हरजिंदर
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 1857 का विद्रोह एक ऐसी लड़ाई था जिसमें धर्म या जाति का कोई भेद नहीं था. सभी धर्मों के लोगों ने इस लड़ाई में किस तरह कंधे से कंधा मिलकार हिस्सा लिया इस पर अभी तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है. इस विद्रोह के नेतृत्व में बड़ी संख्या में भारतीय मुसलमान भी थे.
अगर आबादी के लिहाज से देख जाए तो इस लड़ाई में भाग लेने वाले मुसलमानों का अनुपात उनकी उनकी आबादी के हिसाब से काफी ज्यादा था. जब बगावत हुई तो दिल्ली में देश के नेता बहादुर शाह जफर थे. लेकिन कहा जाता है कि दिल्ली का नियंत्रण उस समय जनरल बख्त खान के हाथ में था.
उन्होंने दिल्ली में एक फौजी अदालत का गठन भी किया था जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों ही थे. दिल्ली से थोड़ा आगे कानुपर में यही काम अजीमुल्लाह कर रहे थे.
वे नाना साहब पेशवा के खास सिपहसालार थे. थोड़ा सा आगे लखनऊ में लड़ाई का नेतृत्व बेगम हजरत महल के हाथ में था. जहां उनकी मदद के लिए फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह पहुंच चुके थे.
जबकि दक्षिण बिहार में नादिर अली खान जैसे जमींदार ने इस लड़ाई का नेतृत्व संभाला था. उधर लाहौर में मुफ्ती निजामुद्दीन ने फतवा जारी करके लोगों से कहा कि वे अंग्रेजों लड़ रहे राव तुला राम की फौजों का साथ दें.
आजादी की लड़ाई में इन मुस्लिम महिलाओं की भूमिका भी अहम
अंग्रेजों ने इस चीज को खास तौर पर नोटिस किया. इस विद्रोह को बाद में जब दबा दिया गया तो उन्होंने बड़ी संख्या में मुसलमानों को निशाना बनाया. विद्रोह के आरोप में लाखों लोगों को फांसी पर लटकाया गया था.
इनमें सैनिक कम और आम लोग ज्यादा थे. यह भी कहा जाता है कि चंद अमीर परिवारों को छोड़ दें तो पुरानी दिल्ली के ज्यादातर मुस्लिम नौजवान बगावत के बाद घरों से भाग गए.
उन्हें अंग्रेजों के अत्याचार से बचने का यही एक रास्ता दिखाई दिया. इनमें से कईं तो दो साल के बाद ही अपने घरों को लौटे. बहुत सारे मुल्ला मौलवी भी निशाने पर थे. इतना ही नहीं बहुत सारी इमारतों और खासकर मस्जिदों को नष्ट कर दिया गया.
दिल्ली की जामा मस्जिद और अकबराबादी मस्जिद को नष्ट कर दिया गया. अकबराबादी मस्जिद तो इतिहास में कहीं खो ही गई. अब कोई भी ठीक से बताने की स्थिति में नहीं है कि वह मस्जिद ठीक-ठीक किस जगह पर थी.
फतेहपुरी मस्जिद पर पहले कब्जा किया गया और फिर उसे लाला चुन्ना मल को 19,000 रुपये में बेच दिया गया. हालांकि इस मस्जिद को न तो अंग्रेजों के हमले में और न ही उसके बाद कोई नुकसान पहुंचा. लेकिन मुस्लिम समुदाय को यह मस्जिद वापस मिलने में 20 साल का समय लग गया.
शौकत अली के साथ उनके साथी
दरियागंज की जीनत उल मस्जिद को बेकरी बना दिया गया जहां ब्रिटिश सैनिकों के लिए खाना बनता था.यह भी माना जाता है कि इस बगावत से अंग्रेजों को समझ में आ गया कि अगर हिंदू मुसलमान एक साथ जुट जाएंगे तो वह उनके लिए बड़ा खतरा बन सकते हैं.
यहीं से दोनों समुदायों के बीच तफरका पैदा करने की नीति अपनाई जाने लगी. बांटों और राज करो का मुहावरा इसी से बना.लेकिन यह सब आजादी के परवानों को रोक नहीं सका.
उसके बाद से आप आजादी के लिए जितने भी आदांलन देखते हैं सभी में मुस्लिम समुदाय के लोगों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया. गदर आंदोलन शुरू हुआ तो इसमें मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली और रहमत अली शाह सक्रिय थे,
वे दोनों इसके संस्थापकों में से थे. बाद में काबुल में जब भारत की निर्वासित सरकार बनाई गई तो मौलाना बरकतुल्लाह को उसका प्रधानमंत्री बनाया गया. गृहमंत्री बनाए गए देवबंदी मौलवी उबैदुल्लाह सिंधी.
जंग लड़ने का महकमा दिया गया मौलवी बशीर को. इस सरकार में राष्ट्रपति राजा महेंद्र प्रताप को बनाया गया था और पांच लोगों की इस सरकार में तीन मुस्लिम थे.
इस बीच पूरी दुनिया में एक समझ यह बन रही थी कि लड़ाइयां अब आने वाले समय में अलग ढंग से होंगी. ऐसे लोगों की संख्या बहुत बड़ी थी जो यह मान रहे थे कि आने वाले समय में गरीब और मजदूर आगे आकर तख्त संभलेंगे. इसके लिए दुनिया भर में सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टियां बनीं.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी हालांकि पहले भारत से बाहर बनी थी, लेकिन बाद में जब कानपुर में उसका गठन हुआ तो उसे बनाने वाले पांच लोगों में तीन मुसलमान थे- शौकत उस्मानी, गुलाम हुसैन और मुजफ्फर अहमद.
लेकिन भारत ने कुछ अलग ही रास्ता चुना. यहां जल्द ही महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ. इसमें भी बड़ी संख्या में मुसलमानों ने शिरकत की.
इनमें सबसे बड़ा नाम था खान अब्दुल गफ्फार खान का या बादशाह खान का. उन्होंने लाल कुर्ती आंदोलन शुरू किया और लाखों बलूच लड़ाकों को अहिंसक फौजियों में बदल दिया.
महात्मा गांधी के साथ खान अब्दुल गफ्फार खान
यहां तक कि जब अंग्रेज फौज बंदूके तान कर खड़ी थी, ये लड़ाके उसके सामने सीना तान कर जम गए- चलाओ गोली. गोली चलाने का आदेश हुआ पर सैनिकों ने गोली चलाने से साफ मना कर दिया. इस एक घटना ने लड़ाई का पूरा परिदृश्य ही बदल दिया.
दूसरी तरफ जब हम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को देखते हैं तो स्थापना के दो साल बाद ही इसकी बागडोर मुंबई के बदरुद्दीन तैयबजी के हाथ आ गई और उसके बाद से इस संगठन की भूमिका बदलने लग पड़ी. बाद में कांग्रेस के स्वदेशी, स्वराज और भारत छोड़ों आंदोलन में हमेशा ही मुसलमानों की सक्रियता उनकी आबादी के अनुपात में ज्यादा ही रही.
हसरत मोहानी, सैफेदुल्लहा किचलू, हकीम अजमल खान, अली बंधु, हकीम अजमल खान और नवाब लतीफ खान से लेकर अबुल कलाम आजाद तक नामों की एक लंबी फेहरिस्त है जो शायर इस लेख से भी बड़ी हो. और मुमकिन है कि कुछ महत्वपूर्ण नाम तब भी छूट जाएं.
अबुल कलाम आजाद तो 1923 में जब कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए तो उनकी उम्र थी महज 35 साल। वे कांग्रेस के सबसे नौजवान अध्यक्ष रहे हैं. आजादी के आंदोलन की एक दूसरी धारा थी जो मानती थी कि सिर्फ अहिंसा से ही आजादी हासिल नहीं होने वाली.
भगत सिंह के नेतृत्व में ऐसे नौजवानों ने एक संगठन बनाया था हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन. इस संगठन के संस्थापकों में एक महत्वपूर्ण नाम था अशफाकउल्लाह का. अशफाक काकोरी कांड के मुख्य अभियुक्तों में थे और बाद में हंसते-हंसते वे फांसी पर लटक गए.
आजादी की एक और धारा थी जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजादी हिंद फौज के झंडे तले भारत के बाहर ब्रिटिश फौजों से लड़ रही थी. जब इस फौज की स्थापना हुई तो इसकी कमांड लेफ्टिनेंट कर्नल मुहम्मद ज़मान कियानी को सौंपी गई.
आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली मुस्लिम महिलाएं
जबकि लेफ्टिनेंट कर्नल शाह नवाज खान इसके चीफ आॅफ स्टाफ थे और सैनिकों को ट्रेनिंग देने का काम मेजर हबीब उर रहमान को सौंपा गया था. इसकी एक डिवीजन के कर्नल अब्दुल अजीज ताजिक संभाल रहे थे.
आजाद हिंद फौज के एक अफसर आबिद हुसैन का योगदान तो भूला ही नहीं जा सकता. सलामी देने के लिए जय हिंद का नारा उन्हीं की देन था. आज भी जब प्रधानमंत्री 15 अगस्त को लाल किले से देश को संबोधित करते हैं तो अंत में जय हिंद कहना नहीं भूलते.
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )