जन्मदिवस विशेष : फ़िल्मकार के.आसिफ़ ने ‘मुग़ल-ए-आज़म’ बनाकर मुल्क को दिया क़ौमी-यकजेहती का पैग़ाम

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 21-06-2024
Birthday Special: Filmmaker K. Asif gave the message of national unity to the country by making 'Mughal-e-Azam'
Birthday Special: Filmmaker K. Asif gave the message of national unity to the country by making 'Mughal-e-Azam'

 

-ज़ाहिद ख़ान

हिंदुस्तानी सिनेमा में फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’, संग-ए-मील की हैसियत रखती है.साल 1960में आयी इस फ़िल्म का आज भी कोई जवाब नहीं.यह वाक़ई लाजवाब है ! फ़िल्म की रिलीज़ को साठ साल से ज़्यादा हो गए, लेकिन आज भी इसका ख़ुमार चाहने वालों के दिल-ओ-दिमाग़ से नहीं उतरा है.

 निर्देशक करीमउद्दीन आसिफ़ यानी के. आसिफ़ की दीवानगी और जुनून ही था कि तमाम आर्थिक परेशानियों और रुकावट के बाद भी ‘मुग़ल-ए-आज़म’ पूरी हुई और रिलीज़ होने के बाद इसने एक नया इतिहास बनाया. भारतीय फ़िल्मी इतिहास में न सिर्फ़ यह फ़िल्म हमेशा के लिए अमर हो गई, बल्कि के.आसिफ़ ने भी अपनी फ़िल्मी करियर की दूसरी ही फ़िल्म से अपने हुनर का लोहा मनवा लिया.

देश-दुनिया में लोग उनकी निर्देशकीय क्षमता के क़ायल हो गए.उत्तर प्रदेश के छोटे से इलाके से आया नौजवान, देखते-देखते फ़िल्मी दुनिया का बेताज बादशाह बन गया. 14 जून, 1922 को इटावा में पैदा हुए करीमउद्दीन आसिफ़, फ़िल्मी दुनिया में स्टोरी टेलर बनने से पहले लेडीज़ टेलर थे.इटावा के अलावा उन्होंने मुंबई में भी कुछ दिन टेलरिंग की.टेलरिंग मज़बूरी थी, उनकी मंज़िल-ए-मक़सूद तो फ़िल्मी दुनिया थी.वे फ़िल्म बनाना चाहते थे.वह भी औरों से अलग.

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एक्टर-प्रोड्यूसर-डायरेक्टर नज़ीर, जो के.आसिफ़ के रिश्ते में मामू लगते थे, उन्होंने उनके साथ फ़िल्म ‘सलमा’ (साल 1943) में असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर फ़िल्मों में अपना आगा़ज़ किया.फ़िल्म बनाने की बारीकियां सीखीं.फ़िल्म डायरेक्शन में उतरने के लिए के.आसिफ़ को ज़्यादा लंबा इंतज़ार नहीं करना पड़ा.

21 साल की उम्र में उन्हें फ़िल्म ‘फूल’ का डायरेक्शन मिल गया.कमाल अमरोही की कहानी पर बनी उनकी इस पहली ही फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर, सुरैया, वीना, दुर्गा खोटे और याकू़ब जैसे बड़े स्टार थे. फ़िल्म ख़ासा कामयाब रही.इतनी बड़ी स्टार कास्ट के साथ फ़िल्म बनाकर, वह फ़िल्मी दुनिया में चर्चा में आ गए.

लोगों का आसिफ़ के काम पर ऐतबार बढ़ा, तो उनका यक़ीन और पुख़्ता हुआ.इसके बाद के.आसिफ़ ने इम्तियाज़ अली ‘ताज’ के मशहूर ड्रामे ‘अनारकली’ पर फ़िल्म बनाने का फै़सला किया. उन्होंने कमाल अमरोही से इसकी कहानी सुनी हुई थी.वह कहानी उन्हें इतनी पसंद आई कि इसे फ़िल्माना उनका ख़्वाब हो गया.पर जब उन्होंने साल 1945 में यह फ़िल्म शुरू की, तो इसका नाम बदल दिया.

‘मुग़ल-ए-आज़म’, फ़िल्म का टाइटल तय हुआ.निर्माता शिराज़ अली हकीम ने ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की तामीर में दिल खोलकर पैसा ख़र्च किया. फ़िल्म बन ही रही थी कि साल 1947में मुल्क का बंटवारा हो गया.शिराज़ अली हकीम पाकिस्तान चले गए और फ़िल्म आधी बनने के बाद बंद हो गई.देश का जब माहौल साज़गार हुआ, तो के.आसिफ़ का ‘मुग़ल-ए-आज़म’ बनाने का ख़्वाब फिर जाग उठा.

छह साल के बाद, उन्होंने फ़िल्म को दोबारा शुरू किया.लेकिन तब तक ‘मुग़ल-ए-आज़म’ का पूरा सेटअप और स्टार कास्ट बदल गई थी. अकबर के रोल के लिए के.आसिफ़ ने पृथ्वीराज कपूर, तो शहज़ादा सलीम के लिए दिलीप कुमार को साइन किया.अनारकली के रोल के लिए उन्होंने उस वक़्त के मशहूर हफ़्तावार अख़बार में बाक़ायदा एक इश्तिहार छपवाकर, हीरोइन की तलाश की और यह तलाश मधुबाला पर जाकर ख़त्म हुई.

mughal e azam

बहरहाल, ‘मुग़ल-ए-आज़म’ जब बनना शुरू हुई, तभी से यह फ़िल्म चर्चा में आ गई थी.ख़ास तौर पर इस फ़िल्म पर शाहाना खर्चे को लेकर.निर्माता शापूरजी पालोनजी मिस्त्री और के.आसिफ के बीच इस फ़िल्म के बजट को लेकर कई बार खींचतान हुई.यहां तक कि शापूरजी ने एक मर्तबा के.आसिफ को फ़िल्म से अलग करने तक का फै़सला भी ले लिया, लेकिन ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के जानिब के.आसिफ़ की दीवानगी और जुनून को देखकर, आख़िर में अपना फै़सला बदल दिया.

 1950 के दशक में जब पूरी फ़िल्म 2से 3लाख में बन जाती थी, तब के.आसिफ़ ने इस फ़िल्म के शीश महल के सेट पर ही 15लाख रुपए ख़र्च किए थे.यह सेट एक साल में बनकर तैयार हुआ था.‘मुग़ल-ए-आज़म’ की और भी कई ख़ासियत थीं.मसलन,यह पहली भारतीय फ़िल्म है, जिसमें वार सींस इतने भव्य फ़िल्माए गए कि इन्हें देखकर असली जंग का एहसास होता है.

के.आसिफ़ ने फ़िल्म के वार सींस के लिए इंडियन आर्मी की जयपुर केवेलरी की पूरी एक बटालियन जिसमें 8हज़ार जवान, 2हज़ार ऊंट और 4हज़ार घोड़ों का इस्तेमाल किया और यह सींस छह महीने में पूरे हुए थे.बहरहाल, के.आसिफ़ का ख़्वाब फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’, पन्द्रह साल में जाकर मुकम्मल हुई.

5 अगस्त, 1960 को जब यह फ़िल्म ऑल इंडिया रिलीज़ हुई, तो पूरे देश में हंगामा मच गया.चारों ओर इस फ़िल्म की शानदार स्टोरी, डायलॉग्स, अदाकारी, फिल्मांकन, गीत-संगीत, डायरेक्शन के ही चर्चे थे.फ़िल्म और इसके मधुर गीत—संगीत का इस कदर मेनिया था कि घंटों लाइन में लगकर, लोगों ने इस फ़िल्म के टिकिट खरीदे.मुंबई के ‘मराठा मंदिर’ सिनेमा हॉल में यह फ़िल्म 77हफ़्ते तक हाउसफ़ुल चली.यही हाल देश के बाकी बड़े शहरों का भी था.

 फ़िल्म में ऐसा क्या जादू था ?, जो लोग इसके दीवाने हो गए, ग़र इसकी वजह जानें, तो वे कई थीं.इम्तियाज़ अली ‘ताज’ ने अपना ड्रामा ‘अनारकली’ को केन्द्र में रखकर लिखा था, लेकिन के.आसिफ़ ने जब इस पर फ़िल्म बनाई, तो उसमें अनेक बदलाव किए.जिसमें सबसे बड़ा बदलाव, मुग़ल बादशाह अकबर को केन्द्रीय भूमिका में लाना था.

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 यही नहीं मूल ड्रामे में राजा मान सिंह और दुर्जन सिंह के किरदार नहीं हैं, पर के.आसिफ़ ने इनको फ़िल्म में रखा.दुर्जन सिंह, शहज़ादा सलीम का जिगरी दोस्त है.फ़िल्म के आख़िर में वह सलीम को दिए वादे के मुताबिक अपनी जान पर खेलकर, अनारकली को बचा लेता है.

 घायल अवस्था में ये दोनों एक मंदिर में पनाह लेते हैं.मंदिर में जब अनारकली नमाज़ पढ रही होती है, तब घायल दुर्जन सिंह दम तोड़ देता है.नमाज़ पढ़ने के बाद जब यह सारा मंज़र अनारकली देखती है, तो वह अपना दुपट्टा उसके जिस्म पर डालकर, उसका कफ़न बना देती है.

 हिंदू-मुस्लिम एकता पर बड़ी-बड़ी तक़रीरों से इतर यह अकेला सीन, एक बड़ा पैग़ाम दे जाता है.फ़िल्म के ज़रिए के.आसिफ़ ने अकेले मुगल सम्राट अकबर की अज़्मत, धार्मिक सहिष्णुता और इंसाफ़—पसंदगी ही नहीं दिखलाई है, बल्कि मुल्क को क़ौमी-यकजेहती और भाईचारे का पैग़ाम भी दिया.

 फ़िल्म में मज़हबी कट्टरता से इतर हिंदुस्तान की सतरंगी विरासत के सीन गढ़े.‘मुग़ल-ए-आज़म’ में ऐसे कई सीन हैं, जो आज किसी फ़िल्म में फ़िल्माए जाएं, तो विवाद पैदा हो जाए.फ़िरक़ापरस्त और तंगनज़र लोग इन सीन को लेकर सिनेमा हॉल में हंगामा बरपा दें.

शंहशाह अकबर का अपनी राजपूत पत्नी जोधा बाई के साथ महल में कृष्ण जन्माष्टमी मनाना और कृष्ण की मूर्ति को पालने में झुलाना, जंग के मैदान में जाने से पहले पंडित से माथे पर पूजा का टीका लगवाना, तो अनारकली का एक देवी मंदिर में नमाज़ अदा करना, फ़िल्म के कुछ ऐसे सीन हैं, जिन्हें धार्मिक कट्टरपंथी और ‘सांस्कृतिक’ राष्ट्रवादी शायद ही बर्दाश्त कर पाते.

‘मुग़ल-ए-आज़म’ निर्माण के दौरान के.आसिफ़ ने एक और फ़िल्म ‘हलचल’ बनाई, लेकिन वे इस फिल्म के प्रोड्यूसर थे.‘मुग़ल-ए-आज़म’ की बेशुमार कामायाबी के बाद के.आसिफ़ ने कई बड़ी फ़िल्मों ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘ताज महल’ और ‘भगत सिंह’ की प्लानिंग और इनके बनाने का ऐलान किया.

 लेकिन ये सारे प्रोजेक्ट परवान नहीं चढ़ सके.‘लव एंड गॉड’ जैसे तैसे शूटिंग के लिए फ़्लोर पर पहुंची, तो उसमें कई अड़चने पेश आईं.पहले फ़िल्म के हीरो गुरुदत्त के इंतिकाल से फ़िल्म बनने में रुकावट आई, बाद में जब यह संजीव कुमार के साथ दोबारा शुरू हुई और मुक़म्मल होने को थी, तो के.आसिफ़ ने अपनी आंखें मूंद लीं.

 9मार्च, 1971को महज़ 47साल की उम्र में हिंदुस्तानी सिनेमा का यह अज़ीम फ़िल्मकार हमसे हमेशा के लिए दूर हो गया.के.आसिफ़ के इंतिकाल के बाद ‘लव एंड गॉड’ निर्माता-निर्देशक केसी बोकड़िया ने पूरी की। साल 1986में यह फ़िल्म रिलीज़ हुई, मगर कोई करिश्मा नहीं दिखा पाई.

के.आसिफ़ ने ‘मुग़ल-ए-आज़म’ और ‘लव एंड गॉड’ जैसी अज़ीमुश्शान फ़िल्में बनाईं.इन पर पानी की तरह पैसा बहाया.ज़रूरतमंदों की हमेशा पैसे से मदद की लेकिन ख़ुद पर कभी ज़्यादा पैसा ख़र्च नहीं किया. असल ज़िंदगी में वे अलग ही मिज़ाज की शख़्सियत थे.सफे़द कपड़े और जूते के बनिस्बत चप्पलें पहनना उनकी आदत में शुमार था.हमेशा ज़मीन पर सोना पसंद करते थे.

इतनी कामयाबी हासिल करने के बाद भी कभी अपने लिए कार नहीं ख़रीदी.हमेशा किराए की टैक्सी में घूमते रहे. चैनस्मोकर थे.सिगरेट हर दम होठों पर लगी रहती.जुनूनी शख़्स थे.जो बात ठान लेते, उसे पूरा कर ही दम लेते.अदाकार अजित ने के.आसिफ़ के साथ अपने काम के तजुर्बे को इन अल्फ़ाज़ में बयां किया है, ‘‘वह सेट पर बीस-बीस घंटे लगातार खड़े रहते और हर अदाकार से उस वक़्त तक काम लेते, जब तक खु़द बिल्कुल मुतमईन न हो जाएं.

 बार-बार ऐसा हुआ कि दूसरी सुबह हुई और रात से दूसरी रात, लेकिन क्या मजाल कि आसिफ़ साहब के चेहरे पर थकन या बोरियत का साया तक दिखाई देता हो.’’

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