अजित राय
जेद्दा, सऊदी अरब से
सऊदी अरब के जेद्दा में आयोजित चौथे रेड सी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के प्रतियोगिता खंड में बांग्लादेश के मकसूद हुसैन की फिल्म ' साबा ' की बड़ी चर्चा है. इस साल बांग्लादेश में हुए सांप्रदायिक दंगों की छाया में यह फिल्म देश की अंतहीन गरीबी और जीवन संघर्षों की कई अनकही कहानियां सामने लाती है.
पूरी फिल्म यूरोपीय नव यथार्थवादी ढांचे में बनी है. जमाने के बाद विश्व सिनेमा में किसी ऐसी बांग्लादेशी फिल्म ने दस्तक दी है जो दूर तलक जाएगी. बांग्लादेश की राजधानी ढाका की एक निम्नवर्गीय बस्ती के जनता फ्लैट में रहने वाली पच्चीस साल की अनब्याही लड़की साबा करीमी ( महजबीन चौधरी) के दुःखों का कोई अंत नहीं.
पैसे की कमी के कारण उसकी पढ़ाई छूट चुकी है. उसका पिता सबको भगवान भरोसे छोड़ कर नार्वे भाग चुका है. वह उस छोटे से जनता फ्लैट में अपनी बीमार मां शीरीन ( रुकैया प्राची) के साथ रहती हैं. दिल की मरीज उसकी मां को कमर के नीचे लकवा मार गया है. यह एक अजीबोगरीब स्थिति है. एक ही फ्लैट में दो औरतें कैद हैं.
शीरीन शारीरिक रूप से कैद हैं .वह अपने से हिल डुल भी नहीं सकती,जबकि उसकी बेटी साबा भावनात्मक रूप से कैद हैं. वह अपनी मां को अकेले मरता हुआ नहीं छोड़ सकती. कई बार दोनों औरतों की ऊब और निराशा एक दूसरे पर भारी पड़ता है. बिस्तर पर पड़ने के बाद से शीरीन ने बाहर की दुनिया नहीं देखी. दोनों के लिए यह कैद जानलेवा है.
साबा को घर चलाने के लिए ढाका के एक हुक्का बार में नौकरी करनी पड़ती है. पहले तो मैनेजर अंकुर उसे नौकरी देने से इंकार करता है क्योंकि एक तो उस बार में लड़कियां काम नहीं करती,
दूसरे बार में देर रात तक कोई लड़की कैसे काम कर सकती है. धीरे-धीरे साबा बार मैनेजर अंकुर से दोस्ती कर लेती है ताकि वह उसे काम के बीच एक घंटे के लिए घर जाकर मां की देखभाल के लिए छुट्टी दे दे.
वह बीच में भागती दौड़ती घर आती हैं और अपनी मां का डायपर बदलती है. दवा और खाना देती है और दरवाजा बंद करके ड्यूटी पर आ जाती है. उदासी ऊब और लाचारी में उसकी आखिरी उम्मीद अंकुर है जो किसी तरह पैसा जमा कर फ्रांस भाग जाना चाहता है. वह अक्सर बार से कुछ चीजें चुरा लेता है.
वह साबा मे दिलचस्पी लेने लगता है. उसकी पत्नी कैंसर से मर चुकी है. वह अकेला है.पर साबा के जीवन में इन सबके लिए कोई जगह नहीं है.एक दिन शीरीन की सांस रुकने लगती है.
अस्पताल में डॉक्टर ऑपरेशन की सलाह देते हैं. ऑपरेशन के लिए एक लाख रुपए एडवांस जमा कराना है. साबा की मुश्किल है कि इतने रुपए कहां से लाए. वह अपने एक रिश्तेदार के यहां अपना फ्लैट गिरवी रखने की कोशिश करती है.
पता चलता है कि उसके पिता ने किसी को पहले ही वह फ्लैट बेच दिया है. एक नाटकीय घटनाक्रम में साबा चोरी की बात बार के मालिक को बता देती हैं जिसके बदले में वह उसे एक लाख रुपए एडवांस दे देता है. यह एक त्रासद स्थिति है .
साबा को अपनी मां की जान बचाने के लिए अपने प्रेमी को पकड़वाना पड़ता है. उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है. उसका तीन महीने का वेतन रोक लिया जाता है. इस तरह फ्रांस जाने का सपना अधूरा रह जाता है.
मकसूद हुसैन ने ढाका के निम्न मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण बहुत गहराई से किया है. एक दृश्य में साबा और अंकुर घर और दफ्तर की दमघोंटू दुनिया से भागकर ढाका के फ्लाईओवर पर खुली हवा में बीयर पी रहे होते हैं कि तभी पुलिस आ जाती है.
अंकुर जैसे तैसे पुलिस को रिश्वत देकर मामला सुलझाता है. दूसरे दृश्य में साबा अंकुर की मदद से अपनी मां को उठाकर एक पार्क में लाती है. उसकी मां पहली बार घर से बाहर की खुली हवा में सांस लेती है.
पर वह अंकुर को पसंद नहीं करती. उसे लगता है कि वह साबा का फायदा उठाकर एक दिन भाग जाएगा. इसी वजह से जब साबा अंकुर को खाने पर घर बुलाती है तो उसकी मां उसे बेइज्जत कर देती है. फिल्म बताती है कि गरीबी सबसे बड़ा अभिशाप है.
मकसूद हुसैन ने फिल्म में प्रकट हिंसा कहीं नहीं दिखाया है,लेकिन वातावरण में हर पल हिंसा की आहट सुनाई देती है. एक एक दृश्य को यथार्थवादी ढांचे में फिल्माया गया है. साबा की भूमिका में महजबीन चौधरी ने बेमिसाल काम किया है.
अंतिम दृश्य में सारे झंझावातों के बाद जब साबा की मां शीरीन अस्पताल जाने से मना कर देती है, क्योंकि वह अपने घर में आखिरी सांस लेना चाहती है तो साबा दोबारा अंकुर के घर जाती है. दोनों का सामना होता है. एक अंतहीन मौन सब-कुछ कह देता है.
साबा फिल्म में कोई राजनीतिक टिप्पणी नहीं है, पर देश की गरीबी और लाचारी की विकलांग सच्चाई है. शीरीन की विकलांगता जैसे पूरे समाज के विकलांग होने का प्रतीक बन गई है. साबा की उम्मीद में भी नियति का ग्रहण लग चुका है. इसके बावजूद वह अपनी मेहनत और ईमानदारी के बल बूते जिंदगी की जंग लड़ रही है.