन गए होते. अशराफ के घर बन जाते, पसमांदा का घर तो नहीं बनता. जो इतिहास रहा है, जो चरित्र रहा है, उससे यह बात साबित होती है.
सवालः आपकी बातों से बहुत सारे बिंदु निकल कर सामने आते हैं. अभी आप किन मुद्दों को लेकर लड़ाई आगे बढ़ा रहे हैं?
जवाबः बाहर से आए हुए मुसलमान आज भी खुद को विदेशी कहते हैं. जब ब्राह्मण को दलित ऑर्गेनाइजेशन या दालित आंदोलन बाहरी कहते हैं, तो ब्राह्मण इसका काउंटर करता है कि नहीं हम विदेशी नहीं, बल्कि हम भी इंडियन ही हैं.
जबकि अशराफ का हर दसवीं लाइन के बाद ग्यारहवीं लाइन होता है कि मैं फलां की नस्ल से हूं. मैं फलाने शहर से आया हूं. वह नस्ल और शहर का नाम बाहरी होते हैं. वह हमारे ऊपर भौकाल डालना चाहते हैं.
विदेशी मुसलमान तीन आधार पर हमारा शोषण करते हैं. पहला नस्ल और जाति के आधार पर, दूसरा कल्चर के आधार पर कि हमारा ईरानी अरबी कल्चर आला और बड़ा है. तुम्हारा हिन्दुआना कल्चर है. इसलिए भोजपूरी बोलने पर उर्दू बोलने का दबाव पसमांदा पर होता है कि तुम बोल ही नहीं पाते हो.
तलफ्फुज ठीक नहीं है. फिर परेशान होकर पसमांदा इज्जत पाने के लिए शेरवानी पहनने लगता है. अच्छी उर्दू बोलने की कोशिश करता है. भाषाई और कल्चर के आधार पर वह हमारा उपहास उड़ाते हैं, जिसको हम बचपन से झेल रहे हैं.
तीसरा क्षेत्र के आधार पर, खुद को अरबी और ईरानी कहते हैं. और हमको अजमी. भारत के लोगों को अजमी कहते हैं. अजमी का मतलब होता है गुंडा. आज आपने हमें मौका दिया है, दुनिया देख रही है कि मैं बोल रहा हूं कि भारतीय मुसलमान बोल सकते हैं. इसी तीन आधार के खिलाफ हमारा संघर्ष है. जो जाति नस्लीय विभेद है, उसमें सामाजिक न्याय आ जाए.
देखिए, पसमांदा से जब आप पूछेंगे कि आप की भाषा किया है, तो भोजपुरी बोलने वाला, मैथिली बोलने वाला, तेल्गू बोलने वाला पसमांदा कहता है कि उसकी भाषा उर्दू है, लेकिन वह अपने घर में, तेलुगू, भोजपुरी, मैथिली में बात करता है. ये जो कल्चर है, उसके खिलाफ हम काम कर रहे हैं.
हमारी मां साड़ी पहनती है, तो हमें इस पर गर्व हो. वह जुब्बा जो ईरानी ड्रेस है, उस पर फोर्स न हो. किसी तरह से दबाने का काम न हो. ये तीन मैन पॉइंट है. सामाजिक न्याय मुस्लिम समाज में भी हो.
जैसे कि मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड है. मुसलमानों के नाम से जो भी संस्थाएं चल रही हैं, वह बाहर से आए हुए विदेशी मुसलमान हैं. मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को मैं उदाहरण के तौर पर कह दूं कि डेढ़ सौ से दो सौ उसमें मेंबर हैं.
बड़ी हैरत है. दुख भी होता और गुस्सा भी होता है. हंसी भी आती है. इसको भारत सरकार, राज्य सरकार मीडिया, लिबरल, इंटलेक्चुअल हिन्दू, कम्युनिस्ट, ये सारे लोग मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को भारतीय मुसलमानों की प्रतिनिधि सभा मानते हैं.
बहुत दुख की बात है कि उसमें एक भी भारतीय मुसलमान नहीं मिलेगा. सारे विदेशी मुसलमान मिलेंगे. दिन भर ये कहते रहते हैं कि मैं विदेशी हूं. इस जमीन को हमारे बाप ने तलवार से जीता था. इसलिए ये जमीन हमारी है. हम शासक हैं. इस तरह की बातें हमेशा कहते हैं.
सवालः आपने बहुत गंभीर मुद्दे उठाए हैं. इतने गंभीर मुद्दे को लेकर पसमांदा मुसलमान लामबंद क्यों नहीं होते?
जवाबः लामबंद होता है, चूंकि अशराफ बहुत ही ताकतवर समूह है और इस वक्त मैं समझता हूं, सबसे ताकतवर समूह यहूदी को कहा जाता है, लेकिन मुझे नहीं लगता. सबसे ताकतवर समूह अशराफ है.
खासतौर से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के ओल्ड ब्वॉयज एसोसिएशन के लोग. यह पूरी दुनिया में हैं. वह बहुत ताकतवर हैं. इस्लाम में, मुसलमानों में जो जातिवाद है. बाबा कबीर को भी सिकंदर लोधी से शिकायत करके उसे मारने की कोशिश की गई.
उनको बनारस से बाहर कर दिया गया. फिर उन्होंने सजा को जजा के तौर पर लिया. इसका इस्तेमाल बहुत अच्छा किया. देश-दुनिया घूमी और अपने साहित्य को आगे बढ़ाया. हाजी शरियत उल्लाह ने बंगाल में आंदोलन किया. फिर आसिम बिहारी, जो इंटरनेशनल आर्गेनाईजेशन शुरू किए थे.
विरोध में सबसे मजबूत आवाज आसिम बिहारी के नेतृत्व में जमीयत उल मोमिनीन की थी. उसके साथ जो पसमांदा जाति थी, जैसे जमीयतुल हवारीन धोबी का संगठन, जमीयतुल राइन, सब्जीफरोश, कसाई बिरादरी के संगठन 1946 में इलेक्शन में मुस्लिम लीग को हराते रहे.
सरदार पटेल ने उनकी ताकत को समझा था. उसके बाद से उसका शीराजा बिखरा है. मंडल कमीशन को लागू कराने की जो प्रक्रिया थी, उसमें महाराष्ट्र से शब्बीर अंसारी से लेकर, मीडिया ने भी उसको कवरेज किया.
बिहार से एजाज अली आए, जो बेहतरीन सर्जन है. मैं उन्हें दुनिया का सबसे सस्ता सर्जन मानता हूं. 10 रुपये में मरीज देखते हैं. ये भी बहुत अच्छी बात है. फिलहाल, अली अनवर उसमें आए, फिर उसमें हाजी निसार का नाम आता है.
हम जैसे लोग फिर उसमें जुड़ते हैं. प्रतिरोध तो हमेशा रहा है, लेकिन मीडिया ने, उस तरह का कवरेज नहीं दिया, जैसा अशराफ को देता रहा है. विमर्श को आगे पहुंचने नहीं देते हैं. आज भी आप देखिए, ओवैसी की चर्चा होती है.
मुसलमानों को वोट देने की चर्चा होती है, लेकिन इसमें 90 प्रतिशत मुसलमानों की राय शामिल नहीं की जाती है. मुसलमान का मतलब अशराफ ही होता है. जो शेरवानी पहने होता है. या सैयद साहब हैं. जो पूरा इस्लामिक रूप धारण किए हुए हैं.
या सलमान खुर्शीद की तरह कोट-टाई पहने हुआ है. या फिर जावेद अख्तर की तरह इस्लाम का पक्ष रखता है. मगर हमारे मौलवी को नहीं बुलाया जाता है. यह सब देश में खूब आसानी से चल रहा है.
ये चल इसलिए रहा है कि अशराफ हर जगह है. जो महात्मा गांधी से खिलाफत आंदोलन लड़वा लेता है, जवाहर लाल नेहरू से तुष्टीकरण करवा लेता है. मौलाना आजाद की कोई स्कूलिंग नहीं थी. उनकी जो भी स्टडी थी, वह पर्सनल थी.
उस वक्त कांग्रेस के पास बैरिस्टर थे. विदेश से पढ़े हुए थे, जिनको शिक्षा मंत्री बनाया जा सकता था. लेकिन एक मौलवीनुमा आदमी जिसकी न किसी मदरसे में पढ़ाई हुई थी. न स्कूल में कोई पढ़ाई हुई थी. अपने बाप-दादा से दो चार किताबें पढ़ी थी.
ठीक है पर्सनल लेवल पर बहुत ज्ञानी आदमी रहे होंगे, लेकिन स्कूलिंग नहीं और न ही मदरसे में कोई तालीम थी. उनको नेहरू शिक्षा मंत्री बना देते हैं. मुलायम सिंह और कांशीराम को भी थोड़ी सी समझ थी.
उन्होंने पसमांदा आंदोलन को वजन दिया. उन्हें साथ लेकर चले. कांशीराम ने बहुत अच्छा काम किया था. जब पहली सरकार बनाई उत्तर प्रदेश में. उन्होंने पसमांदा समाज से मुख्तार अंसारी को जो गाजीपुर से हैं,
उनको इसमें भागीदारी दी. सामाजिक नजरिए से देखेंगे, तो न सिर्फ हिन्दू समाज, बल्कि मुस्लिम समाज में भी दलित, बैकवर्ड, जो पीछे रह गए लोग थे, जो वंचित रह गए थे. उनको कांशीराम ने भागीदारी करके एक अच्छा माहौल बनाया था.
उनकी बात आगे नहीं चल पाई, ये अलग बात है. मगर मैं आपको धन्यवाद दूंगा कि आप अपने माध्यम से इस बात को उठा रहे हैं. जब भी मुसलमानों की बात होती है, तो चंद लोगों को बुला कर हो जाती है और बात खत्म हो जाती है. तबलीगी जमात में जाने वाला, ठेला लगाने वाला, मेहनत-मजदूरी करने वाला होता है. उनके जो चीफ हैं मौलाना साद हैं, उन्हें मनाने (बड़े अफसर) जाते हैं. ये एक तरह का ढोंग चल रहा है मुस्लिम नाम पर. इसलिए मैं मुस्लिम विमर्श से दूर रहता हूं.
पूर्णिया जिले के रहने वाले थे नूर मुहम्मद साहब. उन्होंने 1948 में कहा था कि हमें कोई भी मुस्लिम नाम से कोई राजनीतिक पार्टियां नहीं चाहिए. हम मुस्लिम विमर्श के खिलाफ हैं. हम जानते हैं कि बहुत गरीब पृष्ठभूमि से 1937 में बिहार चुनाव में ये एमएलए बने थे और वहां उन्होंने बहुत ही रिलेशन रखा था.
उनकी लंबी दास्तान है. हम शुरू से ही मुस्लिम विमर्श के खिलाफ हैं. मुस्लिम साम्प्रदायिकता के खिलाफ हैं. हमारी आवाज कमजोर जरूर है, हमारे कदम छोटे जरूर हैं, लेकिन नियत, इरादे, साहस बहुत बड़ा है.
-ट्रांस्क्रिप्टः मोहम्मद अकरम