'Budhwa Mangal' is celebrated in Kashi after Holi, Shivanagari is filled with songs, gulal and happiness
वाराणसी
होली की खुमारी अब भी छाई हुई है. शिवनगरी काशी में रंगोत्सव का समापन भी खास अंदाज में होता है. जी हां! बनारसियों ने इसे नाम दिया है ‘बुढ़वा मंगल’! होली के बाद पड़ने वाले पहले मंगलवार को ही काशीवासियों ने ये नाम दिया है. उस दिन काशी में गीत, गुलाल और खुशियों के साथ अनोखा जश्न मनाया जाता है.
काशी के रहने वाले प्रभुनाथ त्रिपाठी ने ‘बुढ़वा मंगल’ के बारे में विस्तार से जानकारी दी. उन्होंने बताया, “बनारसियों पर होली के बाद आने वाले मंगलवार तक खुमारी छाई रहती है. मंगलवार को ‘बुढ़वा मंगल’ के साथ इसका समापन होता है. बुढ़वा मंगल की परंपरा सालों पुरानी है और इस परंपरा को बनारस आज भी संजोए हुए है. वाराणसी में इस त्योहार को लोग होली के समापन के रूप में भी मनाते हैं जहां होली की मस्ती के बाद बनारसी जोश के साथ अपने पुराने काम के ढर्रे पर लौट जाते हैं.”
मंगलवार को बनारस के कई घाटों पर इस परंपरा का निर्वहन होता है. दशाश्वमेध घाट से अस्सी घाट तक बुढ़वा मंगल की खुमारी में लोग डूबते उतराते दिखते हैं. गंगा नदी में खड़े बजड़े में लोकगायक अपनी प्रस्तुति देते हैं. इसमें बनारस और आस पास के जिलों के कई लोकगायक और कलाकार शामिल होते हैं. बनारसी घराने की होरी, चैती, ठुमरी से शाम और सुरीली हो उठती है.
कलाकारों के कमाल की प्रस्तुति को देखने के लिए आम जन बड़ी संख्या में जुटते हैं. देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी सैलानी बनारस की बुढ़वा मंगल की परंपरा का लुत्फ उठाते नजर आते हैं. बुढ़वा मंगल केवल गीत संगीत ही नहीं बल्कि खान-पान, गुलाल और पहनावे का भी जश्न है! इस दिन बनारसी नए कपड़े पहनकर पहुंचते हैं. कुल्हड़ में ठंडाई और बनारसी मिठाई का भी स्वाद उठाते हैं.
वर्षों से इस रंगारंग कार्यक्रम के गवाह बनते आ रहे मंगरू यादव ने बताया, " होली के बाद तो हम लोगों को बुढ़वा मंगल का इंतजार रहता है. इस दिन घरों में भी पकवान बनता है और दोस्तों और परिवार में होली मिलने जाने का अंतिम दिन होता है. इस दिन के बाद घरों से गुलाल-अबीर को अगले साल होली आने तक के लिए रोक दिया जाता है. घाट पर जाकर लोकगीत और त्योहार के रंग को सेलिब्रेट करते हैं.