फिल्म द केरला स्टोरी की रिलीज के बाद से, सोशल मीडिया केरल राज्य से सांप्रदायिक सद्भाव और एकता की कहानियों से भर गया है. श्रीधरन एक साल से भी कम उम्र के थे, जब उन्हें मलप्पुरम के नीलांबुर के कलिकावु गांव की एक धर्मपरायण मुस्लिम महिला थेनादन सुबैदा ने गोद लिया था. उन्होंने उन्हें अपने यहां पाला और उन्होंने उन्हें इस्लाम में लाने से इनकार कर दिया. श्रीधरन ने सुबैदा की एक तस्वीर के साथ एक फेसबुक पोस्ट साझा किया और उन्हें ‘भगवान का एक अपूरणीय उपहार‘ बताया. सुबैदा का जून 2019में निधन हो गया था.
दो अलग-अलग पीढ़ियों से एक हिंदू पुरुष और एक मुस्लिम महिला के बीच यह पवित्र बंधन क्या है, कोई सोच सकता है. इसका उत्तर मातृ प्रेम और दया की दिल को छू लेने वाली कहानी और इस दृढ़ समझ में निहित है कि धर्म किसी व्यक्ति को परिभाषित नहीं करता है.
श्रीधरन की माँ चक्की, दरअसल, सुबैदा के घर में एक घरेलू नौकर की तुलना में अधिक दोस्त थी. माँ चक्की की आकस्मिक मृत्यु के बाद, सुबैदा उनके बच्चे श्रीधरन और उसकी बहनों रमानी और लीला को बिना माँ के बड़े होते हुए नहीं देख सकती थीं. उनके पति अब्दुल अजीज हाजी को भी उनके फैसले पर कोई आपत्ति नहीं थी, इसलिए वह तीनों बच्चों को घर ले आईं, जहाँ उन्होंने उनका पालन-पोषण करना शुरू किया.
सुबैदा और अजीज हाजी के उस समय पहले ही दो जैविक पुत्र थे शानावास और जाफर और वह आने वाले वर्षों में एक बेटी को जन्म देने वाली थीं. लेकिन इन बातोंने इस दंपति को श्रीधरन और उनकी बहनों को अपने बच्चों के रूप में पालने से नहीं रोका, जो अब भी उन्हें उम्मा और उप्पा (मलयालम में क्रमशः माता और पिता के लिए शब्द, जो आमतौर पर मुसलमानों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है) के रूप में संदर्भित करते हैं.
सुबैदा के निधन की खबर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर साझा करने के बाद श्रीधरन ने अपनी पहचान और इरादों के बारे में सवालों का सामना करते हुए एक बार फेसबुक पर लिखा था, “जब मैंने अपनी उम्मा के निधन की खबर साझा की, तो आप में से कुछ को संदेह हुआ. यहां तक कि जब मैंने तकिया पहने हुए अपनी एक तस्वीर पोस्ट की थी, तब भी संदेह था कि क्या किसी मुस्लिम व्यक्ति का नाम श्रीधरन हो सकता है. जब मैं लगभग एक वर्ष का था, तब मेरी माँ की मृत्यु हो गई. मेरी दो बहनें हैं. मेरे एक पिता भी थे. जिस दिन मेरी माँ की मृत्यु हुई, उसी दिन यह उम्मा और उप्पा हमें अपने घर ले आए. उन्होंने हमें वैसे ही शिक्षा दी, जैसे उन्होंने अपने बच्चों को दी. जब मेरी बहनें विवाह योग्य उम्र पर पहुंचीं, तो उप्पा और उम्मा ने ही उनका विवाह किया. उनके खुद के बच्चे होने के बावजूद वे हमें अपने घर ले आईं. उनके तीन बच्चे थे. भले ही उन्होंने हमें छोटी उम्र में गोद ले लिया था, लेकिन उन्होंने हमें अपने धर्म में बदलने की कोशिश नहीं की. लोगों का कहना है कि गोद लेने वाली मां कभी भी अपनी जैविक मां जैसी नहीं सकती है. लेकिन वह हमारे लिए कभी भी ‘दत्तक मां’ नहीं थीं, वह वास्तव में हमारी मां थीं.”
श्रीधरन अपने उप्पा अब्दुल अजीज हाजी के साथ
श्रीधरन ने बाद में टीएनएम को बताया कि उन्होंने एक बार अपने दत्तक माता-पिता से पूछा था कि वे उन्हें इस्लाम में क्यों नहीं लाते. उन्होंने कहा, ‘‘उनकी पहली प्रतिक्रिया चिंता थी. उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या किसी ने मुझे कुछ बुरा कहा है. जब मैंने उन्हें आश्वस्त किया, नहीं, तो उन्होंने मुझे समझाया कि हमें धर्म को किसी को परिभाषित नहीं करने देना चाहिए. उन्होंने कहा कि सभी धर्म अनिवार्य रूप से एक ही बात का प्रचार कर रहे हैं - लोगों से प्यार करना और उनकी मदद करना और यह इंसान ही है, जो इन शिक्षाओं की गलत व्याख्या करता है.’’
इस परिवार की दिल को छू लेने वाली कहानी को हाल ही में एन्नु स्वंतम श्रीधरन (विद लव श्रीधरन) नाम से एक फिल्म में रूपांतरित की गई थी. निर्देशक सिद्दीक परवूर ने टीएनएम को बताया कि उन्होंने यह फिल्म उनकी कहानी पर अधिक लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बनाई है और उन्हें यह बताने के लिए कि ऐसे भी लोग हैं, जो धर्म और पूर्वाग्रहों से ऊपर प्रेम और दया को महत्व देते हैं. उन्होंने कहा, ‘‘लोग स्वाभाविक रूप से अच्छे हैं. लेकिन कभी-कभी हमें उनकी अच्छाई याद दिलाने के लिए ऐसी कहानियों की जरूरत होती है. सुबैदा को याद किया जाना चाहिए और उनकी कहानी को बार-बार बताया जाना चाहिए.’’