हिंद 1957: बंटवारे के बाद मुसलमानों की मनोदशा को बयां करता एक नाटक

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 13-01-2025
Hind 1957: A play depicting the state of mind of Muslims after partition
Hind 1957: A play depicting the state of mind of Muslims after partition

 

- प्रो. अविनाश कोल्हे

देश के विभाजन को दस साल बीत चुके हैं. व्यस्क मताधिकार  से लैस भारतीयों ने जाति, धर्म और भाषा से परे जाकर मतदान किया. ऐसे माहौल में 'हिंद 1957' का कथानक आकार लेता है. निर्देशक फिरोज़ अब्बास खान को 'फेंसेस' नाटक में विभाजन के बाद भारत में रह गए गरीब मुस्लिम परिवार की समानांतर कहानी दिखाई दी. उन्होंने इसे भारतीय संदर्भ में ढालते हुए एक गहन और चिंतनशील नाटक का निर्माण किया.

विभाजन और 'हिंद 1957' की पृष्ठभूमि

भारत को स्वतंत्रता तो मिली, लेकिन विभाजन की कीमत पर. 24 मार्च 1940 को लाहौर में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में 'स्वतंत्र पाकिस्तान' की मांग की गई और 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान का निर्माण हुआ. हिंदू-मुस्लिम को अलग संस्कृतियां और अलग देश बताया गया.

इन्हें साथ रहने में असमर्थ कहा गया. जिन्ना के इस प्रचार ने पाकिस्तान को हकीकत में बदल दिया. इसमें भारत के लाखों गाँवों में सदियों से साथ रह रहे सामान्य हिंदुओं और मुसलमानों को क्या करना चाहिए, इसका ठोस उत्तर नहीं था.

पाकिस्तान बनने के बाद हजारों हिंदुओं ने भारत का रुख किया और भारत के कई मुसलमान पाकिस्तान चले गए. लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि पाकिस्तान में कोई हिंदू नहीं बचा या भारत में कोई मुसलमान नहीं रहा.

2023 की जनगणना के अनुसार, पाकिस्तान में लगभग बावन लाख हिंदू हैं. 2021 के भारत के आँकड़ों के अनुसार, भारत में लगभग बीस करोड़ मुसलमान हैं. यह सारा विवरण और आँकड़े देने का कारण हाल  में मुंबई में मंचित हुआ विचारोत्तेजक हिंदी नाटक ‘हिंद 1957’ है.

उसमें 1957 साल का उल्लेख बहुत महत्वपूर्ण है. यह वह समय है जब भारत के विभाजन को दस साल हो चुके हैं. सभी को समान मानने वाला, सभी को समान अवसर देने वाला, गणराज्य भारत का संविधान लागू हुए पूरे सात साल हो चुके हैं. और भारतीय नागरिक प्रौढ़ मताधिकार के तहत बिना जाति, धर्म या भाषा का भेदभाव किए चुनावों में भाग ले रहे हैं. ऐसे माहौल में ‘हिंद 1957’ की कथा दर्शकों के सामने आती है.


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हिंद 1957'की प्रेरणा 

हिंद 1957 नाटक की चर्चा से पहले उसकी पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है. यह नाटक अफ्रीकी-अमेरिकी नाटककार ऑगस्ट विल्सन (1945-2005) के नाटक फेंसेस पर आधारित है. 20वीं शताब्दी के अफ्रीकी-अमेरिकी साहित्य में उनका नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है.

कुछ विशेषज्ञ तो उन्हें "अफ्रीकी-अमेरिकी थिएटर के कवि" तक कहते हैं. उन्होंने इस समुदाय के अनुभवों को केंद्र में रखकर दस नाटकों की एक श्रृंखला लिखी, जिसे पिट्सबर्ग साइकिल कहा जाता है. इस श्रृंखला में 1987 में आए नाटक फेंसेस और 1990 में आए द पियानो लेसन को पुलित्जर पुरस्कार मिला था.

इसी श्रृंखला का छठा नाटक फेंसेस है, जिसमें 1950 और 1960 के दशक के अमेरिकी अफ्रीकी-अमेरिकी समुदाय के गरीबी और नस्लीय भेदभाव के अनुभवों को दर्शाया गया है. हिंद 1957 के निर्देशक फिरोज़ अब्बास खान को फेंसेस में विभाजन के बाद भारत में रह रहे गरीब मुस्लिम परिवार की समानांतर कहानी दिखी.

उन्होंने विकास बाहरी के सहयोग से फेंसेस को भारतीय संदर्भ में ढालते हुए एक प्रभावशाली और गहरे विचारों को उकसाने वाला नाटक तैयार किया.हिंद 1957 में पचास वर्ष का तबरेज़ अंसारी बीड़ी फैक्ट्री में काम करने वाला एक मजदूर है.

उसका थोड़ा सनकी भाई गुल्लेर है. तबरेज़ का पहली पत्नी से तीस वर्षीय बेटा लतीफ है. दूसरी पत्नी जानकी से उसका अठारह वर्षीय बेटा है. इन पात्रों के माध्यम से फिरोज़ और बाहरी ने दो अंकों में एक जबरदस्त हिंदी नाटक प्रस्तुत किया.

शुरुआत में पाकिस्तान न जाकर भारत में रहने वाले तबरेज़ को अब यह महसूस हो रहा है कि यह निर्णय गलत था. इसका कारण है कि पुलिस उसे अक्सर शक के आधार पर बुलाकर सवाल-जवाब करती है. इससे परेशान तबरेज अपने हिंदू दोस्त और पत्नी के सामने सरकार को कोसता है.

वह अपने छोटे बेटे को सेना में जाने का सपना देखने के बजाय नौकरी करने के लिए मजबूर करता है. उसके अनुसार अब भारत में मुसलमानों को समान अवसर नहीं मिलेंगे. उनकी प्रगति नहीं होगी. उन्हें सेना में भी भर्ती होने नहीं दिया जाएगा. यह नाटक का एक महत्वपूर्ण सूत्र है, लेकिन केंद्रीय विषय नहीं है.

भारत में मुसलमान समाज के साथ हो रहे अन्याय को इस नाटक का मुख्य विषय माना जा सकता है, लेकिन कहानी तब नया मोड़ लेती है जब तबरेज़ अपनी पत्नी जानकी से कहता है कि अनजाने में ही वह अपनी कंपनी में काम करने वाली एक मुस्लिम महिला से मोहब्बत कर बैठा.

उसने कुछ महीने पहले उससे निकाह कर लिया था. अब वह औरत उसके बच्चे की मां बनने वाली है. यह सुनकर जानकी ही नहीं, बल्कि दर्शक भी हैरान रह जाते हैं.  अब तक नाटक में तबरेज़ को एक अच्छा शायर और मूलतः नेकदिल इंसान के रूप में दिखाया गया था. पुलिस की परेशानियों के बावजूद वह अपने परिवार का ध्यान रखने वाला इंसान नजर आता है, लेकिन इस खुलासे से उसकी छवि बदल जाती है.  

उसका छोटा बेटा भी उसकी बात नहीं मानता. हॉकी खेलते हुए एक दिन घर से भागकर फौज में भर्ती हो जाता है. बड़ा बेटा और दूसरी पत्नी जानकी उससे बस काम चलाने भर की बातें करते हैं. धीरे-धीरे तबरेज़ अपने ही घर में अकेला पड़ जाता है.  

तब उसकी तीसरी पत्नी एक बेटी को जन्म देते हुए चल बसती है. पहली पत्नी के बेटे को पाल चुकी जानकी अब इस बच्ची की परवरिश के लिए तैयार होती है. तभी एक दिन तबरेज़ को दिल का दौरा पड़ता है और उसकी मौत हो जाती है. उस वक्त तक पुलिस की परेशानियां खत्म हो चुकी होती हैं, लेकिन फौज में गया छोटा बेटा, हॉकी खेलते हुए सफलता पाने के बाद भी पिता की खुशी नहीं देख पाता.  

तबरेज़ की मौत पर सैकड़ों लोग उसके जनाज़े में आते हैं, लेकिन उसका छोटा बेटा, जो फौज से छुट्टी पर आया है, पिता के लिए आखिरी रस्में निभाने को तैयार नहीं होता. मां उसे समझाती है, तब कहीं जाकर वह दफन में शामिल होता है.  यहां नाटक खत्म होता है, जो कई उपकथाओं और भावनात्मक मोड़ों से भरा है.  


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कलाकार और निर्देशन

फिरोज़ खान ने इस नाटक को संवेदनशीलता और गहराई से निर्देशित किया है. सचिन खेडेकर (तबरेज़ अंसारी) और सोनल झा (जानकी) ने अपने किरदारों में जान डाल दी है. दाधी पांडे, अंकित, रवी चहर और एनके पंत ने भी बेहतरीन अदाकारी की है.

  मनीष सप्पेल की नेपथ्य सज्जा और वेशभूषा अत्यंत प्रभावशाली है. खास तौर पर टूटी हुई दीवार, जो कई दृश्यों में खामोशी से बहुत कुछ बयान करती है. अमोघ फडके की प्रकाश योजना और पीयूष कनोजिया के संगीत ने नाटक को और असरदार बना दिया. फिरोज़ ने अभिषेक शुक्ला की कविताओं का भी बखूबी इस्तेमाल किया है.

इस नाटक का निर्माण प्लैटफॉर्म थिएटर कंपनीने किया है. मुझे यह नाटक देखते हुए 1973 में रिलीज़ हुई हिंदी फिल्म 'गर्म हवा' बार-बार याद आई. 'गर्म हवा' में बलराज साहनी द्वारा निभाए गए मिर्ज़ा और 'हिंद 1957' के तबरेज़ की झेली गई कठिनाइयों में गहरा साम्य है. ऐसे नाटक, अपने गहरे प्रभाव के कारण, लंबे समय तक याद रह जाते हैं.

(लेखक कला-संस्कृति के अध्येता, राज्यशास्त्र के सेवानिवृत्त प्राध्यापक और उपन्यासकार हैं.)