...और एक दिन चोरी छिपे हारमोनियम बजाते पकड़ी गई नौशाद की चोरी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 23-02-2024
Naushad secretly plays harmonium in his free time.
Naushad secretly plays harmonium in his free time.

 

ज़ाहिद ख़ान 

फ़िल्मी दुनिया में नौशाद ने थोड़े से ही अरसे में बड़े-बड़े नामवरों के बीच  नामवरी हासिल कर ली थी. लेकिन यह कामयाबी इतनी आसान नहीं थी, इसके पीछे उनका एक लंबा संघर्ष और फ़िल्म-संगीत के जानिब हद दर्जे की दीवानगी और जुनून था. जिसने उन्हें फ़िल्मी संगीत का बेताज बादशाह बना दिया. 25दिसम्बर, 1919को नवाबों की नगरी लखनऊ में जन्मे नौशाद अली को मौसिक़ी से शुरुआत से ही लगाव था. संगीत की स्वर लहरी उन्हें अपनी ओर खींचती थी.

शहर के अमीनाबाद इलाके में उस वक़्त एक रॉयल टॉकीज थी, जिसमें हिन्दी फ़िल्मों का प्रदर्शन होता रहता था. होने को वह दौर साइलेंट फ़िल्मों का था, लेकिन जनता के मनोरंजन की ख़ातिर बीच-बीच में पर्दे के पीछे से स्थानीय आर्टिस्ट, ऑर्केस्टा के मार्फ़त गीत-संगीत पेश करते थे. जिसे दर्शक ख़ूब पसंद करते थे.

नौशाद जब इस इलाके से गुज़रते, तो इस गीत-संगीत की गिरफ़्त में आ जाते. वे वहीं खड़े-खड़े यह संगीत सुना करते और यह उनका रोज़ का दस्तूर हो गया था. बहरहाल संगीत सुनते-सुनते, अब उन्हें साज़ बजाने की चाहत जागी.

मगर साज़, तो उनके पास था नहीं. संगीत के जानिब उनकी ये चाहत, उन्हें एक वाद्य यंत्रों की दुकान की ओर ले गई. वे वहां नौकरी करने लगे. खाली वक़्त में वे चोरी छिपे हारमोनियम बजाने की कसरत करते, उस पर सुर साधने की कोशिश करते.

एक दिन उनकी ये ‘चोरी’ पकड़ी गई. संगीत के जानिब नौशाद का ज़ुनून देखकर, दुकान मालिक गुरबत अली ने न सिर्फ उन्हें वह हारमोनियम तोहफ़े में दे दिया, बल्कि गज्नफ़र हुसैन उर्फ लड्डन साहब से भी मिलवाया. लड्डन साहब वही थे, जो रॉयल टॉकीज में ऑर्केस्टा बजाते थे. लड्डन साहब ने उन्हें अपना शागिर्द बना लिया. लड्डन साहब से उन्हें संगीत की बाक़ायदा तालीम मिली. इसके अलावा उस्ताद बब्बन, यूसुफ़ अली ख़ान ने भी उन्हें मौसीकी का ककहरा सिखाया.

ऑर्केस्टा में संगीत सीखने-बजाने के बाद,नौशाद ने नाटकों में संगीत देना शुरू कर दिया. हीरोज़ एसोसिएशन के अलावा पारसी रंगमंच के आला ड्रामा निगार आगा हश्र काश्मीरी के कुछ नाटकों को भी उन्होंने अपना संगीत दिया. नाटक कंपनियों और स्टेज प्रोग्रामों में हिस्सेदारी की वजह से वे देर से अपने घर लौटते. नौशाद के वालिद वाहिद अली, जो कचहरी में मोहर्रिर थे, वे इन सब चीजों के सख़्त ख़िलाफ़ थे.

उन्हें यह बिल्कुल पसंद नहीं था कि उनका बेटा गाने-बजाने जैसा नामाकूल काम करे. लिहाज़ा संगीत की वजह से बाप-बेटे के बीच तनाव बढ़ता चला गया और एक दिन ऐसा भी आया कि उनके अब्बा ने उन्हें यह कहकर घर से निकाल दिया कि ‘‘घर चुनो या संगीत ?’’ अठारह साल के नौजवान नौशाद ने संगीत में अपनी बेहतरी देखी और घर को हमेशा के लिए अलविदा कर दिया. लखनऊ से वे सीधे मायानगरी मुंबई पहुंचे. थोड़े से अरसे के स्ट्रगल के बाद ही उन्हें फ़िल्म ‘समंदर’ मिल गई. इस फ़िल्म के संगीत में बतौर साजिंदे उन्होंने काम किया.

फ़िल्म के संगीतकार मुश्ताक़ हुसैन ने उनसे अपनी ऑर्केस्टा में पियानो बजवाया. संगीत का गहरा इल्म और कई वाद्य यंत्रों को कामयाबी से बजाने के अपने हुनर से वे जल्द ही संगीतकार के असिस्टेंट के ओहदे तक पहुंच गए. ‘निराला हिंदुस्तान’ और ‘पति-पत्नी’ फ़िल्मों में नौशाद ने संगीतकार मुश्ताक़ हुसैन, ‘सुनहरी मकड़ी’-उस्ताद झंडे ख़ां, ‘मेरी आंखे’-खेमचंद प्रकाश, ‘मिर्ज़ा साहेबान’-डीएन मधोक के साथ असिस्टेंट के तौर पर काम किया. उनकी मेहनत रंग लाई और तीन साल के अंदर ही उन्हें फ़िल्म ‘कंचन’ में संगीतकार की हैसियत से काम मिल गया. अलबत्ता यह बात अलग है कि साल 1940में आई, ‘रंजीत मूवीटोन’ बैनर की इस फ़िल्म में उन्होंने सिर्फ एक गाना ही रिकॉर्ड करवाया था.

साल 1940 में आई ‘प्रेम नगर’ वह फ़िल्म थी, जिसमें नौशाद ने सफलता का पहली बार स्वाद चखा. इस फ़िल्म के ज़्यादातर गाने हिट हुए. ख़ास तौर पर गीत ‘फ़न के तार मिला जा, अपने हाथों को’. ‘प्रेम नगर’ की कामयाबी ने फ़िल्म इंडस्ट्री में नौशाद को स्थापित कर दिया.

फिर आई उनकी फ़िल्म ‘स्टेशन मास्टर’, जो टिकिट ख़िड़की पर बेहद कामयाब साबित हुई. नौशाद की यह पहली फ़िल्म थी, जिसने सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली मनाई. ‘स्टेशन मास्टर’ की कामयाबी ने नौशाद के लिए बड़े बैनर की फ़िल्मों का रास्ता खोल दिया.

एआर कारदार जिन्होंने नौशाद को यह कहकर, ‘‘तुम अभी बच्चे हो, पहले तज़ुर्बा हासिल करो.’’ अपने स्टुडियो से बाहर निकाल दिया था, ख़ुद उन्होंने अपनी फ़िल्म ‘नई दुनिया’ के संगीत के लिए नौशाद को बुलाया. उम्मीद के मुताबिक फ़िल्म ‘नई दुनिया’ और उसका संगीत दोनों ही कामयाब रहे. इसके बाद नौशाद ने कारदार प्रोडक्शन की ज़्यादातर फ़िल्मों शारदा, ‘दुलारी’, ‘नमस्ते’, ‘कानून’, ‘संजोग’, ‘जीवन’, ‘सन्यासी’, ‘नाटक’, ‘दर्द’, ‘शाहजहां’, ‘दिल्लगी’, ‘क़ीमत’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘दास्तान’, ‘जादू’ में अपना संगीत दिया. उनके लाजवाब संगीत की वजह से ये फ़िल्में सुपरहिट रहीं.

इस दरमियान उनकी फ़िल्म ‘रतन’ (साल 1944, निर्देशक-एम सादिक़), ‘मेला’ (साल 1949, निर्देशक-एसयू सन्नी) और ‘बैजू बावरा’ (साल 1952, निर्देशक विजय भट्ट) आईं, जिनके गानों ने पूरे मुल्क में धूम मचा दी. यह तीनों ही फ़िल्में म्यूजिकल हिट थीं.

‘रतन’ की कामयाबी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह फ़िल्म सिर्फ पचहत्तर हज़ार रुपए में बनी थी. लेकिन इसके निर्माता जैमिनी दीवान को इस फ़िल्म के रिकॉर्डों की बिक्री से सिर्फ एक साल में साढ़े तीन लाख रुपए मिले थे. गाने भी एक से बढ़कर एक दिलफ़रेब ‘अंखियां मिलाके जिया भरमाके’, ‘मिलके बिछड़ गईं अंखियां’, ‘परदेशी बालमा’. वहीं ‘बैजू बावरा’ के गीत आज भी जब बजते हैं, तो सुनने वाले मदहोश हो जाते हैं. उन पर एक नशा सा तारी हो जाता है. ‘बचपन की मोहब्बत को दिल’, ‘ओ दुनिया के रखवाले’, ‘मोहे भूल गए सांवरिया’ आदि गानों के कम्पोज में नौशाद ने कमाल कर दिखाया है.

एक के बाद एक मिली इन कामयाबियों ने नौशाद को हिन्दी सिनेमा का सिरमौर बना दिया. एक दौर था, जब बड़े बैनर और बड़े निर्देशकों की फ़िल्में उन्हीं के पास थीं. महान निर्देशक महबूब की फिल्म ‘अनमोल घड़ी’, ‘अंदाज़’, ‘अनोखी अदा’, ‘आन’, ‘अमर’ एवं ‘मदर इंडिया’ और के. आसिफ़ की शाहकार फ़िल्म ‘मुगल-ए-आजम का संगीत नौशाद ने ही दिया था. इन फ़िल्मों की कामयाबी में उनके संगीत का बड़ा योगदान है.

आज भी इन फ़िल्मों के गाने एक अलग ही जादू जगाते हैं. ‘उड़नख़टोला’, ‘कोहिनूर’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘लीडर’, ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’, ‘संघर्ष’ और ‘पाकीज़ा’ फ़िल्मों के गाने भी पूरे देश में मक़बूल हुए. उनके गाने गली-गली में बजते थे. फ़िल्म ‘रतन’ (साल-1944) से लेकर ‘पाकीज़ा’ (साल-1971) तक यानी पूरे सत्ताइस साल नौशाद का हिन्दी सिनेमा में सिक्का चला.

जिसके लिए उन्हें कई सम्मानों और पुरस्कारों से नवाज़ा गया. फ़िल्मों में नौशाद के अनमोल, बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’, ‘पद्मभूषण’ सम्मान और ‘दादा साहब फ़ाल्के पुरस्कार’ से सम्मानित किया.

इसके अलावा राज्य सरकारों ने भी उन्हें तमाम सम्मान और पुरस्कार दिए. जिनमें अहम हैं, ‘महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार’, ‘मध्यप्रदेश शासन का लता पुरस्कार’, ‘उ.प्र. संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’, ‘अमीर खुसरो पुरस्कार’, ‘अवध रत्न पुरस्कार’, ‘महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार’, ‘म्यूजिक डायरेक्टर ऑफ मिलेनियम’ और ‘फ़िल्मफ़ेयर स्वर्ण जयंती लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड’. नौशाद ने टेली सीरियल ‘टीपू सुल्तान’ और ‘अकबर द ग्रेट’ में भी संगीत दिया. फ़िल्मों की तरह इन सीरियलों का भी संगीत हिट रहा.