मदरसा सुधार कार्यक्रम के जरिए गैर-सरकारी संगठन ला रहे हैं मदरसों की पढ़ाई में बदलाव

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  onikamaheshwari | Date 23-07-2024
Through the Madrasa Reform Program, non-governmental organizations are bringing changes in the education of Madrasas
Through the Madrasa Reform Program, non-governmental organizations are bringing changes in the education of Madrasas

 

मंजीत ठाकुर / नई दिल्ली

मदरसा सुधार कार्यक्रम’ ने उत्तर प्रदेश के पहले से ही परम्परागत स्कूलों में बच्चों और उनके शिक्षकों के लिए शिक्षण और सहभागितापूर्ण सीखने के प्रगतिशील तरीकों की शुरुआत की है.
 
विष्णु प्रजापति की उम्र 14 साल है और उन्होंने अपने स्कूल में उर्दू के सर्वश्रेष्ठ छात्र का सम्मान जीता है. जौनपुर के तिघरा गाँव में मदरसा जामिया दारुल-उल-उलूम हनफ़िया में पढ़ने वाले विष्णु प्रजापति अकेले हिंदू छात्र नहीं है, बल्कि उस मदरसे में 36 अन्य हिंदू छात्र भी पढ़ते हैं.किसान के बेटे विष्णु शुरू में मदरसे में नहीं पढ़ रहे हैं बल्किन वह पास के सरकारी स्कूल आदर्श प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते थे.
 
लेकिन उनके पिता मुखू प्रजापति को लगा कि ‘वहाँ पढ़ाई बहुत खराब थी.’ असल में, उस मदरसे में विष्णु और उनके जैसे 36 हिंदू बच्चे ही नहीं पढ़ते बल्कि वहां के शिक्षकों में एक नाम उमेश कुमार चौधरी का भी है. असल में, मदरसे की पढ़ाई में ‘मदरसा सुधार कार्यक्रम’ के जरिए सुधार आया है.
 
‘मदरसा सुधार कार्यक्रम’ (एमआईपी) टाटा ट्रस्ट्स की एक पहल है, जिसके जरिए मदरसों में बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने की पहल की जा रही है. एमआईपी, वंचित और हाशिए पर पड़े समुदायों को शिक्षा तक बेहतर पहुंच प्रदान करने के ट्रस्ट के व्यापक प्रयास का हिस्सा है, जिसे उत्तर प्रदेश के वाराणसी और जौनपुर में लागू किया जा रहा है और इसमें कुल 50 मदरसे और लगभग 10,000 बच्चे शामिल हैं.
 
 
बेशक, जौनपुर का तिघरा गाँव भी इसमें शामिल था, जिस मदरसे के प्रबंधक अब्दुल हई टाटा ट्रस्ट को दिए इंटरव्यू में कहते हैं, “जब हमने शुरुआत की तो हमने गरीब परिवारों के माता-पिता से अपने बच्चों को भेजने के लिए कहा. शुरू में कुछ हिंदू परिवार संशय में थे, लेकिन अब वे समझ गए हैं कि स्कूल में क्या-क्या है.”
 
मदरसे के शिक्षक उमेश कुमार चौधरी ट्रस्ट और उनके सहयोगियों द्वारा शुरू की गई नई शिक्षण विधियों के मुखर समर्थक हैं. चौधरी कहते हैं, "जब तक ट्रस्ट ने बच्चों को शामिल करने का तरीका नहीं दिखाया, तब तक मुझे इन तकनीकों के बारे में पता नहीं था." चौधरी कहते हैं कि मदरसे में पढ़ाने से इस्लाम के बारे में उनका ज्ञान और उनकी सामाजिक स्थिति में भी सुधार हुआ है.
 
इस पहल में ट्रस्ट के साथ दो स्थानीय गैर-सरकारी संगठन, वाराणसी में पीपुल्स विजिलेंस कमेटी ऑन ह्यूमन राइट्स (पीवीसीएचआर) और जौनपुर में आज़ाद शिक्षा केंद्र (एएसके) भी भागीदार हैं.
 
इसके अलावा चुने गए मदरसों की प्रबंधन समितियाँ - जिनमें से 30 जौनपुर में और 20 वाराणसी में हैं - वहाँ के शिक्षक और बच्चे और स्थानीय समुदाय भी इसमें भागीदार हैं. इन संस्थानों को उन्नत और आधुनिक बनाना कार्यक्रम की प्राथमिकता है.
 
इसका मतलब है कि मदरसा छात्रों को नियमित स्कूलों में जाने में मदद करने के लिए समकालीन पाठ्यक्रम मानकों और सीखने के तरीकों और सामग्रियों को लाना.
 
मदरसा इम्प्रूवमेंट प्रोग्राम का पहला चरण 2005 में उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ था और इसने सरकारी स्कूलों के साथ-साथ मदरसों को भी लक्षित किया था, जिसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की पहुँच में सुधार करना था. 2008 के बाद से, टाटा ट्रस्ट ने इस काम को अधिक व्यापक बनाया है.
 
2013 और 2018 के बीच, कार्यक्रम का विस्ता किया गया और उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार और झारखंड के मदरसों को भी इसके तहत कवर किया गया. इस पाँच साल की अवधि के दौरान, यह पहल तीनों राज्यों में 45,000 से अधिक छात्रों तक पहुँची. अब तक लगभग 100,000 बच्चे, जिनमें से अधिकांश लड़कियाँ हैं, एमआईपी से लाभान्वित हुए हैं.
 
 
ट्रस्ट का अधिक ध्यान उत्तर प्रदेश पर ही है. ट्रस्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जो अपने मदरसों के आधुनिकीकरण में सबसे पीछे है. अनुमान है कि उत्तर प्रदेश में ऐसे 35,000-40,000 स्कूल हैं और केवल 19,000 को ही सरकारी मान्यता प्राप्त है. इससे फंडिंग और शिक्षकों के प्रावधान के रूप में आधिकारिक समर्थन सुनिश्चित होता है. बाकी मुख्य रूप से समुदाय के सदस्यों के दान पर चलते हैं, जिससे उनकी हालत खस्ता है.
 
वाराणसी के बजरडीहा इलाके में मदरसा रिजविया राशिद-उल-उलूम इसकी एक मिसाल है.  वाराणसी के स्लम बजरडीहा की आबादी करीब ढाई लाख  है. यहां केवल एक सरकारी प्राथमिक स्कूल है और नतीजतन बजरडीहा की साक्षरता दर लगभग 62 फीसद ही है.
 
लेकिन उत्तर प्रदेश के मदरसों में एक नया चलन दिखता है. बजरडीहा वाले मदरसे में 350 छात्रों में से 245 लड़कियां हैं.असल में, गरीब परिवारों के लोग अपने लड़कों को खानदानी पेशों में डाल देते हैं. बुनकरों के इलाके बजरडीहा में भी यही चलन है. ऐसे में लड़कियों की संख्या मदरसों में ज्यादा दिखने लगी है.
 
लेकिन मदरसा सुधार कार्यक्रम के सामने बड़ी चुनौतियां भी हैं. शिक्षा का माध्यम उर्दू है और विज्ञान जैसे विषयों के प्रति दृष्टिकोण धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है. मदरसे की पाठ्य-पुस्तकों में चित्रों की अनुमति नहीं है क्योंकि इस्लाम में चित्र प्रतिबंधित हैं. लिहाजा, स्थिति में सुधार करना कोई आसान काम नहीं है.
 
जौनपुर के तिघड़ा गांव में विष्णु प्रजापति वाले मदरसे में 119 छात्र हैं और उनके अभिभावकों ने उन्हें अपनी पसंद से वहां दाखिला दिलाया है. गैर-सरकारी संस्था एएसके के संस्थापक निसार अहमद खान ने टाटा ट्रस्ट की एक रिपोर्ट में कहा है, "यहां के सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा की गुणवत्ता अच्छी नहीं है, इसलिए लोग - मुस्लिम और हिंदू दोनों - अपने बच्चों को इस मदरसे में भेज रहे हैं."
 
 
खान की बात सच है. रेहाना निसा ने अपने आठ साल के बेटे आसिफ को तिघरा के पीएनजीवाई कॉन्वेंट स्कूल से निकालकर मदरसे में भेजना शुरू कर दिया. निसा के मुताबिक, "कॉन्वेंट स्कूल में किताबें बहुत थीं और पढ़ाई बहुत कम."
 
अब इन मदरसों में नई गतिविधियां शुरू हुई हैं. जामिया दारुल-उल-उलूम हनफिया समर कैंप आयोजित करता है - जो पहले कभी नहीं सुना गया था - और वे सिर्फ छात्रों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी के लिए खुले हैं. मदरसे के प्रबंधन को अब बच्चों की भीड़ का सामना करना पड़ रहा है. 
 
टाटा ट्रस्ट की रिपोर्ट में स्कूल के प्रबंधक अब्दुल हई को उद्धृत किया गया है जो कहते हैं, "मांग इतनी अधिक है कि हमें जगह की कमी के कारण छात्रों को वापस भेजना पड़ा है." स्कूलों के इस बदलाव का समाज और समुदाय ने व्यापक रूप से स्वागत किया है.
 
पुस्तकालय, शिक्षक प्रशिक्षण, परियोजना-आधारित दृष्टिकोण, विविध शिक्षण गतिविधियाँ और सबसे महत्वपूर्ण बात, तकनीक के इस्तेमाल ने मदरसों में दीनी औ दुनियावी दोनों तालीमों में एक संतुलन लाना शुरू किया है. जाहिर है, यह छात्रों के हित में ही है.