अली अब्बास
तब वह जवान थे. काम की तलाश में बम्बई गये.जेब खाली थी. पूरे दिन महानगरी की खाक छानने के बाद जब रात का साया गहरा गया तो उन्होंने सोने के लिए उपयुक्त जगह की तलाश शुरू कर दी.शहर के व्यस्त राजमार्ग ग्रांट रोड के पास एक बगीचे में सोने का फैसला किया.
थकावट के कारण कुछ ही क्षणों में वह गहरी नींद में सो गए.सुबह आँखें मिलीं और दाएँ-बाएँ देखने लगे.सड़क के दूसरी ओर एक सिनेमा के होर्डिंग पर एक अधूरी तस्वीर लगी थी, जबकि उस पर काम करने वाले कलाकार नाश्ते के लिए पास के एक ढाबे पर गए थे.
युवक होर्डिंग बनाने के लिए वहां रखे लकड़ी के प्लेटफॉर्म पर चढ़ गया. पेंट और ब्रश देखा और चित्र पूरा करने का फैसला किया.कुछ क्षण बाद, जब होर्डिंग पर काम कर रहे चित्रकार वापस आये, तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि युवक ने बिना किसी की मदद के पेंटिंग लगभग पूरी कर ली थी.उन्होंने तुरंत उन्हें नौकरी की पेशकश की.इस तरह भारतीय उपमहाद्वीप के महान कलाकार मकबूल फ़िदा हुसैन या एमएफ हुसैन की अनूठी कलात्मक यात्रा शुरू हुई.
युवा मकबूल ने अगले कुछ साल बच्चों के फर्नीचर निर्माण कंपनी में काम करते हुए बिताए, जिसने उनकी कला को चमकाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.कभी वह फर्नीचर पर बच्चों के लिए फूल लगाते तो कभी प्रकृति के दृश्य या कार्टून बनाते.इस महान चित्रकार का जन्म 15सितम्बर 1915को महाराष्ट्र राज्य के सोलापुर शहर के पंढरपुर कस्बे में हुआ था.भीमा नदी के तट पर स्थित यह शहर हिंदुओं के लिए असाधारण पवित्रता वाला है, जहां हर साल लाखों हिंदू तीर्थयात्री आते हैं.
युवा मकबूल का परिवार मूल रूप से गुजरात का रहने वाला था, जो यमन से भारत आया था.उन्हें कम उम्र में गुजरात के शहर वडोदरा के एक मदरसे में भर्ती कराया गया था, जहां उनके सुलेख कार्यों को देखने के बाद उन्हें रंगों में रुचि विकसित हुई.वह रंगों से खेलने लगे, उनकी भाषा समझने लगे और उनसे बातें करते-करते वह रंगों की दुनिया के आकर्षण में खो गए.
जब शौक जुनून में बदल गया तो वह मुंबई चले आए.कुछ ही वर्षों में यह युवा सिनेमा होर्डिंग निर्माता रंगों की दुनिया का स्थायी निवासी बन गया.यह विभाजन के दिनों का संदर्भ है जिसका कलाकार के करियर पर दूरगामी प्रभाव पड़ा.वह वर्ष 1948में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट समूह में शामिल हो गए, जिसके बाद वह चित्र बनाने के लिए कभी-कभी हिमालय के बर्फ से ढके पहाड़ों और कभी-कभी राजस्थान के रेगिस्तानों में जाते थे.
अपने भ्रमण के दौरान, वह कई स्थलों से प्रेरित हुए, विभिन्न लोगों से मिले और उनकी कहानियाँ सुनीं और कलात्मक परंपराओं के बारे में भी ज्ञान प्राप्त किया.दिव्या रामचंद्रन ने ऑनलाइन पब्लिशिंग हाउस 'मीडियम' के लिए एक लेख में लिखा है कि "(एमएफ) हुसैन ने 30 के दशक में उभरते बॉलीवुड फिल्म उद्योग के लिए बिलबोर्ड बनाते समय पेंटिंग की कला में महारत हासिल की.
वह युवा कलाकारों के एक समूह का हिस्सा थे जिन्होंने चित्रकला की राष्ट्रवादी बंगाली शैली के खिलाफ विद्रोह किया और आधुनिक भारतीय चित्रकला को बढ़ावा देने की मांग की.दिव्या रामचंद्रन आगे लिखती हैं कि 'इन कलाकारों ने 14अगस्त 1947को भारत और पाकिस्तान के 'विभाजन', जिसमें धार्मिक संघर्ष के दौरान कई लोगों की जान चली गई थी, को दिसंबर 1947 में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप के गठन और विभाजन को जिम्मेदार ठहराया.भारत के अलावा, चित्रकला को आधुनिक प्रवृत्तियों के साथ जोड़ने के संदर्भ में निर्णायक माना जाता था.
भारत की पत्रिका 'प्लेटफ़ॉर्म' में प्रकाशित एक अन्य लेख में एमएफ हुसैन की कहानी उन्हीं के शब्दों में बताई गई है.जब मैं छह साल का था, तो पेंट और ब्रश मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गए.मेरे पिता एक कपड़ा मिल में अकाउंटेंट थे.हम इंदौर में रहते थे.वहां कोई गैलरी या संग्रहालय नहीं था, इसलिए तब तक वे किसी से प्रेरित नहीं थे,बल्कि उन्हें केवल पेंटिंग का शौक था.मैंने अपनी पहली तस्वीर 1948में विभाजन के बाद बेची थी.
1950 का दशक इस युवा चित्रकार के लिए निर्णायक साबित हुआ,जब उन्होंने अपनी पहली विदेश यात्रा की.वह स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख गए,लेकिन हमेशा की तरह उन्होंने खुद को नग्न पाया.विदेश में इस महान कलाकार की कृतियों की यह पहली प्रदर्शनी थी.इस प्रदर्शनी के दौरान उनकी मुलाकात अपने समय के महान चित्रकारों पाब्लो पिकासो, हेनरी मैटिस और पॉल क्ली से हुई.
दिलचस्प बात यह है कि एमएफ हुसैन, जिन्हें बाद के वर्षों में 'भारत का पिकासो' कहा जाने लगा, पिकासो की तुलना में पॉल क्ली की कला के अधिक प्रशंसक थे.अलग बात है कि एमएफ हुसैन की एक यादगार अवधारणा पिकासो की पेंटिंग 'द ओल्ड गिटारिस्ट' से प्रेरित है जिसमें एक महिला को सितार बजाते हुए दिखाया गया है.
दिव्या रामचंद्रन मीडियम के लिए लिखती हैं कि कलाकार के कार्यों की पहली एकल प्रदर्शनी 1952 में ज्यूरिख में आयोजित की गई थी.अमेरिका में उनकी पहली प्रदर्शनी 1964 में न्यूयॉर्क के इंडिया हाउस में थी.चित्रकार को वर्ष 1966 में प्रतिष्ठित पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
पेंटिंग के अलावा एमएफ हुसैन ने मूर्तिकला, चित्रकारी और फिल्म निर्माण में भी अपनी प्रतिभा खुलकर व्यक्त की, जबकि ब्रश के अलावा वह कलम से भी हमेशा जुड़े रहे.उनकी कलाकृतियों में इंसानियत बिखरी हुई है.महिलाओं के जीवन के विभिन्न रंगों की खोज करना उनके जीवन का एक प्रमुख लक्ष्य था.
'प्लेटफॉर्म' से बात करते हुए एफएम हुसैन ने कहा था कि 'मैं सभी जीवित चीजों को एक कला के रूप में देखता रहा हूं.मैंने कभी भी किसी स्टूल को सिर्फ एक स्टूल के रूप में नहीं देखा.मैं इसे एक (कला) रूप के रूप में देखता हूं.मेरी दृश्य स्मृति बहुत अच्छी है.
बहुत सी चीजें मेरे दिमाग के खाली बक्सों में जमा हो जाती हैं,जो किसी न किसी तरह मेरी कला में दिखाई देती हैं.इसलिए मेरा दिमाग कभी खाली नहीं रहता.मुझे नहीं पता कि ऊबने का क्या मतलब है,क्योंकि मुझे लगता है कि बहुत कुछ किया जा सकता है और एक जीवन पर्याप्त नहीं है.'
ज्यूरिख के बाद एमएफ हुसैन ने दुनिया भर की यात्रा की.उसी अवधि में चीनी और यूरोपीय समकालीनों के साथ उनकी मुलाकातों का सिलसिला शुरू हुआ.यह वर्ष 1956 की बात है जब कलाकार अपने चित्रों का प्रदर्शन करने के लिए चेक गणराज्य की राजधानी प्राग गए थे और उन्हें अपनी अनुवादक मारिया से इतना प्यार हो गया कि उन्होंने अपनी सारी तस्वीरें उन्हें उपहार में दे दीं.
उन्होंने अपनी कला कृतियों में महिलाओं के विभिन्न रूपों को चित्रित करके अपने प्यार को व्यक्त किया.अखबार 'डीएनए' अपने एक लेख में लेखक किशोर सिंह की किताब 'एमएफ हुसैन: द लाइफ ऑफ ए लीजेंड' के संदर्भ में इस प्रेम कथा के बारे में लिखता है, 'जब शो शुरू हुआ, तो यह सभी के लिए आश्चर्य का कारण था.तभी (एमएफ) हुसैन ने घोषणा की कि वह ये तस्वीरें बेच नहीं रहे हैं बल्कि ये सभी तस्वीरें मारिया को उपहार में दे रहे हैं.
1957में, जब एयर इंडिया ने प्राग में अपने कार्यालय की दीवारों को पेंट करने के लिए कलाकार को काम पर रखा, तो उन्होंने तुरंत प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और रिश्ता जारी रहा.वे प्राग आते-जाते रहते थे.उन्होंने (मारिया को) शादी का प्रस्ताव भी दिया, जिस पर मारिया ने विचार किया और इस तरह दोनों ने इस लंबी दूरी के प्रेम संबंध को बनाए रखा और दोनों एक-दूसरे को प्रेम और जिन्न पत्र लिखते रहे.
उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा था कि 'आसमान की विशालता को थामे रहो क्योंकि मुझे अपने कैनवास की विशालता का एहसास नहीं है.'दोनों की प्रेम कहानी का दर्दनाक अंत तब हुआ जब 1968में मारिया ने शादी कर ली.वे दोनों संपर्क में रहे. इस प्रेम कहानी के लगभग आधी सदी बाद 2006में, एमएफ हुसैन को एक दिन नई दिल्ली में उनके आवास पर उनकी तस्वीरों का एक कंटेनर मिला, जिसमें एक संक्षिप्त नोट लिखा था, 'मैं यह उपहार आपको लौटाती हूं.ये मेरे नहीं बल्कि भारत के हैं.
भारत के प्रतिष्ठित अखबार 'टाइम्स ऑफ इंडिया' से कई दशकों तक जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार खालिद मुहम्मद को इंटरव्यू देते हुए एमएफ हुसैन ने कहा कि 'मैंने मारिया के जो छह चित्र बनाए, उन्होंने मुझे वापस नहीं लौटाए.' उन्होंने मुझे मेरी कला लौटाई है, मेरा प्यार नहीं.'
हालाँकि एमएफ हुसैन शादीशुदा थे.उनकी शादी साल 1941 में हुई थी, जिनसे उनके छह बच्चे हुए, जिनमें से ओवैस हुसैन और शमशाद हुसैन ने अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए पेंटिंग को चुना.ओवैस हुसैन ने फिल्म निर्माण में भी कदम रखा, लेकिन इससे (शादी) मारिया के प्रति उनके प्यार पर कोई असर नहीं पड़ा.
हालाँकि एमएफ हुसैन एक मुस्लिम परिवार से थे, लेकिन उन्होंने अपनी कलाकृतियों में अन्य धर्मों और संस्कृतियों का भी प्रतिनिधित्व किया.1996में उन्हें कठिन समय से गुजरना पड़ा जब हिंदू देवी-देवताओं को चित्रित करने वाली उनकी कुछ कलाकृतियों पर प्रतिक्रिया हुई.
दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने इन कलाकृतियों को 1970में चित्रित किया था, लेकिन एक चौथाई सदी तक उनकी चर्चा नहीं हुई .जब एक हिंदी पत्रिका ने एमएफ हुसैन के बारे में एक लेख प्रकाशित किया, 'एमएफ हुसैन, एक कलाकार या कसाई' तो हर जगह हंगामा मच गया.यहां तक कि कलाकार के घर पर भी हमला किया गया.यह बात कलाकार को अंत तक परेशान करती रही.
एमएफ हुसैन हमेशा अपने समकालीनों से आगे रहना चाहते थे.एसएच रज़ा (सैयद हैदर रज़ा) अपने समकालीनों में एक महत्वपूर्ण चित्रकार थे.उनकी अमूर्त कलाकृतियाँ एक प्रदर्शनी में प्रदर्शित की गईं. प्रत्येक कलाकृति की कीमत 2,000रुपये थी.जब एमएफ हुसैन को इस बारे में पता चला तो उन्होंने कहा, 'वैसे तो मैं अमूर्त कलाकृतियां नहीं बनाता, लेकिन इसके लिए दो हजार रुपये कौन देगा ?'
वह अगले दिन गैलरी में गये और एसएच रज़ा की तस्वीरें हटाकर अपनी लगा लीं.प्रत्येक की कीमत 3,000रुपये थी. जाहिर है, उन्होंने कला के इन कार्यों को बनाने के लिए पूरी रात काम किया.इस प्रकार यह कहना गलत नहीं होगा कि एमएफ हुसैन के पास एक ही समय में दो तरह के कलाकार थे, एक शुद्ध और दूसरे सार्वजनिक.वह वास्तव में एक सार्वजनिक चित्रकार थे जिनका मानना था कि कलाकार की कृतियाँ सभी के लिए होनी चाहिए.
बताना जरूरी है कि भारतीय कलाकारों में अमृता शेरगल के बाद एसएच रजा की पेंटिंग्स ने सबसे ज्यादा कीमत में बिकने का रिकॉर्ड बनाया है.एमएफ हुसैन के चित्रों के पात्र स्थिर नहीं बल्कि गतिशील हैं.उनकी रचनाओं में स्त्री बार-बार दिखती है, लेकिन हर बार अलग रूप में.ऐसा शायद इसलिए ,क्योंकि उन्होंने कम उम्र में ही अपनी माँ को खो दिया था.
उनकी कलाकृतियों में जो नारी दिखती है, चाहे वह मां के रूप में हो, नृत्यांगना के रूप में या किसी अन्य रूप में, वह अबला नहीं बल्कि साहस का रूपक है.एमएफ हुसैन की कला अलग-अलग दौर में बदलती रही. कभी उन्होंने घोड़ों को, कभी महाभारत को तो कभी रामायण को रंगों के माध्यम से चित्रित किया.कभी मदर टेरेसा ,गांधी जी के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत किया तो कभी वह भारत के शहरी और ग्रामीण जीवन को कैनवास पर दर्शाती नजर आईं.
मीडियम के लिए अपने लेख में, दिव्या रामचंद्रन लिखती हैं, “एमएफ (हुसैन) एक बेचैन चित्रकार के रूप में जाने जाते थे.उन्होंने अपने जीवन के विभिन्न कालखंडों में विभिन्न प्रकार की कलाओं का निर्माण किया.एक दौर ऐसा भी था जब वह लंबे समय तक सिर्फ घोड़ों की पेंटिंग बनाते थे.
प्रतिष्ठित अंग्रेजी राष्ट्रीय दैनिक 'डॉन' में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, 'स्त्रीत्व उनकी (एफएम हुसैन की) लगभग सभी कलाकृतियों में मौजूद है.कई का केंद्रीय विषय है.कलाकार का कहना है कि यह उसकी अपनी माँ की खोज की अभिव्यक्ति है, जिसे उसने किशोरावस्था में खो दिया था.वे अपनी मां को एक महिला के रूप में चित्रित करके देखते हैं.उन्हें अपनी मां का चेहरा याद नहीं रहता और वे अपनी महिलाओं को बिना चेहरे के रंग देते हैं.'
कई लोगों के लिए वह सिर्फ एक कलाकार हैं,लेकिन उनकी रचनात्मक यात्रा को कवर करना आसान नहीं है.उनकी फिल्मों और लेखन में सौंदर्य और काव्यात्मक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है.उन्होंने मैगजीन 'प्लेटफॉर्म' को दिए इंटरव्यू में कहा था, 'लोग सोचते हैं कि मैंने सिर्फ घोड़ों की तस्वीरें लीं और बाद में सिर्फ नग्न तस्वीरें लीं, लेकिन यह गलत है.
मैं सुंदरता की तलाश में ही हर जगह भटकता रहा हूं.' मुझे एक चित्रकार के रूप में जाना जाता है क्योंकि मैं एक चित्रकार के रूप में प्रसिद्ध हुआ, लेकिन मेरे जीवन के कई अन्य पहलू भी हैं.मुझे अर्थव्यवस्था, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भी रुचि है.और उस के साथ कुछ भी गलत नहीं है.फिल्म एक ऐसा माध्यम रही है जिसने एमएफ हुसैन को बचपन से ही आकर्षित किया है, जिसके कारण उन्होंने वर्ष 1967 में 'थ्रू द आइज़ ऑफ ए पेंटर' फिल्म बनाई, जिसे सर्वश्रेष्ठ प्रायोगिक फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
इस फ़िल्म को न केवल बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में प्रस्तुत किया गया बल्कि गोल्डन बियर पुरस्कार भी जीता.एमएफ हुसैन हमेशा खूबसूरत महिलाओं से प्रेरित रहे हैं, जिनमें से सबसे प्रमुख अतुलनीय बॉलीवुड अभिनेत्री माधुरी दीक्षित हैं, जिन्हें उन्होंने न केवल अपनी कई तस्वीरों में चित्रित किया, बल्कि उनके साथ 'गज गामिनी' फिल्म भी बनाई.इस फिल्म में एक बार फिर महिलाओं के अलग-अलग रूप देखने को मिले.
इस बारे में बात करते हुए एमएफ हुसैन ने कहा कि ''मैं आठ साल की उम्र से लेकर 80साल की उम्र तक की महिलाओं से प्रभावित रहा हूं.'' मेरी कला में कई महिलाएं मेरी प्रेरणा रही हैं, जिनमें मदर टेरेसा और इंदिरा गांधी भी शामिल हैं.2000 में आई माधुरी, नसीरुद्दीन शाह और शाहरुख खान अभिनीत इस फिल्म के निर्देशक और लेखक एफएम हुसैन थे.
2004की फ़िल्म मिनाक्षी, ए टेल ऑफ़ थ्री सिटीज़ में तब्बू और कुणाल कपूर मुख्य भूमिका में थे और इसे कान्स फ़िल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित किया गया था.यह फिल्म भी उनकी कलाकृतियों की तरह विवाद का विषय बनी, लेकिन इस बार इस फिल्म में शामिल एक कव्वाली पर हिंदुओं ने नहीं बल्कि मुसलमानों ने आपत्ति जताई।
एफएम हुसैन ने कहा था कि 'फिल्म एक संपूर्ण माध्यम है क्योंकि यह कला की सभी शैलियों को जोड़ती है। फिल्म के बिना कला अधूरी है.2006 में, एमएफ हुसैन अपने जीवन के खतरों के कारण आत्म-निर्वासित निर्वासन में चले गए और अपना अधिकांश समय दोहा (कतर) और लंदन के बीच बिताया.दशकों तक विवादों में रहने वाले इस कलाकार की घर लौटने के अफसोस में 9 जून 2011 को लंदन के एक अस्पताल में मौत हो गई और भारत के 'पिकासो' को इतना भी सौभाग्य नहीं मिला कि उन्हें भारत में दफनाया गया.