राकेश चौरासिया / नई दिल्ली-मऊ
मधुबन गांव की रामलीला एक सदी से अधिक पुरानी है. यह इस बार भी अपनी भव्यता के साथ शुरू होने जा रही है. गुरुवार की शाम महावीरी जुलूस के साथ इसका शुभारंभ होगा और अगले 12 दिनों तक गांव भक्ति और उत्सव के रंग में डूबा रहेगा. लेकिन यह रामलीला सिर्फ धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि हिन्दू-मुस्लिम एकता की अद्भुत मिसाल भी है, जिसकी नींव एक मुस्लिम व्यक्ति, ख्वाजा शफीर अहमद उर्फ बलाती मियां ने रखी थी.
भास्कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, गांव के वरिष्ठ नागरिक बताते हैं कि बलाती मियां एक मंझे हुए रंगकर्मी थे. उन्होंने मुंबई, कोलकाता और रंगून जैसे बड़े शहरों के रंगमंच पर अपनी कला का लोहा मनवाया था. लेकिन उनके दिल में अपने गांव के लिए कुछ खास करने का जज्बा था, जो उन्हें मधुबन वापस ले आया. यहां उन्होंने रामलीला की शुरुआत की और इसे हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक बना दिया. उनकी इस पहल ने गाँव की गंगा-जमुनी तहजीब को एक नया आयाम दिया.
गांव की सांस्कृतिक धरोहर
मधुबन की रामलीला केवल धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह गांव की सांस्कृतिक धरोहर बन चुकी है. बलाती मियां द्वारा शुरू की गई इस परंपरा को उनकी अगली पीढ़ी ने न सिर्फ संभाला, बल्कि इसे और सशक्त किया. गांव के कई प्रमुख लोगों ने इस रामलीला में अपनी भागीदारी से इसे समृद्ध किया है, जिनमें दीपचंद प्रसाद, गंगा प्रसाद, रामधनी, जमुना प्रसाद और गणेश प्रसाद जैसे नाम प्रमुख हैं.
तीसरी और चौथी पीढ़ी की भागीदारी
रामलीला मंचन की तीसरी पीढ़ी के कलाकारों ने इस परंपरा को और मजबूत किया. श्रीराम राजभर, श्रीकृष्णा गुप्त, हनुमान प्रसाद शर्मा और विनय लाल श्रीवास्तव जैसे कलाकारों ने अपनी अद्वितीय अदाकारी से रामलीला को एक नई पहचान दी. आज चौथी पीढ़ी के कलाकार, जैसे सतीश चंद्रगुप्त, तेज प्रताप, सोनू मद्धेशिया और पिंटू यादव, इस परंपरा को जीवंत बनाए रखने में अपनी पूरी भूमिका निभा रहे हैं.
बलाती मियां का योगदान
बलाती मियां के पुत्र सैयद नसीर अहमद उर्फ सज्जन के अनुसार, उनके पिता की मृत्यु 11 नवंबर 1972 को 88 वर्ष की उम्र में गोरखपुर में हुई थी. जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने मुंबई में बसने के बाद गोरखपुर को ही अपना स्थायी निवास बना लिया था.
रामलीला का भविष्य और नई पीढ़ी की जिम्मेदारी
वर्तमान में राष्ट्रीय श्री रामलीला समिति के अध्यक्ष हीरालाल यादव हैं और अब रामलीला की पूरी जिम्मेदारी गांव के युवाओं के कंधों पर है. यह रामलीला केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही एक सांस्कृतिक परंपरा का प्रतीक है, जो हिन्दू-मुस्लिम एकता के संदेश को हर वर्ष और मजबूत कर रही है.
मधुबन की इस रामलीला की कहानी भारतीय संस्कृति में सद्भाव और समरसता की अद्भुत मिसाल है.