पुण्यतिथि विशेष : इंक़लाबी कैप्टन अब्बास अली, आज़ादी के सिपाही, समाजवादी आंदोलन के नायक

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 11-10-2024
Captain Abbas Ali Death Anniversary: ​​A brave soldier of the Azad Hind Fauj
Captain Abbas Ali Death Anniversary: ​​A brave soldier of the Azad Hind Fauj

 

ज़ाहिद ख़ान

कैप्टन अब्बास अली आज़ाद हिंद फ़ौज के एक ऐसे जुझारू सेनानी थे, जिन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की लीडरशिप में मुल्क की आज़ादी के लिए संघर्ष किया, तो आज़ादी के बाद भी उनकी ये जद्दोजहद ख़त्म नहीं हुई. आज़ाद हिंदुस्तान में अपने इंक़लाबी ख़यालात और आंदोलनकारी मिज़ाज की वजह से उन्होंने कई मर्तबा जन आंदोलनों में शिरकत की और उसके एवज में पचास से ज़्यादा बार जेल गए. आज़ाद हिंद फ़ौज के इस जांबाज सिपाही की अपने मुल्क के जानिब मोहब्बत आख़िर तक क़ायम रही.

समाज में ग़ैरबराबरी, भ्रष्टाचार, ज़ुल्म, ज़्यादती और फ़िरक़ा—परस्ती के ख़िलाफ़ उन्होंने हर दम अपनी आवाज़ बुलंद की. अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग का मोर्चा हो या फिर विपक्षी पार्टियों के ख़िलाफ़ संघर्ष का मोर्चा, वे हर वक़्त इंक़लाबी की ही भूमिका में रहे. जरा सी सुविधाओं की ख़ातिर उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया.

3जनवरी, 1920को उत्तर प्रदेश के कलंदर गढ़ी, ख़ुर्जा, जिला बुलंदशहर में जन्मे कप्तान अब्बास अली की बचपन से ही अपने मुल्क को आज़ाद और ख़ुशहाल देखने की तमन्ना थी. उनके दिल में इंक़लाबी ख़यालात   के बीज बचपन में ही पड़ गए थे.

साल 1931में जब वे पांचवी जमआत के स्टूडेंट थे, 23मार्च को अँग्रेज़ हुकूमत ने क्रांतिकारी भगत सिंह को लाहौर में फांसी की सज़ा दे दी. उनकी फांसी के एहतिजाज में पूरे मुल्क में जुलूस निकाले गए और सरकार के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन हुए. अब्बास अली के छोटे से कस्बे में भी उस वक़्त एक जुलूस निकाला गया, जिसमें वे शामिल हुए. बचपन में पेश आए इस वाक़िआत का ही असर था कि कुछ दिन बाद वे ‘नौजवान भारत सभा’ से जुड़ गए.

साल 1936-37में उन्होंने हाई स्कूल का इम्तिहान पास किया. बाद में आला तालीम के वास्ते अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिल हुए. जहां उनका सम्पर्क उस दौर के मशहूर कम्युनिस्ट लीडर कुंवर मुहम्मद अशरफ़ से हुआ.

डॉ. अशरफ़ उस समय ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के मेंबर होने के साथ-साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के भी मेम्बर थे. डॉक्टर अशरफ़, अलीगढ़ में ‘स्टडी सर्कल’ चलाते थे और आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के भी सरपरस्त थे. उन्हीं से मुतास्सिर होकर अब्बास अली स्टूडेंट फेडरेशन के मेंबर बने और स्टूडेंट सियासत में सक्रिय तौर पर हिस्सा लिया.

साल 1939में उन्होंने इंटरमीडिएट इम्तिहान पास कर लिया. यह वह दौर था, जब पूरी दुनिया में दूसरी आलमी जंग छिड़ी हुई थी. डॉक्टर अशरफ़ की सलाह पर अब्बास अली बर्तानवी सेना में भर्ती हो गए. आलमी जंग के दौरान साल 1943में मलाया में जापानी सेना ने ब्रिटिश सेना पर फ़तह हासिल की. हारी हुई बटालियन में कैप्टन अब्बास अली भी शामिल थे.

दीगर सैनिकों के साथ अब्बास अली को भी जापानी सेना ने युद्ध बंदी बना लिया. जापान से अंग्रेज़ सेना की शिकस्त के बाद, दक्षिण-पूर्व एशिया में जनरल मोहन सिंह के नेतृत्व में आजाद हिंद फ़ौज का गठन हुआ. आज़ाद हिंद फ़ौज की स्थापना होते ही अंग्रेज़ी सेना में अभी तक रहे हज़ारों हिंदुस्तानी फ़ौजियों के साथ, कैप्टन अब्बास अली भी आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो गए.

आगे चलकर उन्होंने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में देश की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी. अराकान में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उन्होंने मोर्चा लिया, जब वे मणिपुर पहुँचने वाले थे, जापान ने सरेंडर कर दिया. 1945में जापान की हार के बाद, एक बार फिर वे युद्ध बंदी बना लिए गए. लेकिन इस बार वे ब्रिटिश सेना के मुजरिम थे. चालीस हज़ार से ज़्यादा आज़ाद हिंद सेनानियों के साथ कैप्टन अब्बास अली पर भी मुक़दमा चलाया गया.

मुल्तान के क़िले में वे क़ैद रहे.  साल 1946में उनका कोर्ट मार्शल हुआ और अदालत ने उन्हें सज़ा-ए-मौत सुनायी. लेकिन इस फ़ैसले पर अमल होने से पहले, मुल्क में एक ऐसा तूफ़ानी घटनाक्रम घटा कि अंग्रेज़ हुकूमत को गिरफ़्तार किए गए हज़ारों आज़ाद हिंद सेनानियों को रिहा करना पड़ा.

यह घटनाक्रम था, आज़ाद हिंद फ़ौज के ऊपर लाल क़िले में चला ऐतिहासिक मुक़दमा. जहां 'लाल क़िला ट्रायल' का  फ़ैसला आज़ाद हिंद फ़ौज सेनानियों के हक़ में हुआ, वहीं इसके अलावा पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी अस्थायी सरकार का भी इसमें अहम रोल था. सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज़ के अलावा आज़ाद हिन्द फ़ौज के अनेक फ़ौजी जो जगह-जगह गिरफ़्तार हुये थे और जिन पर सैकड़ों मुक़दमें चल रहे थे, वे सभी रिहा हो गये. ज़ाहिर है कैप्टन अब्बास अली भी जेल से रिहा कर दिए गए.

मुल्क की आज़ादी के बाद कैप्टन अब्बास अली ख़ामोश नहीं बैठ गए. अपने सिद्धांतों और विचारधारा के मुताबिक वे साल 1948में आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और डा. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए.

पार्टी में वे कई अहम पदों पर रहे. साल 1960में उन्हें सोशलिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य कार्यकारणी का सदस्य चुना गया. साल 1966में जब संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनी, तो वे उसके पहले राज्य सचिव चुने गए. कैप्टन अब्बास अली ने साल 1967में उत्तर प्रदेश में पहले संयुक्त विधायक दल और फिर चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में बनी पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार के गठन करने में भी अहम भूमिका निभायी.

साल 1971के लोकसभा चुनावों के दौरान उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ रायबरेली से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजनारायण का जमकर चुनाव प्रचार किया. यही नहीं आगे चलकर साल 1974में जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने देश भर में सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन शुरू किया, तो इस आंदोलन में भी कैप्टन अब्बास अली ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.

उस वक़्त उत्तर प्रदेश में उन्होंने जयप्रकाश नारायण की कई जन सभाएं करवाईं. उनकी भाग-दौड़ और मेहनत का ही नतीजा था कि उस वक़्त बुलंदशहर जैसे छोटे शहर में भी जेपी की दो विशाल आम सभायें हुईं.

12जून, 1975को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ इलाहबाद हाई कोर्ट का फ़ैसला आने के बाद, इंदिरा गांधी ने 26जून 1975को सारे देश में आपातकाल घोषित कर दिया. अब्बास अली के ख़िलाफ़ भी वारंट जारी किया गया और सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया. साल 1975से लेकर 1977तक वे पूरे अठारह महीने बुलंदशहर, बरेली और इलाहाबाद की नैनी सेन्ट्रल जेल में मीसा के तहत बंदी रहे. आपातकाल के ख़ात्मे के बाद मार्च, 1977में लोकसभा चुनाव हुए.

इस चुनाव में जनता पार्टी को भारी विजय मिली. इस जीत के इनाम में अब्बास अली को उत्तर प्रदेश जनता पार्टी के पहले प्रदेश अध्यक्ष का ओहदा मिला. आगे चलकर वे साल 1978में छह सालों के लिए विधान परिषद् के लिए निर्वाचित हुए.

कैप्टन अब्बास अली अपने आख़िरी समय तक सोशलिस्ट रहे. कोई दूसरी विचारधारा उन्हें कभी प्रभावित नहीं कर पाई. राजकमल प्रकाशन द्वारा साल 2009में प्रकाशित कैप्टन अब्बास अली की आत्मकथा ‘न रहूँ किसी का दस्तनिगर’ में उनकी रोमांचक जीवन यात्रा का ब्यौरा मिलता है.

 कैप्टन अब्बास अली, आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेने को हमेशा फ़ख्र का मौज़ूअ मानते थे. यही वजह है कि आज़ाद हिंद सेनानियों को जब सरकार ने पेंशन देने का एलान किया, तो उन्होंने उसे यह कहकर ठुकरा दिया कि ‘‘वे पेंशन के लिए जंग—ए—आज़ादी में शामिल नहीं हुए थे.’

’ सत्ता से कैप्टन अब्बास अली का संघर्ष ज़िंदगी के आख़िरी समय तक चला. उनके तसव्वुर में एक ऐसा भारत था जहां जात-बिरादरी, मज़हब, लिंग, ज़बान और नस्ल के नाम पर एक-दूसरे के बीच किसी तरह का भेद और शोषण न हो.

जहाँ हर हिंदुस्तानी अपना सर ऊंचा करके चल सके, जहाँ अमीर-ग़रीब के नाम पर कोई भेद-भाव न हो. अपने इस ख़्वाब की ख़ातिर कैप्टन अब्बास अली अपनी ज़िंदगी के आख़िरी समय तक सक्रिय रहे. 11 अक्टूबर, 2014 को 94 साल की लंबी उम्र में उन्होंने इस जहान—ए—फ़ानी से अपनी रुख़्सती ली. आज़ाद हिंद फ़ौज का यह जुझारू सेनानी अपनी अदम्य जिजीविषा और अथक संघर्ष के चलते हमेशा देशवासियों के दिलों में ज़िंदा रहेगा.