लेसले हैजलटन की यह किताब 2013में आई थी. तब से ये मेरी अलमारी के सामने वाले सिरे पर हमेशा रही है. इन दस—ग्यारह सालों में इसे मैंने लगभग इतनी ही मर्तबा पढ़ा होगा. कभी पूरी तो कभी बीच—बीच से. इस्लाम और पैगम्बर मुहम्मद के बारे में जब जब कोई सार्वजनिक विमर्श तूल पकड़ता है तो हर बार ज्ञानवान,सार्थक, तथ्यात्मक और तटस्थ जानकारी के लिए मुझे इस किताब की ओर लौटना ही पड़ता है. और सब कुछ ऐसे प्रवाह में लिखा है कि एक बार पढ़नी शुरु करें तो छोड़ने का मन ही नहीं करता.
मिसाल के तौर पर इसकी शुरुआत देखिये.
मुहम्मद के दादा थे अब्द अल मुत्तलिब, ज़म—ज़म खोजी थी उन्होंने. मक्का में कई झरने थे पर इतनी बीचोबीच, इतने मीठे पानी ओर इतनी पवित्र वाली नदी कोई नहीं थी——तो उन्होंने दावा किया कि कुरायश कबीले के हाशिमों को ही जायरीनों को दिए जाने वाले पानी का मुनाफा मिलेगा. कुरायशों के बाकी लीडरान ने मुत्तलिब के मंसूबों और इज्जत पर सवाल उठाया तो उन्होंने एक कसम उठाकर सब के मुहं पर ताले जड़ दिए. उन्होंने ऐलान किया कि अगर उनके दस बेटे हुए और वे बालिग होने तक जीवित रह गए तो वह उनमें से किसी एक को काबा के इसी खुले प्रांगण में सबके सामने कुर्बान कर देंगे.
होनी ऐसे ही होनी थी. मुत्तलिब के दस के दस बेटे बच गए और अब कसम पूरा करने का समय आ गया. हुबाल स्टोन के सामने सब जमा हो गए. इसी पत्थर के सामने सारी कसमें पूरी हुआ करती थीं. तय हुआ कि दस तीर छोड़े जाएंगे. हर तीर पर एक बेटे का नाम लिखा होगा. जो तीर हुबाल पर सीधा गिरेगा, बस उसी बेटे की कुर्बानी होगी. ...और सबसे नजदीक जो तीर गिरा उस पर मुत्तलिब के सबसे छोटे और सबसे प्रिय बेटे अब्दुल्ला का नाम लिखा था. मुत्तलिब के हाथ में शमशीर थमा दी गई. अब्दुल्ला को काबा में घुटने पर झुका दिया गया और तलवार पिता के हाथ में थी.....''
आगे क्या हुआ, आप खुद पढ़ लीजिये. लेकिन इतनी पावरफुल जीवनी मैंने कभी नहीं पढ़ी. हैजलटन ने गुमनामी से लेकर शोहरत तक, मुुफलिसी से लेकर सर्वशक्तिमान होने तक और नगण्य होने से लेकर तारीख का अहम किरदार होने तक, पैगंबर के पूरे जीवन को शुरुआती चश्मदीदों की गवाही से लेकर इतिहास, राजनीति, मजहब और मनोविज्ञान तक के आइने से पेश किया है.
किताब के आमुख में ही लिखा है: कुरआन के अनुसार मुहम्मद ने कहा, 'मैं पहला मुस्लिम हूं'
और फिर महात्मा गांधी को उद्धृत किया: मुझे संत होना स्वीकार्य नहीं है...मुझ में उतनी ही कमजोरियां हैं जितनी हम सब में हैं. लेकिन मैंने दुनिया देखी है. मैं इस दुनिया में खुली आंखों के साथ जिया हूं.''
अगर आपको सच में खुली आंखों से दुनिया में जीना है तो एक बार इस किताब को मौका मिलने पर पढ़ियेगा. ईद मुबारक हो.
स्टोरी 5: इतना प्यार लगाव आज अकल्पनीय है
रजनीश कोठियाल
दोस्तों, मित्र और मित्रता का शाब्दिक अर्थ जो भी हो, पर वास्तव में बचपन से और अभी इस उम्र तक जो मैने पाया वो देखा था अपने पिता व उनके बेहद करीबी उनके परम मित्र नजीर अंकल में.
एक कट्टर मुस्लिम ,अपने धर्म के प्रति वफादार, अपने रोजों के दौरान पूरी शिदत्तता से पूरा करने वाला इंसान.
नजीर अंकल हमारे परिवार के सबसे ज्यादा नजदीक रहे. मुझे याद भी नही, मेरा जन्म भी नही हुआ था तब से.
बात लगभग 1968-70 की रही होगी जब अंकल ने श्रीनगर पॉलिटेक्निक आर्किटेक्चर इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की और आर्किटेचर को ही अपना पेशा बना दिया, उस वक्त श्रीनगर का जानामाना नाम था नज़ीर, बहुत सी सरकारी और गैरसरकारी इमारतों का कार्य स्वयं इनके द्वारा किया गया, स्वयं हमारे भवन का नक्शा इन्हीं के द्वारा बना था उस वक्त.
नजीर अंकल और पापा की मित्रता लगभग आजसे 53 वर्ष पुरानी रही होगी उस वक्त से जब नजीबाबाद से श्रीनगर आकर पढ़ाई कर रहे थे तब से ही पिताजी के साथ दुकान पर आना जाना शुरू हुआ जो इंतकाल तक बना रहा. आज दोनो ही महापुरुष इस धरा पर नहीं बस यादें बाकी हैं. पापा और नजीर अंकल गंगा- जमुनी तहजीब के जीते जागते उदाहरण थे हमारे लिए.
इतना प्यार लगाव आज अकल्पनीय है. बचपन से घर पर मुझे छोटे शब्द से पुकारा जाता था तो अंकल भी मुझे अंत तक छोटे ही कहते थे. एक ,दो हफ्ते में फोन पर बाते हो जाया करती थी, और श्रीनगर पहुंचने पर सबसे पहले उन्ही से मिलता था, उनके चरणों को छूकर प्रणाम कर और उनका मेरे सर पर हाथ फेरने से जो आत्मबल मिलता रहा शब्दों में बयाँ नही कर सकता.
अंकल के घर की एक एक चीज , कँहा पर क्या है, सुई से सब्बल तक का सबकुछ पापा को मालूम होता. नजीबाबाद अपने घर पर जब कभी कुछ काम करवाते तो उसे देखने का पापा से आग्रह करते तो पापा नजीबाबाद उनके घर पहुंच जाया करते.
नज़ीर अंकल के साथ कुछ दुर्घटना हुई थी जिसमे उन्होंने अपनी पहली पत्नी को खो दिया था, उनसे उनकी पुत्रियां थी जिनकी उन्होंने बहुत अच्छे अच्छे परिवारों में शादी करी, उसके बाद दूसरे विवाह से उन्हें एक पुत्री थी, जो आज सरकारी नॉकरी में है छोटी बहिन रोजीना. अंकल जी हम दोनों भाइयों को ही पुत्र समान मानते थे.
अंकल वेसे तो बहुत ज्यादा मजाकिया किश्म के थे परंतु बहुत इमोशनल भी थे मुझे याद है जब दीदी की शादी वर्ष 2004 में हुई तो विदाई से समय माँ ,पिता के साथ ही उस समय अंकल भी थे और उनकी आंखों में भी पानी था. ऐसे थे हमारे प्यारे नजीर अंकल.
ईद में उनके यंहा से मिठाई और गाजर का हलवा हमारे घर पहुंचता था और होली में दीवाली में गुजिया और मिठाई वंहा तक, एक दूसरे के घरों पर बिन बुलाए, पहुचने की कवायद थी जो हमारे पिता के बाद हम दोनों भाइयों में भी आ गई. शाम की चाय दोनो की लगभग एक साथ हमारी ही दुकान पर होजाया करती, और शरबत मेरा उनके घर पर. एक बार वर्ष 2007- 2008 में माँ बहुत ज्यादा बीमार थी स्वयं अंकल घर आकर कुशलछेम पूछने आया करते. जबकि स्वयं भी अब वे कुछ कुछ अस्वस्थ रहने लगे थे उन्हें अस्थमा हो गया था और साँस फूलने लगी थी, मैं स्वयं कई बार उन्हें अपनी मोटरसाइकिल में घर छोड़ने जाया करता था. कभी हॉस्पिटल में जाना हो तो बड़ा भाई उन्हें ले जाया करता था.
परन्तु अंकल बहुत खुद्दार किस्म के व्यक्ति थे दूसरों की सेवा करने में आगे व किसी से अपने लिए कभी कोई अपेक्षा नही, वे कभी किसी को ये नही चाहते थे कि स्वयं उनके कारण कोई परेशान हो.
बिटिया की नॉकरी लगने के बाद अब वे अकेले रहने लगे, स्वयं अपने लिए खाना बनाते. मुझे याद है एक बार वे बीमार हो गए ,मुझे पापा जी ने बताया तो मैं उनसे मिलने घर पर पहुंचा तो अस्वस्थ होने के बाद भी जब वो दरवाजे पर आए तो उन्हें पकड़ कर अंदर ले गया और उन्हें लेटा कर उनके पैरों को दबाने लगा, तो वे बहुत भावुक हो गए.उनको दुखी देख मुझे भी बहुत बेचैनी होती थी.
श्रीनगर में अगर नजीर अंकल को ढूंढना हो तो सुबह 10 बजे से 1 बजे तक और फिर 5 बजे से 7 बजे तक लोगों को मालूम होता कि वे कँहा मिलेंगे, इसलिए लोग बिना उन्हें फोन करे हमारी दुकान पर उनसे मिलने भी दुकान पर पहुँच जाया करते थे. अंकल सिगरेट के शौकीन थे बस शौकीन मात्र. कभी हफ्ते ,दो हफ़्ते में एक सिगरेट पी लिया करते वो भी पापा के पीठ पीछे, इतना सम्मान, आदर देखने को नही मिल सकता आज के समय.
पिताजी एक कहानी अक्सर सुनाया करते थे वर्ष लगभग 1975- 76 की जब पापा के बहुत घनिष्ठ मित्रों में एक कुलदीप सिंह अंकल की शादी थी लखनऊ तो पापा का जाना हुआ . उस वक्त कुलदीप सिंह अंकल के परिवार में स्वयं उनकी शादी में नज़ीर अंकल मेरे ताऊजी स्वर्गीय मुंशीराम जी कोठियाल बन बारात में शामिल हुए थे स्वयं कुलदीप सिंह अंकल ने ही ये युक्ति बताई थी.क्योंकि शायद उस वक्त बड़े जमीदार राजपूत लोगों की शादी,बारातों में अन्य धर्म के लोगों की मनाही थी.
हमारे घर के हर कार्यों में उनकी उपस्थिति हमें ऊर्जा देती रही . अपने अंतिम समय मे मृत्यु से 3 घंटे पहले तक पापा के साथ थे और दोनों ने अंतिम बार बातें की. मैं बहुत सारी यादों स्मृतियों में खो जाता हूं उन्हें याद कर के . आज दोनो ही नहीं हमारे बीच बस मात्र यादें हैं दोनो महापुरुषों की ,नमन है दोनो को मेरा.
(नोट: ये सभी कहानियां लेखकों के फेसबुक वॉल से ली गई हैं)