चहार बैत लोकगीत का क्या कनेक्शन है रोहिलखंड, रामपुर और अफगानिस्तान से

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 12-06-2024
Chaharbait: How did the Pathani Raga in Rampur change its form from Pashto to Hindi-Urdu?
Chaharbait: How did the Pathani Raga in Rampur change its form from Pashto to Hindi-Urdu?

 

एस. नवेद कैसर

अठारहवीं शताब्दी में, जब अफगानिस्तान से रोहेला पठान भारत के भीतर कुछ युद्धरत गुटों के समर्थन में भाग लेने के लिए सैन्य अभियानों के लिए रोहिलखंड क्षेत्र में आए, तो वे अपने साथ चहारबैत नामक एक विशेष लोकगीत लेकर आए. चहारबैत (या चारबैत) को पश्तो भाषा में "चारबैतो" या "शरवेह" या उर्दू में पठानी राग भी कहा जाता है. यह एक विशेष प्रकार का लोकगीत है जो आज भी दिल्ली से लगभग 185किलोमीटर दूर रामपुर जिले में प्रचलित और लोकप्रिय है, जहाँ पठानों की संख्या काफी है.

अफगानिस्तान का लोकप्रिय लोकगीत चार चरणों वाला छंद है जिसके पहले तीन चरणों में समान तुकें होती हैं और चौथे चरण की तुक अलग होती है और जिसे अरबी और पश्तो भाषा में "बैत" कहा जाता है. इन गीतों का विषय युद्ध, बहादुरी, रोमांस और कभी-कभी आध्यात्मिकता होता था.

उर्दू भाषा में बैत के स्थान पर "बंद" शब्द का प्रयोग किया जाता है. चारबैत के उस समूह का नाम "चारबैत" है जिसमें प्रत्येक बैत का अंतिम चरण तुक की दृष्टि से आरंभिक ध्रुव रेखा अर्थात सिरा के समान होता है.

चारबैत की पहली दो पंक्तियों को मतला कहते हैं, गाते समय गायक इन दो पंक्तियों अर्थात मतला को सिरा कहते हैं. जिसकी धुन समान होती है. इसके बाद चार-चार पंक्तियों के चार या पाँच छंद होते हैं. प्रत्येक पद का पहला दूसरा; और तीसरी पंक्ति उन्हीं स्वरों में रची जाती है, अर्थात उसी धुन में होती है. चौथी पंक्ति "मत" अर्थात पहली दो पंक्तियों के समान धुन में गाई जाती है.

रामपुर रियासत में चहारबैत का आगमन

रामपुर रियासत के प्रथम नवाब फैजुल्लाह खान के शासनकाल (1774-94ई.) में मुस्तकीम खान के पुत्र अब्दुल करीम खान, जिन्हें विशेष दर्जा प्राप्त था, अपने कुछ रिश्तेदारों के अनुरोध पर अफगानिस्तान से रामपुर आए और चहारबैत की स्थापना की.

उन्होंने एक अखाड़ा (गायन क्लब) बनाकर अपने सैकड़ों शार्गिदों (शिष्यों) को चहारबैत की औपचारिक शिक्षा देनी शुरू की, जिनमें से छह शार्गिदों को खलीफा बनाया गया. अधिकांश शिष्य स्वयं कवि थे, जिनमें जान मुहम्मद खान, गुलबाज खान उर्फ ​​गुल खान, करीम उल्लाह खान "निहंग", नजफ खान "नजफ", उस्ताद महबूब अली खान "महबूब" और उस्ताद किफायत उल्लाह खान "किफायत" आदि शामिल थे. अन्य साथियों में अब्दु नूर "हविस" और जालंधर आदि शामिल थे जो चहारबैत के कवि थे.

मेहनतकश पश्तून लोग दिन भर खेतों में हल चलाते थे और रात को किसी जगह पर इकट्ठा होकर खबरों का आदान-प्रदान करते थे और गपशप करके दिल खुश करते थे. रात के अंधेरे में चहारबैत गाए जाते थे और यह मनोरंजन का एक लोकप्रिय साधन बन गया.

चारबैत के गायकों को रामपुर के नवाब के दरबार में सम्मान दिया जाता था. रामपुर के नवाब कल्बे अली खान इस गायन शैली के संरक्षक बन गए. उन्होंने चारबैत-गायन को प्रोत्साहित किया और उनके कहने पर नवाब द्वारा हर साल (1865ई. से) रामपुर राज्य के बाग बेनजीर में मेला बेनजीर नामक एक उत्सव का आयोजन किया जाने लगा, जिसमें एक सप्ताह तक चारबैत के जुलूस निकाले जाते थे. रामपुर के आखिरी नवाब रजा अली खान ने भी चारबैत गायकों को आश्रय और प्रोत्साहन दिया.

उन्होंने हिंदी और हिंदी-उर्दू मिश्रित चारबैत भी रची. आकाशवाणी से चारबैत के कार्यक्रम प्रसारित किए जाते थे. रामपुर जिले में हर साल आयोजित होने वाली वार्षिक प्रदर्शनी "नुमाइश" में "चारबैत का जलसा" एक नियमित कार्यक्रम हुआ करता था. पठानों की मूल भाषा पश्तो थी,लेकिन दूसरी पीढ़ी तक आते-आते उनकी भाषा उर्दू हो गई. चारबैत की भाषा भी हिंदी-उर्दू मिश्रित है. चहारबैत में अपनी विशेषज्ञता के लिए मशहूर अब्दुल करीम खान साहब ने अपने शिष्यों को गायन की कला सिखाई. पहले वे पश्तो और फारसी भाषा में चरबैत गाते थे, लेकिन बाद में उन्होंने उर्दू "चरबैत" गाना शुरू कर दिया.

उनके शिष्यों में किफ़ायतुल्लाह खान, नजफ़ खान "नजफ़", करीमुल्लाह खान "नहंग", गुलबाज़ खान और जान मुहम्मद खान आदि प्रसिद्ध हैं. अब्दुल करीम खान और उनके शिष्यों ने न केवल रामपुर में, बल्कि रोहिलखंड क्षेत्र के अन्य शहरों, मुरादाबाद, अमरोहा और चांदपुर के अलावा भारत के टोंक (राजस्थान), जौरा और भोपाल (मध्य प्रदेश) जैसे शहरों में भी चरबैत का प्रचार किया. इसके अलावा, वे उपर्युक्त स्थानों में भी बहुत लोकप्रिय हुए.

भारत में चारबैत के प्रवर्तक मुस्तकीम खान के पुत्र अब्दुल करीम खान एक प्रसिद्ध गायक थे. अब्दुल करीम खान द्वारा रोपे गए चरबैत के पौधे रामपुर में खूब फले-फूले और इस गायन शैली में गुरु-परंपरा की शुरुआत हुई. चारबैत के विषय धार्मिक, नैतिक, राष्ट्रीय, जातीय, प्रेम, ऋतुएँ, त्यौहार, प्राचीन होते हैं.

सूबा-ए-सरहद (सीमांत क्षेत्र) में पश्तो और पंजाबी भाषाओं के मेल से एक तीसरी भाषा का जन्म हुआ, जिसे "हिंदको" कहा जाता है. हिंदको सीमांत क्षेत्र के एक बड़े क्षेत्र में बोली जाती है, जिसमें पेशावर, बन्नू, डेरा इस्माइल खान, मर्दान, कोहाट, नौशहरा कलां, अकोरा, खट्टक, मल्लाही टोला, अटक, छाछ और जिला हजारा का एक बड़ा हिस्सा शामिल है. सोलहवीं शताब्दी में हिंदको में भी चरबैती प्रचलित हो गई.

हिंद को भाषा का अपना एक बड़ा साहित्य है, आज भी अगर पश्तो के अलावा किसी दूसरी भाषा में चरबैत गाई जाती है तो वह हिंदको भाषा ही है. इस परंपरा के गायक आज भी सक्रिय हैं. गायन में इस्तेमाल होने वाले कुछ शब्द निम्नलिखित हैं:

जलसा: चरबैत के आयोजन को जलसा कहते हैं,सीरा: पहली दो पंक्तियाँ जिन्हें मतला भी कहते हैं. बंध: मतला के बाद की चार पंक्तियों को बंध कहते हैं, अखाड़ा: चहारबैत गाने वाले समूह को अखाड़ा कहते हैं, खलीफा: अखाड़े का मुखिया यानी नेतृत्व करने वाला खलीफा कहलाता है, कवि: अखाड़े का एक कवि होता है, जो अखाड़े के लिए चहारबैत लिखता है.

दफ या तंबल: यह एक ऐसा वाद्य है जो एक तरफ से खुला होता है और दूसरी तरफ चमड़े से ढका होता है, जोड़ा: दो अखाड़ों के बीच होने वाली प्रतियोगिता में एक अखाड़ा दूसरे अखाड़े के चहारबैत के साथ जोड़ी बनाता है, अखाड़े का नाम: इसका नाम खलीफा के नाम पर रखा गया है.

(एस. नवेद कैसर रजा लाइब्रेरी रामपुर, उत्तर प्रदेश में कार्यरत विद्वान हैं)