Surajkund Diwali Utsav में 52 रूप दिखाने वाले फिरोज की रोमांचिक कला देखना ना भूलें

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 10-11-2023
Firoz showing 52 forms in Surajkund Diwali Utsav 2023
Firoz showing 52 forms in Surajkund Diwali Utsav 2023

 

दयाराम वशिष्ठ, फरीदाबाद/ हरियाणा

अगर आप सूरजकुंड में पहली बार दीवाली उत्सव मेला देखने जो रहे हैं तो यहां फिरोज बहरूपिया की रोमांचिक कला को देखना न भूलें. 40 वर्षीय फिरोज 52 रूपों से भी अधिक विभिन्न कला दिखाने के माहिर हैं. जो भालू, बंदर, रावण, नारद जिंद, श्रवण, गुरू चेला, लौहार लोहारी, गुजर गुजरी, सब्जी वाली, पागल, मोरध्वज समेत अलग अलग 52 रूपों में अपनी विभिन्न कलां दिखा लोगों में अपनी छाप छोड रहे हैं.
 

मुस्लिम कलाकार रावण बनकर एकता का दे रहा है संदेश
बांदीबुई, जिला दौसा राजस्थान के रहने वाले कलाकार फिरोज सूरजकुंड मेला में रावण, नारद, श्रवण समेत अन्य रूप धारण कर न केवल एकता का संदेश दे रहे हैं, अपितु उनके खानदान में आज भी गीता, रामायण व महाभारत के पात्र मन में बसे हैं। फिरोज कहते हैं कि कलाकार की कोई जात नहीं होती है। पिता शिवराम रामायण बांचते थे। गीता पूरी तरह याद थी. श्लोक कंठस्थ आते थे. रामलीला करते थे. चोपाही याद थी.
 
ओरंगजेब के जमाने से सब कुछ बदला है. पहले तो सभी हिन्दु थे. मेवात मीना की होती थी. दशहरा की पूजा करते थे. उनकी पीढी राजा मानसिंह व माधोसिंह के समय से ही वह लोगों का मनोरंजन करते आ रहे हैं. उस समय मनोरंजन का कोई और साधन नहीं होता था. विवाह, शादियों व अन्य कार्यक्रमों में बहरूपिया की कला के लोग दीवाने होते थे. हिन्दु मुस्लिम में कोई फर्क नहीं था. यह कला उनकी खानदानी  चली आ रही है. संस्कृति मंत्रालय की ओर से वह बहरूपिया कला का पूरे देश का भ्रमण कर प्रदर्शन कर चुके हैं. फ्रांस भी जाने का मौका मिला.
 
 
बहरूपिया कला पूरे राजस्थान में प्रचलित 
देवी देवताओं, इतिहास पुरुषों व महापुरुषों के रूप धारण करने के अलावा ये गांव के धनी मानी लोगों की भी नकल करते हैं. हिन्दु राजाओं और मुगल बादशाह ने भी इस कला को उचित महत्व दिया था. बहरूपिए अपने रूप चरित्र के अनुसार अपने को बदल लेते हैं और उसी चरित्र के अनुरूप अपना अभिनय करने में माहिर होते हैं. अपने श्रृंगार और वेषभूषा की सहायता से वे प्राय: वही चरित्र लगने लग जाते हैं, जिसके रूप की वह नकल करते हैं. कई बार तो दर्शक गण असल और नकल में भेद भी नहीं कर पाते हैं और लोग चकरा जाते हैं.
 
भले ही मुसलमान, लेकिन ज्यादातर नाम हिन्दुओं के 
जिस दिन फिरोज गांधी का देहांत हुआ, उस दिन उनका जन्म हुआ. इसलिए परिवार के लोगों ने उनका नाम फिरोज रख दिया. परदादा का नाम श्रवण, दादा का नाम गोपी, पिता का नाम शिवराज, ताऊ का नाम रामजीलाल, माता का नाम छुटकी, दादी का नाम मल्लोह था. दो बेटे हैं, इनमें बडा बेटा मनोज 5 वीं कक्षा में व छोटा बेटा राहुल तीसरी कक्षा में पढता है, जबकि छोटी बेटी का नाम पिंकी है. पत्नी का नाम हसीदा है.
 
 
मनोरंजन करते करते मर गए, लेकिन नहीं मिला कोई सम्मान
राजा महाराजाओं ने उन्हे कभी आगे नहीं बढने दिया. मनोरंजन करते करते मर गए, लेकिन बहरूपिया समाज को कोई सम्मान आज तक नहीं मिला. यह कला प्राचीन समय से चली आ रही है. इस कला से पहले सिनेमा नहीं होते थे। यह कला ही लोगों का मनोरंजन का साधन होती थी. इसके बाद ही नोटंकी व नाटक के जरिए मनोरंजन हुआ था. सूरजकुंड मेला में फिरोज बहरूपिया दर्शकों का खूब मनोरंजन कर रहे हैं. लेकिन उनके मन में गहरी टीस छिपी हुई है. वे अपनी कला का प्रदर्शन करते वक्त तनिक भी इसका अहसास नहीं होने देते.
 
मुश्किल में है बहरूपिया कलां और कलाकार
मुस्कराते मुखौटे के पीछे भयावह तस्वीर है. असल जिंदगी की कहानी के पीछे उनकी पीढा भी छिपी हुई है. उसे पढना मुश्किल होता है. एक समय था, जब मनोरंजन का यह बहरूपिया मुख्य साधन होता था. हर तीज त्यौहार पर बहरूपिया की कला ही मनोरंजन का एक साधन होता था, लेकिन अब ये गहरे संकट में है. आधुनिकता के इस दौर में अब इनका दायरा सीमिट सा गया है. प्राचीन ग्रंथों में भी बहरूपिया कला का उल्लेख मिलता है.
 
 
फिरोज का कहना है कि यह प्राचीन कला हैं. नट, बाजीगर, कटपूतली सभी को सम्मान मिल चुका है, लेकिन बहरूपिया कला को कभी सम्मान नहीं मिला है. राजस्थान में 10 हजार लोग हैं, हर प्रदेश में बहरूपिया पाया जाता है. सभी को पदम श्री मिल रहा है, किसी को कोई पुरस्कार मिल रहा है. क्योंकि हमारा कोई संगठन नहीं हैं. सरकार हमारा कोई ख्याल नहीं रखती. मेरे पिता अंर्तराष्ट्रीय कलाकार थे. पूरे देश विदेश में उन्होंने 56 देशों की भारत सरकार संस्कृति विभाग की ओर से से यात्रा की थी. लेकिन उनको भी कभी कोई सम्मान नहीं मिला. सरकार से निवेदन है कि सभी को सम्मान मिलता है लेकिन हमें क्यों नहीं मिलता। हमने क्या बिगाड रखा है.
 
महंगाई की मार भी कला पर दिख रही है भारी
आज ये कलाकार अपनी कला को कंधे में लेकर घूमते रहते हैं, खाने के लाले पडे हुए हैं. फिरोज कहते हैं कि भले ही वह अब तक देश व विदेश में अपनी कला का प्रदर्शन कर अपनी अमिट छाप छोड रहे हैं. लेकिन जब बात आती है पेट भरने की तो देश दूनिया में गलियों में कला का प्रदर्शन कर अपने बच्चों का पेट भरने को मजबूर हैं. हम अलग अलग कला का प्रदर्शन कर अपने बच्चों का पालन पोषण कर रहे हैं.
 
हमें हर रोल के लिए गेट अप बदलना पड रहा है. महंगाई के इस दौर में वेशभूषा बदलने में काफी खर्चा होता है, तब जाकर वे जनता का मनोरंजन कर अपना व अपने बच्चों का पेट पालता हैं. समाज के अंदर अब परिवर्तन आ गया है. आधुनिकता के दौर में लोक कलाकारों और कलां को बचाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया है. ऐसे में सरकार व सामाजिक संस्थाओं को चाहिए कि वे इन बहरूपिया कलाकारों को आगे बढाने की दिशा में काम करें.
 
 
अशिक्षा बना अभिशाप
फिरोज कहते हैं कि वे पढे लिखे नहीं. इस कारण वे सोशल मीडिया पर अपनी कला का प्रदर्शन भी कम कर पाते हैं. हालांकि यू ट्यूब पर उनकी कला का प्रदर्शन होता रहता है.
 
रावण व जिन्द की दहाड सुनकर भाग जाते हैं बच्चे
सूरजकुंड परिसर में लगाए गए दीवाली उत्सव मेला के दौरान जब फिरोज अपनी अलग-अलग कला का प्रदर्शन करते हुए मेले में निकलते हैं तो कुछ बच्चे उन्हें देखकर उनकी कला का लुत्फ उठाते हैं, जबकि कुछ बच्चे उनकी वेशभूषा को देख डर जाते हैं। मेले में जब रावण दहाडता है तो छोटे बच्चे अपनी मां की गोद में छिप जाते हैं.