वेबसीरीज दुपहियाः जनहित में जारी सरकारी विज्ञापन जैसी जमीन से कटी सीरीज

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 25-03-2025
Webseries Two Wheeler: A series cut off from the ground like a government advertisement issued in public interest
Webseries Two Wheeler: A series cut off from the ground like a government advertisement issued in public interest

 

-मंजीत ठाकुर

हाल ही में अमेजन प्राइम वीडियो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर वेबसीरीज दुपहिया आई है. दुपहिया मोटे तौर पर पंचायत की लाईन पर बनी है, या ऐसा कहना चाहिए कि पंचायत की प्रेरणा से बनी सीरीज है. बेशक यह सीरीज अपने केंद्रीय विषय दहेज प्रथा को लेकर चलती है. लेकिन साथ में हिंदुस्तानी गांवो (और शहरों में भी) व्याप्त गोरेपन को लेकर जो पूर्वाग्रह और दुराग्रह है उसे लेकर कड़ी टिप्पणी करती है.

बिलाशक इस बेवसीरीज ने दो बेहद बढ़िया और जरूरी विषय उठाए हैं. लेकिन, विषय उठाने तक ही मामला अच्छेपन पर खत्म हो जाता है. एक अच्छे विषय का ट्रीटमेंट इतना सतही है कि लोगों का ध्यान दहेज की बुराई की तरह कम ही जाता है. हां, प्रतिभावान लेकिन रंग से काली लड़की के अहसासे-कमतरी का चित्रण बहुत अच्छे से हुआ है.

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इस बेवसीरीज के साथ बहुत सारे किंतु-परंतु हैं और इस सीरीज का लेखन बेहद कम रिसर्च के साथ हुआ है. लेखक और क्रिएटिव टीम के लोग ऐसा प्रतीत होता है कि कभी बिहार गए नहीं हैं. पहली बात, बनवारी झा (गजराज राव) की बेटी रोशनी झा (शिवांगी रघुवंशी) की शादी कुबेर प्रसाद से हो रही है.

चौबीस साल से अपराधमुक्त गांव इतना पिछड़ा है कि मोटरसाइकिल को दुपहिया कहता है. चलिए, मान लेते हैं. लेकिन अगर इतना पिछड़ा है तो लेखक को यह पता होना चाहिए कि दहेज प्रथा को जी-जान से अपनाने वाले गांव में किसी ‘प्रसाद’ लड़के की शादी किसी ‘झा’ लड़की से नहीं हो सकती.

हालांकि, विकिपेडिया में दी गई जानकारी के मुताबिक, इस सीरीज में दूल्हे का नाम कुबेर त्रिपाठी है. तो भी, लेखकों को बिहार की जाति-व्यवस्था का रंच मात्र भी ज्ञान नहीं है और त्रिपाठी ब्राह्मणों की शादी बगैरे किसी झमेले के मिथिला के ब्राह्मण की बेटी से की जा रही है.

लेखकों को पता होना चाहिए कि बिहार में जाति एक सच है और वहां गोरे काले के भेद से ज्यादा गहरा भेद जाति का होता है.असल में, सिनेमा या वेबसीरीज में देखकर बिहार के गांवों के   पहचानने और जानने की कोशिश का यह कुफल है.

गांव को ठीक से नहीं समझ पाने का एक उदाहरण यह भी है कि धड़कपुर गांव में काले लोगों को गोरा बनाने का दावा करने वाली क्लीनिक मौजूद है, लोग स्मार्ट फोन पर रील देखते हैं और बनाते हैं पर बाकी दुनिया का पिछड़ापन मौजूद है.

तीसरी बड़ी खामी बिहार की पंचायती राज व्यवस्था को लेकर लेखकों का अज्ञान है. बिहार में पंचायती राज में मुखिया होते हैं, सीरीज में मुखिया का जिक्र ही नहीं है. बिहार के पंचायतों में 33फीसद महिला आरक्षण है, यहां धड़कपुर में सिर्फ एक ही महिला पंच है. और तो और पार्टी की तरफ से सरपंच के लिए टिकट भी बांटते दिखाया गया है.

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सिनेमा की दुनिया में बिहार के साथ दिक्कत यह हो रही है कि हर कोई इसे अपनी सीरीज की प्रयोगशाला बनाए हुए है. संवादों की भाषा यह है हर संयुक्त अक्षर को लोग तोड़कर बोल रहे हैं. महिला पंच बनी पुष्पलता यादव (रेणुका शहाणे) की स्क्रीन पर इतनी बुरी स्थिति मैंने आज तक नहीं देखी थी.

वह अपनी गरिमा के साथ मौजूद तो हैं किरदार में ढल भी गई हैं लेकिन उनके संवाद लेखकों ने उन्हें अच्छे संवाद नहीं दिया है. मसला संवादों के लहजे का है.दुपहिया सीरीज की बिरयानी बनाने के लिए निर्देशक ने सारे मसाले झोंक दिए हैं और इससे यह व्यंजन बेजायका हो गया है.

और कुछ न हुआ तो रोशनी झा के भाई बने भूगोल झा (स्पर्श श्रीवास्तव) जिन्होंने लापता लेडीज में बड़ा मुतमईन करने वाला परफॉर्मेंस दिया था और रोशनी के पूर्व प्रेमी अमावस (भुवन अरोड़ा) को लौंडा डांस में उतार दिया. उससे भी मन नहीं भरा तो दोनों के बीच फाइटिंग सीन डाल दिया.

पहले कुछ एपिसोड में तो स्पर्श श्रीवास्तव ओवर एक्टिंग करते दिखे लेकिन बाद में जाकर वह सहज लगने लगे. संवादों को मजेदार बनाने की खातिर कई बार ऐसी बातें की गई हैं जिससे हंसी नहीं आती, बल्कि वह हास्यास्पद लगती है.

रोशनी के पिता के रूप में गजराज राव ने भावप्रवण अभिनय किया है. बृजेंद्र काला एक स्थानीय अखबार के मालिक-संपादक के रूप में मजेदार हैं. हालांकि, वह कैमियो रोल में ही हैं. पत्रकार के रूप में चंदन कुमार ठीक लगे हैं. एएसआई बने मिथिलेश कुशवाहा (यशपाल शर्मा) राहत के झोंके की तरह बीच-बीच में आते हैं. वह किसी भी किरदार में फिट बैठते हैं.

बिहार के देहातों पर बनी किसी भी सीरीज की तुलना हमेशा पंचायत से बनेगी. पंचायत की तरह सूदिंग बनाने के चक्कर में इस सीरीज में हर किसी को अच्छा बनाने की कोशिश की गई है. साथ ही, अमावस और रोशनी के बीच प्रेम को खुलेआम दिखाया गया है और इस बात का पता न सिर्फ रोशनी के परिवार को होता है बल्कि दोनों बेरोकटोक मिलते हैं. बिहार के गांव इतने आसान नहीं हैं.

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पंचायत की तुलना में दुपहिया का संगीत कमजोर है.झा परिवार की शादी में मिथिला की संस्कृति की कोई झलक नहीं दिखती है. शादी के घर में न गाना न बजाना. बिहार के गांव के सेट अप में यह सीरीज ऑर्गेनिक नहीं लगती.

आखिरी एपिसोड तो खैर, जनहित में जारी सरकारी विज्ञापन सरीखा हो जाता है. दहेज प्रथा पर भाषण, गोरे-काले के भेद पर भाषण और हां, क्लिप्टोमेनिया यानी छोटी चीजें चुराने की आदत पर भी एक ज्ञान.

सीरीज एक बार मनोरंजन के लिए देखी जा सकती है, पर कभी भी याद नहीं रखी जाएगी. पंचायत सीरीज जिस तरह लोगों की जबान को परिष्कृत कर चुकी है और दामाद जी तथा बनराकस मीम मटेरियल बनने में कामयाब रहे, और बाकी किरदारों को भी प्रेम मिला, वैसी लोकप्रियता दुपहिया हासिल नहीं कर पाएगी.