स्वतंत्रता संग्राम में पंजाब के मुसलमानों की क्या थी भूमिका यहां जानें

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 14-08-2023
The Muslims of Punjab had an important role in the freedom struggle
The Muslims of Punjab had an important role in the freedom struggle

 

अमरीक

1857 के आजादी आंदोलन में मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों, खासतौर से उत्तर भारत (पंजाब) से वाबस्ता जंगजुओं की बहुत अहम भूमिका थी. बेशक 1857 में देश को आजाद कराने के लिए दक्षिण भारतीयों का योगदान भी कम नहीं था. उत्तरी और पूर्वी हिंदुस्तान की विभिन्न छावनियों के हिंदुस्तानी फौजियों ने बगावत करके अंग्रेज फौजियों और अधिकारियों को मारकर हिंदुस्तानी हुकमरान नियुक्त कर लिए और अंग्रेज छावनियों में पड़ा असला और खजाना लूट कर दिल्ली की ओर कूच कर गए ताकि वहां बहादुर शाह जफर की हुकूमत को बहाल किया जा सके और ऐसा करने में वे कमोबेश कामयाब भी रहे. 

बेशक आजादी की इस लड़ाई के रहनुमा हिंदुस्तान की रियासतों के भूतपूर्व हुकमरान थे लेकिन फौजी बगावत का मुख्य रहनुमा बख्त खान रहेला थे जो उस समय बरेली की छावनी में एक फौजी अधिकारी थे और बगावत करके छावनी से बड़ा असला और खजाना लूटकर बहादुर शाह जफर के पास पहुंचे.
 
उस वक्त पंजाब के हालात दूसरे सूबों से अलहदा थे. 1849 को पंजाब पर हुए अंग्रेजों के कब्जे को ज्यादा वक्त नहीं बीता था. अंग्रेजों ने सिख कौम को भ्रमित करने के लिए और दूसरे पंजाबी प्रजामंडल से अलग करने के लिए नए-नए हथकंडे अख्तियार करने शुरू कर दिए.
 
उन्होंने सिखों को इस कूटनीति से भ्रम में डाला. अंग्रेज आखिरकार बहुतेरे सिख सूरमाओं को यह यकीन दिलाने में कामयाब रहे कि अगर वे 'पुरबिया' सैनिकों का साथ छोड़ दें तो दिल्ली में 'राज करेगा खालसा' का नारा हकीकत में बदल जाएगा.
 
दूसरी ओर उत्तरी हिंदुस्तान के बागी सैनिक बड़ी तादाद में दिल्ली पहुंच रहे थे. बागी सैनिकों और स्वतंत्रता सेनानियों ने जफर का राज बहाल करवा दिया. बहादुर शाह जफर ने अपने वफादारों को अंग्रेजों से मुकाबले के लिए सैनिक और स्वतंत्रता सेनानी लेकर दिल्ली पहुंचने का हुकमनामा जारी किया.
 
इसी तरह का एक हुकमनामा पंजाब की प्रमुख धार्मिक शख्सियत मौलवी अब्दुल कादर लुधियानवी को भी लिखा गया. मौलवी साहिब ने उक्त हुकमना  की अनेक हस्तलिखित प्रतिलिपियां अपने पैरोंकारों को भेजीं, जिनमें लिखा गया था, "पंजाब की तमाम छावनियों के हिंदुस्तानी फौजियों को बहादुर शाह जफर की ओर से हुक्म दिया जाता है कि वह अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करके लुधियाना पहुंच जाएं.'
 
मौलवी अब्दुल कादर लुधियानवी का ऐलाननामा मिलते ही जालंधर, फिल्लौर सहित पंजाब के सैन्य ठिकानों से बगावत करके इंकलाबी लुधियाना पहुंचना शुरू हो गए. सतलुज नदी के किनारे बागियों और स्वतंत्रता सेनानियों का मुकाबला साम्राज्यवादी फौज के साथ हुआ.
 
जिसमें एक बागी और एक अंग्रेज अफसर मारे गए. बाकी अंग्रेज सिपाही वहां से भाग गए. इतिहासकार पंडित सुंदर दास के अनुसार उसे वक्त शहर लुधियाना पंजाब के स्वतंत्रता सेनानियों का मुख्य केंद्र था. पूरी तैयारी के बाद बागियों की फौज मौलवी अब्दुल कादर और उनके पुत्र की रहनुमाई में दिल्ली के लिए रवाना हो गई.
 
मौलवी कादर के पिता का नाम मौलवी अब्दुल वारिस था. वह लुधियाना के एक प्रबुद्ध  खानदान से ताल्लुक/खून का रिश्ता रखते थे. उन्होंने अपने बेटों, भाइयों और अन्य रिश्तेदारों के साथ अट्ठारह सौ सत्तावन की जंग में हिस्सा लिया.
 
दिल्ली पहुंचकर उन्होंने चांदनी चौक में मस्जिद फतेहपुरी को अपने रहने का ठिकाना बनाया. इस संग्राम में उनकी पत्नी भी उनके साथ थीं. वह वहां फौत हो गईं. उनकी कब्र मस्जिद फतेहपुरी में मौजूद है. लुधियाना के मौलवी साहिब उन प्रमुख मौलवियों में शुमार थे जिन्होंने जामा मस्जिद के मंच से अंग्रेजों के खिलाफ फतवा दिया था. मौलवी अब्दुल कादर लुधियानवी पंडित जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के साथी रहे मौलवी हबीबुर रहमान के नजदीकी रिश्तेदार थे.
 
पूरे पंजाब से बागी फौजियों और स्वतंत्रता सेनानियों ने कंधे से कंधा मिलाकर 1857 की जंग में हिस्सा लिया था. हजारों हिंदू और सिखों के साथ-साथ इतनी ही तादाद में मुसलमान भी शहीद हुए. पंजाब का कोई कोना ऐसा नहीं था, जहां के किसी मुस्लिम परिवार के सदस्य ने कुर्बानी न दी हो. लुधियाना के शाह अब्दुल कादर और उनके फरजंद मौलवी शाह अब्दुल अजीज और मौलवी शाह अब्दुल्ला शहीद होने वालों की पहली कतार में थे.
 
अंग्रेजों ने तब बड़ी कोशिश की कि हिंदू-सिखों और मुसलमानों को आपस में 'फूट डालो राज करो' की नीति के तहत लड़ाया जाए. लेकिन लुधियाना, जालंधर, फिरोजपुर और फिल्लौर के बुद्धिमान मुसलमानों ने ऐसा नहीं है होने दिया.
 
इतिहासकारों के मुताबिक 1857 और 1947 की हिंदू-सिख और मुसलमान एकता की नींव में बहुत बड़ा फर्क था. 1857 में किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि पाकिस्तान नाम का शब्द वजूद में आएगा और 1947 के बंटवारे के वक्त इतनी बड़ी हिजरत होगी.
 
अंग्रेजों की कूटनीति के चलते यह हुआ. हालांकि 1947 में भी मुसलमानों की एक बड़ी आबादी ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया. भारतीय पंजाब, खासतौर से मलेरकोटला और उसके आसपास के इलाकों में कोई हिजरत और फसाद नहीं हुआ.
 
एक अनुमान के अनुसार 1857 में जितने हिंदू और सिख मारे गए, ठीक उतने ही मुसलमान भी देश को आजाद कराने के सपने के साथ फौत  हुए. मुसलमानों फर बर्बर  अत्याचार किए गए. काले पानी की जेल के साथ-साथ सरेआम फांसी पर लटकाया गया. यह इतिहास आज भी भारतीय पंजाब के शहरों और कस्बों् की दीवारों पर लिखा हुआ है कि बागी फौजियों और स्वतंत्रता सेनानियों को गलिियो स भुना गया और सारेआम फांसी दी गई. लुधियाना वालों पर सबसे ज्यादा कहर ढहाया गया.
 
लुधियाना की घास मंडी चौक में जब दो कश्मीरी मुसलमान जवानों मोहम्मद रहीम और मोहम्मद करीम ने फांसी पर चढ़ने से पहले पानी मांगा तो पानी पिलाने वाले लाला पूरा राम को भी इस वक्त बतौर सजा फांसी के फंदे पर लटका दिया गया.
 
बगावत से अंग्रेज इतने ज्यादा चिढ़े हुए थे कि मौलवी अब्दुल कादर लुधियानवी के मोहल्ले, रिहाइशगाह और और मस्जिद को आग लगा दी गई. उनकी दूसरी जायदादों के साथ भी यही सुलूक किया गया. उन लपटों कि आंच आज भी बरकरार है. बेशुमार अंग्रेज इतिहासकारों ने इसका जिक्र किया है. 1857  की जंग में हिंदुस्तानियों को शिकस्त मिली लेकिन इतिहास उनकी शौर्य गाथाओं से भरा पड़ा है.
 
मुसलमानों से आज दोयम दर्जे का व्यवहार करने वाले नहीं जानते कि 1857 के विद्रोह की नींव पर 1947 खड़ा था. बदकिस्मती और अंग्रेजों की कूटनीति के चलते महादेश का बंटवारा हो गया. 1947 के स्वतंत्रता संग्राम में शिरकत करने वाले मुसलमानों को ज्यादातर लोग जानते हैं लेकिन 57 में जान की बाजी लगाने वालों को बहुत कम जाना जाता है
 
. कुछ अहम नाम प्रस्तुत हैं 1957 में अपनी जानदार भूमिका के लिए जाने जाते हैं. तमाम पंजाब के हैं: गौराया के अहमद खान खरल, लुधियाना के हकीम करीम बख्श लुधियानवी, हकीम मोहम्मद अफाक लुधियानवी, ख्वाजा अहमद शाह, नाहर खान, फरमान शाह, मियां मियां गुलाम, नबी लुधियानवी, मौलवी सैफुर लुधियानवी, मौलवी अब्दुल अजीज लुधियानवी, मौलवी मोहम्मद इस्माइल लुधियानवी, मौलवी शाह मोहम्मद लुधियानवी, मौलवी शाह अब्दुल्लाह लुधियानवी, मौलवी हकीम करीम बख्शलुधियानवी, मौलवी हकीम मोहम्मद आफाक लुधियानवी, (गांव मांगट जिला लुधियाना) हकीमुद्दीन, मौलवी  हियातुद्दीन लुधियानवी. 
 
1957 के बाद के बाद 1947 तक स्वतंत्रता के लिए बेशुमार मुसलमान शीश तली पर धरकर लड़ते रहे. अलहदा है कि यहां उनका नाम हाशिए पर चला गया, जबकि विदेशी इतिहासकारों ने उनका जिक्र-ए- खास किया है. इनमें गुमनाम लोगों में प्रमुख हैं अमीर हैदर उर्फ फर्नांडीज. वह पंजाब के थे.
 
अब्दुल्ला पंजाबी, मलेरकोटला के रहने वाले थे. जगराम के सैयद फजलू रहमान शाह तब सिर्फ 18 साल के थे जब उन्होंने 1942 में पहली जेल यात्रा की. सूफी बरकत अली लुधियानवी लुधियाना के थे ब्रिगेडियर एलटी वाइच ने अपनी किताब में लिखा है कि, 'हिंदुस्तान में ऐसे लोग भी हैं जो अपने जज्बात और आजादी के लिए बड़ी से बड़ी नौकरी को छोड़ सकते हैं."
 
शेख इस्लामुद्दीन अमृतसर के थे. कॉमरेड मजहर जमील समराला के थे. कॉमरेड अब्दुल रहमान लुधियाना जिला के थे. कॉमरेडों की एक लंबी जमात थी जो स्वतंत्रता आंदोलन के गढ़ लुधियाना के आसपास की थी. 
 
जो नूंह आज फिर सांप्रदायिकता की आग में जल रहा है वहांं के मेवात इलाके से हजारों मुस्लिम इंकलाबियों ने आजादी के लिए कुर्बानी दी. 1947 से पहले पंजाब के बहुत सारे मुसलमान रहनुमाओं को गिरफ्तार करके जैलों में डाला गया. काल कोठरी में बंद रखा गया.
 
काले पानी भेजा गया और बेशुमार को फांसी दी गई यह सरेआम गोली मार दी गई. तवारीख के इस हिस्से को भी जरूर याद रखा जाना चाहिए. हरियाणा और हिमाचल प्रदेश इन दिनों पंजाब का हिस्सा होते थे. वहां भी मुस्लिम आबादी बड़ी तादाद में थी और उन्होंने भी बढ़-चढ़कर आजादी के लिए कुर्बानी दी.
 
इतिहास की किताबों में जाइए तो पता चलेगा कि 1918 के बाद बहुत सारे मुसलमान महात्मा गांधी के गहरे मुरीद हो गए थे. उनकी कही हर बात उनके लिए आदेश थी और गांधीवादी मुसलमानों का उसूल-सा था कि महात्मा गांधी के बताए रास्ते पर चलें. महात्माा गांधी की बदौलत ही लाखोंं मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए और भारत में रहना मंजूर किया.