शिक्षा की दुनिया में संकीर्ण एवं सीमित देश-प्रेम बेमानी है

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  onikamaheshwari | Date 11-11-2022
शिक्षा की दुनिया में संकीर्ण एवं सीमित देश-प्रेम बेमानी है -ज़ाहिद ख़ान
शिक्षा की दुनिया में संकीर्ण एवं सीमित देश-प्रेम बेमानी है -ज़ाहिद ख़ान

 

ज़ाहिद ख़ान
 
देश में हर साल 11 नवम्बर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जन्मदिन, ‘राष्ट्रीय शिक्षा दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है. शिक्षा के क्षेत्र में मौलाना आज़ाद का योगदान अतुलनीय है. स्वतंत्र भारत के वह पहले शिक्षा मंत्री थे. आज़ादी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में जो भी नेशनल प्रोग्राम बने, उनमें मौलाना आज़ाद का अहमतरीन रोल था. दूसरी आलमी जंग के बाद जब सारी दुनिया में तालीम को लेकर बड़े पैमाने पर काम हो रहा था, तो वो मौलाना आज़ाद ही थे, जिन्होंने भारत में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अहम किरदार निभाया.

विश्वस्तरीय शिक्षा का देश में प्रसार हो, इसके लिए उन्होंने ना सिर्फ़ बच्चों को, बल्कि बड़ों को भी ज़्यादा से ज़्यादा स्कूल से जोड़ने की प्रक्रिया शुरू की. शिक्षा के बारे में मौलाना आज़ाद के ख़याल बड़े ही क्रांतिकारी थे. उनका कहना था,‘‘यह प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है कि उसे कम से कम बुनियादी शिक्षा मिले. जिसके बग़ैर वह एक नागरिक के तौर पर अपने कर्त्तव्यों को पूरी तरह नहीं निभा सकता.’’
 
दरअसल, शिक्षा के माध्यम से मौलाना आज़ाद, समाज का स्तर ऊपर उठाना चाहते थे. यही वजह है कि शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने कई कार्य किए. शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने देश में नई राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को बनाया. इस शिक्षा प्रणाली में सभी बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य व मुफ़्त की गई.
 
प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने देश में उच्च शिक्षा के लिए आधुनिक संस्थानों को बनाने पर भी काफ़ी ज़ोर दिया. मौलाना आज़ाद ने यूजीसी यानी यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन की नींव रखी. जिसका मुख्य उद्देश्य उच्च शिक्षा को बढ़ावा देना, भारत के सभी विश्वविद्यालयों के कार्यों का विश्लेषण करना और एक-दूसरे के बीच समायोजन स्थापित करना था. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने हमेशा आधुनिक संस्थाओं को खोलने की हिमायत की.
 
मौलाना आज़ाद, बचपन से ही अध्ययन में गहरी दिलचस्पी रखते थे. बारह साल की छोटी सी उम्र में वे फ़ारसी और अरबी की तालीम पूरी कर चुके थे. मौलाना आज़ाद ने स्वाध्याय से ही अंग्रेजी का अभ्यास किया. कम उम्र में मौलाना आज़ाद की काबिलियत, सलाहियत और दानिश्वरी से मुतअसिर होकर मौलाना शिबली नोमानी ने उनसे कहा था,‘‘तुम्हारा ज़ेहन व दिमाग अजायबे रोजगार (आश्चर्यजनक वस्तुओं) में से है.
 
तुम्हें तो किसी इल्मी नुमाइशगाह में बतौर अजूबे के पेश करना चाहिए.’’ उनके बारे में कमोबेश ऐसे ही बात सरोजिनी नायडू ने भी की थी,‘‘मौलाना की उम्र की बात मत करो, जब वे पैदा हुए थे, तब पचास साल के थे.’’
 
मौलाना आज़ाद ने तेरह साल से अठारह साल तक की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मुस्लिम विधि पर ‘एलानुल-हक़’, सूफ़ी मतों पर टीका करते हुए ‘अहसनुल-मसालिक’, मशहूर शायर उमर ख़य्याम का जीवन चरित्र, इस्लाम और आधुनिक विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन पर ‘अल-अलूमुल जदीदः वलइस्लाम’, नक्षत्र ज्ञान पर ‘अलहैयत’, इस्लाम के अद्वैतवाद और संसार के अन्य धर्मों की एकरूपता पर ‘इस्लामी तौहीद और मज़ाहिबे आलम’ जैसी किताबें लिख दी थीं.
 
मौलाना आजाद ने मुसलमानों को तंग नज़रिए और फ़िरकापरस्ती से दूर रहकर, इंसानियत से मुहब्बत करने की तालीम दी. उन्हें समझाने के लिए वे अपनी बात अक्सर कुरान के हवाले से करते थे,‘‘कुरान में इंसानी बिरादरी और भाईचारे पर ज़ोर दिया गया है और इस ख़याल की मुख़ालफ़त की गई है कि सामाजिक या नस्ल के आधार पर इंसान का कोई तबक़ा, दूसरे तबक़े से अफ़ज़ल हो सकता है.’’
 
मौलाना आज़ाद ने बरतानिया हुकूमत के नस्ली भेद-भाव और शासन के अत्याचारी तौर-तरीक़ों की अपने लेखों में ख़ुलकर मुख़ालफ़त की. साल 1902 में उन्होंने ‘अल-हिलाल’ अख़बार निकाला, जो आगे चलकर देश की राष्ट्रीय विचारधारा के विकास में प्रभावशाली योगदान देने वाला साबित हुआ.
 
राष्ट्रीय क्षेत्र में ‘अल हिलाल’ राष्ट्रवाद का प्रहरी बनकर सामने आया. इस अख़बार के ज़रिए मौलाना आज़ाद ने ब्रिटिश नीतियों का जमकर विरोध किया. देशवासियों को उन्होंने राष्ट्रवाद के प्रति प्रेरित किया. नतीजतन, साल 1914 में अंग्रेज़ हुकूमत ने प्रेस अधिनियम के तहत उनके अख़बार पर पाबंदी लगा दी.
 
लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत की कोई भी पाबंदियां उन्हें रोक नहीं पाईं. एक अख़बार पर पाबंदी लगती, मौलाना आज़ाद दूसरा अख़बार निकाल लेते. इसी तरह आम अवाम को वे लगातार अपने लेखन से बेदार करते रहे. स्वतंत्रता आंदोलन में मौलाना आज़ाद का आग़ाज़ एक क्रांतिकारी के तौर पर हुआ.
 
बंगाल के क्रांतिकारी लीडर श्याम सुंदर चक्रवती और अरविंद घोष से प्रभावित होकर, वे क्रांतिकारी आंदोलन में शरीक़ हुए. लेकिन 18 जनवरी, 1920 को महात्मा गांधी के साथ मुलाकात के बाद, वो कांग्रेस में शामिल हो गए. मौलाना आज़ाद ने गांधी और कांग्रेस के दूसरे बड़े लीडरों के साथ असहयोग आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए देश भर की यात्राएं की.
 
जंग—ए—आज़ादी के दौर में मौलाना आज़ाद का नाम महात्मा गांधी, सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस जैसे राष्ट्रीय नेताओं के साथ अग्रिम पंक्ति में शुमार होता था. समग्र राष्ट्रीय आंदोलन में उनका योगदान अभूतपूर्व और अद्वितीय था.
 
यहां तक कहा जाता है कि यदि मौलाना आज़ाद ने हिंदू और मुसलमानों को एकजुट कर दोनों को एक साथ लाने का बीड़ा न उठाया होता, तो हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की शक्ल कुछ और ही होती. हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए महात्मा गांधी के साथ मिलकर उन्होंने बेजोड़ काम किए.
 
उनकी सोच थी,‘‘यदि स्वराज के मिलने में देरी हुई, तो यह हिंदुस्तान का नुकसान होगा. लेकिन अगर हमारी एकता जाती रही, तो यह विश्व-मानवता का नुकसान है.’’ स्वतंत्रता आंदोलन में मौलाना आज़ाद की अहमियत इसलिए और बढ़ जाती है कि उनके आने से पहले सर सैयद अहमद खां ने मुसलमानों के दिल में यह बात अच्छी तरह से बैठा दी थी कि अगर उन्हें मुल्क में तरक़्क़ी करना है, तो सरकारपरस्ती की राह पर चलना होगा.
 
आज़ादी की तहरीक में मौलाना आज़ाद का आग़ाज़ हुआ, तो उन्होंने अपनी तमाम तक़रीरों में मुसलमानों से उस रास्ते से हटकर, अपने हिंदू भाईयों के साथ अंग्रेज़ हुकूमत का विरोध करने का पैग़ाम दिया. 25 अगस्त, 1921 को दी गई अपनी ऐसी ही एक तक़रीर में मौलाना आज़ाद ने मुसलमानों को ख़िताब करते हुए कहा,‘‘मेरा अक़ीदा है कि हिंदुस्तान में हिंदुस्तान के मुसलमान अपने बेहतरीन फ़र्ज़ तब तक अदा नहीं कर सकते, जब तक वे इस्लाम के आदेशों के मुताबिक हिंदुस्तान के हिंदुओं से पूरी सच्चाई के साथ एकता और इत्तेफ़ाक़ न कर लें.’’
 
आज़ादी के आंदोलन में भागीदारी की वजह से साल 1916 में पहली बार मौलाना आज़ाद की नज़रबंदी हुई और उसके बाद साल 1945 तक आते-आते वे छह बार और ज़ेल की सलाख़ों के पीछे भेजे गए. दस साल का लंबा वक्फ़ा उन्होंने ज़ेल में बिताया, लेकिन उनकी वतनपरस्ती में कोई कमी नहीं आई.
 
मुल्क के लिए किसी भी तरह की क़ुर्बानी देने के लिए वो हमेशा पेश-पेश रहे. मौलाना आज़ाद, मज़हब के नाम पर अलगाववाद को बढ़ावा देने वाली हर गतिविधि के मुख़ालिफ़ थे. राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान साम्प्रदायिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए उन्होंने मुस्लिम लीग से जुड़े कई मुस्लिम सियासतदानों की ख़ुलकर आलोचना की.
 
ज़ाहिर है अपनी राजनीतिक आस्थाओं तथा विचारों के चलते उन्हें मुसलमानों के एक बड़े तबक़े का विरोध भी झेलना पड़ा. बावजूद इसके उन्होने महात्मा गांधी और कांग्रेस का साथ नहीं छोड़ा। मौलाना आज़ाद ने नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, असहयोग, स्वदेशी, ख़िलाफ़त और भारत छोड़ो जैसे सभी बड़े आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की क्रिप्स मिशन,
 
शिमला कांफ्रेंस, केबिनेट मिशन, माउंटबेटन मिशन और अस्थायी सरकार यानी जब भी किसी निर्णायक मोड़ या मरहले पर कांग्रेस को उनकी ज़रूरत पड़ी, वे सबसे आगे खड़े रहे. साल 1923 में वे कांग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष चुने गए.
 
आज़ादी का आंदोलन जब निर्णायक स्थिति में था, उस वक़्त यानी साल 1940 से 1945 के दरमियान भी मौलाना आज़ाद के पास ही कांग्रेस की बागडोर थी. साल 1946 में जब मुस्लिम लीग और मुहम्मद अली जिन्ना ने बंटवारे की मांग तेज की, तो मौलाना आज़ाद इसके ख़िलाफ़ डटकर खड़े हो गए.
 
वे बंटवारे के घोर विरोधी थे. उनका मानना था कि हिंदू और मुसलमान दोनों भाई-भाई हैं, लिहाज़ा मज़हब के नाम पर देश के बंटवारे की कोई ज़रूरत नहीं. 14 जून 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में मौलाना आजाद ने अपनी तक़रीर में कहा,‘‘कार्यसमिति जिस फ़ैसले पर पहुंची है,
 
वह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का नतीजा है. विभाजन भारत के लिए एक ट्रैजेडी है, इसके पक्ष में सिर्फ़ एक बात कही जा सकती है कि हमने बंटवारे को टालने की बहुत कोशिश की है, लेकिन हम असफल रहे। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुल्क एक है और इसका सांस्कृतिक जीवन एक है और एक रहेगा.
 
राजनीतिक रूप से हम असफल हुए हैं और इसलिए देश को बांट रहे हैं. हमें अपनी पराजय स्वीकार करनी चाहिए लेकिन इसी समय हमें यह भी आश्वासन देना चाहिए कि हमारी संस्कृति विभाजित न होने पाए.’’ उनकी लाख कोशिशों के बावजूद भारत का बंटवारा हो गया. बहुत से मुस्लिम लीडर बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए, लेकिन मौलाना आज़ाद ने भारत में ही रहना मंज़ूर किया.
 
मौलाना आजाद साल 1952 और 1957 के आम चुनाव में लोकसभा के लिए चुने गए. आजादी के बाद उन्होंने पंडित नेहरू के नज़दीकी सलाहकार के तौर पर काम किया. राष्ट्रीय नीतियों को बनाने में मौलाना आज़ाद की महत्वपूर्ण भूमिका रही.
 
उन्होंने देश में शिक्षा के अलावा सांस्कृतिक नीतियों की भी नींव रखी. चित्रकला, मूर्तिकला और साहित्य के विकास के लिए मौलाना आज़ाद ने ललित कला अकादेमी, संगीत नाटक अकादेमी और साहित्य अकादेमी की स्थापना की.
 
उन्होंने साल 1950 में ‘इंडियन काउंसिल फोर कल्चरल रिलेशंस’ की स्थापना की, जिसका मुख्य काम दीगर देशों के साथ सांस्कृतिक संबंधों को बनाना और बढ़ाना था. मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय एकता की एक अनूठी मिसाल थे.
 
भारतीय संविधान में धर्म निरपेक्षता, धार्मिक स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों को जुड़वाने में उनकी अहम भूमिका रही. मौलाना आज़ाद शिक्षा को समाज के बदलने का एक बड़ा माध्यम मानते थे. मौलाना आज़ाद ने स्वतंत्र भारत में शिक्षा का आधुनिक ढांचा खड़ा किया.
 
राष्ट्रीय शिक्षा का मसौदा पेश करते हुए उन्होंने कहा था,‘‘शिक्षा की दुनिया में संकीर्ण एवं सीमित देश-प्रेम बेमानी है.’’ मौलाना आज़ाद के कार्यकाल में ही साल 1948 में ‘विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग’ की क़ायमगी हुई। वो वैज्ञानिक और तकनीकी तालीम के बड़े हामी थे.
 
मुल्क में ‘जादवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज’, ‘खड़गपुर इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी’ जैसे महत्वपूर्ण संस्थान उन्हीं की कोशिशों का नतीजा हैं. मौलाना आज़ाद ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ जैसी आला दर्जे की यूनिवर्सिटी के संस्थापक सदस्य रहे, तो वहीं ‘अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी’ का आधुनिक चेहरा भी उन्ही की कोशिशों से मुमकिन हुआ.
 
पहले मुल्क की आज़ादी और फिर उसके बाद जदीद हिंदुस्तान की तामीर, इन दोनों ही शोबों में मौलाना आज़ाद ने जो किरदार—अदा किया है,उसे कोई कैसे नज़र-अंदाज़ कर सकता है ?