डॉ. आसिफ उमर
साहित्य और समाज एक दूसरे के अस्तित्व और निर्माण पर निर्भर करते हैं. ठीक इसी तरह प्रत्येक साहित्य में समाज का प्रत्येक समुदाय अपनी-अपनी भूमिका को माध्यम से समाज को चित्रित करने का प्रयास करता है.
किसी भी साहित्य की यदि हम चर्चा करते हैं तो उसमें समाज के प्रत्येक हिस्से का प्रतिनिधित्व लगभग हर समुदाय के लोग कहीं न कहीं करते दिखाई देते हैं. 'हिन्दी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों के योगदान असल में अल्पसंख्यक विमर्श को नई शुरुआत और एक नया आयाम देना है.
आज हिन्दी साहित्य में हर तरफ अलग-अलग विमर्शों पर गंभीर चर्चाएं देखने को मिल रही हैं. लेकिन अल्पसंख्यक विमर्श अभी भी उससे दूर है. अल्पसंख्यक विमर्श के अंतर्गत न केवल सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक समस्याओं का उद्घाटन ही करना है बल्कि इस विमर्श के माध्यम से क्या कुछ नया हो सकता है उस पर बल देना अति आवश्यक लगता है.
हर युग में जीवन-मूल्य बदलते हैं और उनके साथ ही साहित्य का उद्देश्य भी बदल जाता है. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, मध्यकाल (भक्ति और रोति) और आधुनिक काल अपने युग की समस्या और जीवन मूल्यों के बदलते चरित्र को उजागर करता है.
आज इक्कीसवीं सदी में जब हिन्दी साहित्य के हजार वर्ष पूरे हो चुके हैं, अल्पसंख्यक विमर्श की गूंज सुनाई दे रही है. हिन्दी में अल्पसंख्यक विमर्श का अर्थ उस साहित्य से लिया जाता है जिस साहित्य को मुस्लिम हिन्दी लेखकों ने स्वयं अपने समाज के बारे में लिखा है.
इन लेखकों में राही मासूम रजा, शानी, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंजूर एहतशाम आदि का नाम प्रमुखतः से लिया जाता है. ये ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने भारत में रह रहे मुस्लिमों की समस्याओं पर लेखनी चलाई है. इन्होंने मुस्लिम समाज में देश विभाजन के बाद की अल्पसंख्यक होने का दंश, गरीबी, अशिक्षा आदि विषयों को मुद्दा बनाया लेकिन ऐसा नहीं है कि यह समस्याएं सिर्फ मुस्लिम समाज की है.
डॉ. मोहम्मद अलीम कहते हैं, " प्रसिद्ध मुस्लिम कवियों और लेखकों की रचनाओं पर यदि बारीकी से नजर डालें तो ऐसा लगता है कि उनके लेखन में वही दर्द और छटपटाहट है जो अन्य धर्म-जाति से आने वाले रचनाकारों के यहां मौजूद हैं. सभी ने अपने-अपने समाज की समस्याओं, उसकी विसंगतियों पर से पर्दा उठाने की कोशिश की है. किसी का संबंध जागीरदाराना समाज से है तो उसने अपने समाज की उन्हीं समस्याओं पर कलम उठाया है. किसी का संबंध निम्न वर्ग से है तो उसने इस पर लिखा है. मगर उन पात्रों के नाम यदि हटा दिये जाएं और उसे कोई तटस्थ सा नाम दे दिया जाए तो फिर यह एक करना मुश्किल हो जाएगा कि यह समस्याएँ हिन्दू समाज की हैं या मुस्लिम समाज की है.”
हिन्दी साहित्य के आदिकाल का प्रारम्भ एक हजार ईसवी के आस पास माना जाता है. इस काल में हिन्दी के दो महत्वपूर्ण मुस्लिम रचनाकार सामने आते हैं- अब्दुर्हमान और अमीर खुसरो. अब्दुर्रहमान की रचना संदेशरासक विरह काव्य के रूप में प्रसिद्ध है. इनकी भाषा अपभ्रंश मिश्रित है. इसका कारण है कि भारत में मुस्लिम राज की स्थापना के पूर्व ही बहुत से सूफी और व्यापारी यहाँ पर बस गए थे. अब्दुर्रहमान उसी परंपरा से थे, इसलिए उनकी भाषा में अपभ्रंश का अंश भौजूद है.
अमीर खुसरो ने कई बादशाहों का शासन देखा. उन्हें खुद के हिन्दुस्तानी होने पर गर्व था. जो हिन्दी भाषा (खड़ी बोली) आज प्रचलित है, आदिकाल में सिर्फ अमीर खुसरो ही हैं जिनकी भाषा आज की भाषा से मेल खाती है.
इस समय तक मुस्लिम राज भारत में व्यवस्थित हो चुका था इसलिए बहुसंख्यक आबादी की भाषा, हिन्दी संवाद और साहित्य का माध्यम बनी. मध्यकाल तक आते-आते मुस्लिम रचनाकारों की बाढ़ सी आ गई. उनकी रचनाओं में हिंदुस्तान की मिट्टी की सोंधी खुशबू दिखाई देती थी. कथानक भारतीय था. सामाजिक समन्वय की पुकार थी, शासन तंत्र के लिए फटकार.
आततायी का विरोध जायसी करते हैं तो कबीर सभी तरह की सत्ताओं को नकार कर एक समन्वित समाज की हिमायत करते हैं. ये सारे भारतीय मुस्लिम साहित्यकार वैचारिक दृष्टि से सूफी थे और पारस्परिक प्रेम और सौहार्द में विश्वास रखते थे.
प्रारंभिक मुस्लिम साहित्यकारों में जिनका आम जनता से सीधा सरोकार था उन्होंने कई स्तरों पर समाज को एक नए संदेश के माध्यम से जोड़ने की कोशिश की. उन्होंने प्रेम के माध्यम से समाज को प्रेम के एक धागे से जोड़ने का प्रयास किया. प्रेम ही एक ऐसा बीज तत्व है जिसके माध्यम से जहाँ एक ओर मनुष्य और मनुष्य के बीच की खाई पट सकती है वहीं दूसरी ओर परम सत्ता से निकटता की भी संभावनाएं बनती हैं.
स्पष्ट हो जाता है कि कबीर जैसे रचनाकारों के लिए पहले से ही पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी. अलग-अलग धार्मिक ठेकेदारों को वैचारिक जकड़न से समाज को मुक्त रखने का कार्य प्रारम्भ से ही ये साहित्यकार कर रहे थे. ये साहित्यकार सही अर्थों में पथ प्रदर्शक थे.
मुल्ला दाऊद, कुतुबन, मंझन, मलिक मोहम्मद जायसी आदि की रचनाओं से हिन्दी के लगभग सभी अध्येता भली-भांति परिचित हैं. इन कवियों का तटस्थ एवं न्यायसंगत मूल्यांकन होना है. इनके प्रेमाख्यानक काव्यों में विभिन्न आलोचकों ने रुचि अवश्य ली है किन्तु उनकी दृष्टि कथानक के भारतीय या अभारतीय होने, हिन्दू या मुस्लिम संस्कारों की अभिव्यक्ति का जायजा लेने और इन्हें श्रृंगार परक सिद्ध करने में सीमित रही है. साहित्यिक उद्देश्य का मूल्यांकन नहीं किया गया.
स्वाधीनता के पश्चात भारतीय समाज में कई तरह के बदलाव दृष्टिगोचर होते हैं. जहाँ एक तरफ समाज विभाजन की त्रासदी से गुजर रहा था वहीं साथ ही मोहभंग और शहरीकरण की समस्या से भी गुजर रहा था. एक तरफ शहर में एकल परिवार से निर्मित समस्या थी तो वहाँ दूसरी तरफ ग्रामीण इलाकों में गरीबी और जातिगत समस्या अपने विकराल रूप में दिखाई दे रही थी.
मुस्लिम साहित्यकार तटस्थ हो कर विभाजन की त्रासदी पर लेखनी चला रहे थे तो वहाँ गरीबी तथा जातिगत समस्याओं पर भी मुखर हो कर लिख रहे थे. मुस्लिम साहित्यकार अपने सामाजिक भागीदारी को नजरअंदाज न करते हुए समाज को एक नई दिशा देने का कार्य कर रहे थे.
हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में मुस्लिम रचनाकारों के योगदान को कमतर नहीं आँका जा सकता है. हिन्दी साहित्य के सभी काल-खंडों में इन्होंने अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज कराई है. आदिकाल में जहाँ दो महत्वपूर्ण रचनाकार अब्दुर्रहमान और अमीर खुसरो अपनी कृति क कारण कालजयी बने हुए हैं तो वहीं मध्यकाल में कबीर, जायसी, रहीम, रसखान भक्ति और सूफी मत के आलोक में अपने ज्ञान को आमजन के बीच बिखेर हैं.
आधुनिक काल में राही मासूम रजा, शानी, महरुन्निसा परवेज, शकील सिद्दीकी, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंजूर एहतेराम जैसे रचनाकारों से कौन साहित्य प्रेमी परिचित नहीं है.
साहित्य में अल्पसंख्यक विमर्श की मजबूत नींव, बहस और भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को सामने लाना है. यह इस बात का संकेत है कि भारत अपनी एकता और अखंडता के लिए जाना जाता है. भाषा सभी की है और हमें साहित्य के माध्यम से एकता की आवाज भी है. को मजबूत करने की तरफ पहल करनी चाहिए. यह जरूरी कदम साबित होगा.