सेराज अनवर / पटना
आज ही के दिन प्रोफेसर अब्दुल बारी की गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी.बिहार के महान सपूत स्वतंत्रता संग्राम के कद्दावर नेता अब्दुल बारी उन हस्तियों में से एक हैं, जिन्होंने देश की खातिर खुद को कुर्बान कर दिया था. आज उस अजीम शख्सियत का शहादत दिवस है.
पटना के फतुहा में 28 मार्च, 1947 को गोली मार कर उनकी हत्या कर दी गयी थी. आज हिंदू-मुस्लिम एकता के नायक राजधानी स्थित पीरमोहानी कब्रिस्तान में सोया है. मगर उन्हें याद करने की किसी को लम्हा भर भी फुर्सत नहीं है.
कहते हैं कि पटना शहर समेत मगध का पुरा इलाका सांप्रदायिक दंगे की आग में झुलस रहा था. सिर्फ आठ दिन के अंदर तकरीबन हजारों लोग कत्ल कर दिए गए थे.
दंगे पर काबू पाने की कहीं से सूरत नजर नहीं आ रही थी. अब्दुल बारी ही वो शख्स थे, जिनके एक आह्वान पर अक्तूबर 1946 को पूरा पटना शहर जलने से बच गया.
मगर बदकिस्मती से दंगे की आग में जलने से बचाने वाला शख्स को शहीद कर दिया गया. आज तक इस बात से पर्दा नहीं उठ सका कि उनके कत्ल की असल वजह क्या थी? और जिम्मेदार कौन है?
अब्दुल बारी की शहादत के बाद बिहार में फिर दंगा भड़का, तो गांधीजी के कहने पर जवाहर लाल नेहरू ने बिहार का दौरा किया और अनुग्रह नारायण सिंह के साथ नेहरू तीन दिनों तक पैदल मार्च कर लोगों से शांति बनाये रखने की अपील करते रहे.
प्रोफेसर अब्दुल बारी 1892 को बिहार के जिला भोजपुर के गांव शाहबाद मे पैदा हुए. पिता का नाम मोहम्मद कुरबान अली था. पटना कॉलेज और पटना युनिवर्सटी से आर्ट्स में मास्टर डिग्री की हासिल की. 1917 में महात्मा गांधी के साथ इनकी पहली मुलाकात हुई. जब मौलामा मजहरुल हक बापू की मेजबानी पटना में कर रहे थे. इन्होंने रॉलेक्ट एैक्ट का जमकर विरोध किया था. वहीं खिलाफत तहरीक और असहयोग आंदोलन में हिस्सा भी लिया.
अब्दुल बारी ने 1921 से 1942. के दौरान स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाने के लिए बिहार, उड़ीसा, बंगाल के मजदूरों को एकजुट करने और उन्हे एक बैनर तले लाने में महती भूमिका निभायी.
अब्दुल बारी की जीवनी को उल्लिखित करने वाले उमर अशरफ कहते हैं कि प्रोफेसर अब्दुल बारी कांग्रेसी भी थे और साम्यवादी भी. मगर दोनों धाराओं ने उन्हें फरामोश कर दिया. मुसलमानों ने भी उनकी कद्र नहीं की. जबकि उनकी सामाजिक और सियासी पहुंच का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी नमाज-ए-जनाजा में महात्मा गांधी जैसे कद्दावर लोग शरीक हुए थे.
1920-22 में हुए खिलाफत और असहयोग आंदोलन के समय डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रहण नारायण सिंह, श्रीकृष्ण सिंह जैसे कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के साथ कंधे से कंधे मिला कर अब्दुल बारी ने बिहार में इंकलाब बरपा कर दिया.
मौलाना मजहरूल हक बिहार विद्यापीठ के पहले चांसलर थे, तो उनके साथ इसी शिक्षण संस्थान में अब्दुल बारी प्रोफेसर की हैसियत से नियुक्त किये गये. वहीं ब्रजकिशोर प्रसाद वाइस-चांसलर और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद प्रधानाचार्य बनाए गए.
1937 में बिहार विधान सभा के सदस्य रहे प्रोफेसर अब्दुल बारी 1940 के दशक में बिहार के सबसे बड़े कांग्रेसी और मजदुर नेता थे. 1937 के 152 सदस्यीय सदन में 40 सीटें मुस्लिमों के लिए आरक्षित थीं, जिनमें 20 सीटों पर ‘मुस्लिम इंडीपेंडेंट पार्टी’ और पांच सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी. अब्दुल बारी कांग्रेस के टिकट पर चंपारन से जीत कर आये थे.
शुरू में कांग्रेस पार्टी ने सरकार बनाने से इंकार कर दिया, तो राज्यपाल ने दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता के रूप में बैरिस्टर मो. यूनुस को प्रधानमंत्री (प्रीमियर) पद का शपथ दिलायी, लेकिन चार महीने बाद जब कांग्रेस मंत्रिमंडल के गठन पर सहमत हो गई, तो यूनुस ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. 1937 में बिहार मे पहली बार कांग्रेस की हुकूमत वजूद में आई, तो अब्दुल बारी इस सरकार में असेंबली के उपसभापति बनाये गये थे.
1937 से 1947 तक अब्दुल बारी टिस्को (टाटा स्टील) वर्कर्स यूनियन के अध्यक्ष के तौर पर रहे. टिस्को (टाटा स्टील) की तारीख में पहला समझौता 1937 मे अब्दुल बारी की ही अगुआई में हुआ.
टिस्को में मजदूरों के संगठन का नाम पहले लेबर एसोसिएशन था. ट्रेड यूनियन एक्ट बनने के बाद अब्दुल बारी के कार्यकाल में इसका नामकरण टाटा वर्कर्स यूनियन किया गया था. पांच मजदूरों पर गोली चलने के बाद 1920 में लेबर एसोसिएशन बनी थी.
नेता जी सुभाष चंद्र बोस जो उस वक्त जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन के अध्यक्ष थे, की दरख्वास्त पर अब्दुल बारी ने जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन का नेतृत्व करने का फैसला किया. बाद में अब्दुल बारी ने लेबर एसोसिएशन का भारतीय कानून के तहत मजदूर यूनियन के रूप में परिवर्तित कर दिया.
वे 1946 में बिहार प्रदेश कमेटी के अध्यक्ष नियुक्त किये गये. अब्दुल बारी ने बिहार-बंगाल-उड़ीसा में मजदुर आंदोलन को एक नई पहचान दी.
उनके नाम पर झारखंड जमशेदपुर के साक्ची में मैदान है. गोलमुरी जमशेदपुर में अब्दुल बारी मेमोरियल कालेज खोला गया है. बंगाल के बरनपुर आसनसोल में बारी मैदान है. बिहार के जहानाबाद में अब्दुल बारी टाऊन हाल है. पटना में प्रोफेसर अब्दुल बारी टेकनिकल सेंटर है और पटना में प्रोफेसर अब्दुल बारी पथ है.
कहते तो यह भी हैं कि उन्नीसवीं सदी में बना आरा स्थित कोईलवर पुल भी प्रोफेसर अब्दुल बारी के नाम पर रखा गया था, पर इस नाम से इसे कोई नहीं जानता. जिस शख्स की इतनी बड़ी कुर्बानी है, आज उनके शहादत दिवस पर उन्हें कोई याद करने वाला भी नहीं.
पत्रकार अनवारुल होदा कहते हैं कि इतिहास के नायकों के योगदान को भुला देना या नजरअंदाज कर देना भविष्य के लिए घातक है. अपने-अपने क्षेत्रों के बुजुर्गों, स्वतत्रंता सेनानी, लेखक, शिक्षाविदों के बारे में लिखना चाहिए, उन्हें याद करना चाहिये. क्योंकि ”जो कौम अपनी तवारीख भूलती है, उसे दुनिया भुला देती है.”
अब्दुल बारी की शख्सयत को ऐसे जानें कि उनकी हत्या पर संवेदना व्यक्त करते हुए गांधी ने लिखा था, “अब्दुल बारी एक ईमानदार इंसान थे, पर साथ में बहुत ही जिद्दी थे.”
आवाज-द वॉयस आज उन्हें खिराज-ए-अकीदत के साथ उस महान सपूत को सलाम पेश करता है.