क्यों अल्लामा शिबली नोमानी को स्वतंत्रता सेनानी के रूप में सम्मानित किया जाए ?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 15-08-2024
Why should Allama Shibli Nomani be honoured as a freedom fighter?नित किया जाए ?
Why should Allama Shibli Nomani be honoured as a freedom fighter?नित किया जाए ?

 

साकिब सलीम

भारत में ब्रिटिश खुफिया विभाग ने 2 नवंबर 1912 को अल्लामा शिबली नोमानी की गतिविधियों के बारे में रिपोर्ट दी, “मौलाना शिबली जैसे स्वयंभू (मुस्लिम) राजनेता मुसलमानों को हिंदू बहुमत में मिलाना चाहते हैं.वे इस विचार से इतने मोहित हो गए हैं कि, अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, वे ऐतिहासिक घटनाओं की सच्चाई को नकारने में भी संकोच नहीं करते हैं… वह केवल अपने गुप्त उद्देश्य की परवाह करते हैं, चाहे उसके समुदाय का जो भी हश्र हो.”

रिपोर्ट मुस्लिम गजट में शिबली द्वारा लिखे गए लेख पर टिप्पणी थी और लाहौर स्थित पत्रिका मिल्लत में प्रकाशित इसकी आलोचना का इस्तेमाल उसके देशद्रोही स्वभाव को साबित करने के लिए किया गया था.

लेख में तर्क दिया गया था कि मुसलमानों को मुस्लिम लीग के बजाय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होना चाहिए.उन्होंने मुसलमानों से अंग्रेजों के खिलाफ हिंदुओं के साथ एकजुट होने को कहा.

1857 में आजमगढ़ में जन्मे अल्लामा शिबली नोमानी को एक स्वतंत्रता सेनानी की तुलना में आधुनिक दृष्टिकोण वाले एक इस्लामी विद्वान या शिक्षाविद् के रूप में अधिक देखा जाता है.वास्तव में, शिबली जिस दुनिया में रहते थे, उसके सबसे कट्टरपंथी स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे. उनकी मृत्यु 1915 में हुई थी.

स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी भारतीय नेताओं में से एक मौलाना अबुल कलाम आज़ाद शिबली से बहुत प्रभावित थे.आज़ाद को उन्होंने ही पढ़ाया और प्रशिक्षित किया.मोइन शाकिर लिखते हैं, “आजाद उनसे (शिबली से) पहली बार 1905 में मिले थे, जब वे (आजाद) सर सैयद के धर्मशास्त्र की तर्कसंगत विशेषता से मोहभंग हो रहे थे.

अल नदवा के संपादक होने के नाते उन्हें शिबली के साथ काम करने का अवसर मिला.सर सैयद के राजनीतिक कार्यक्रम की निरर्थकता और पश्चिमी शिक्षित वर्ग में अविश्वास, जो शिबली के विचारों की विशेषता थी, ने आज़ाद को बहुत प्रभावित किया.उनकी अपनी पत्रिका जनता के साथ संवाद का माध्यम बन गई और शिबली के इन विचारों को लोकप्रिय बनाने में बड़ी सफलता मिली.”

मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी ने भी शिबली और आज़ाद के गुरु के रिश्ते को रेखांकित किया है.वे लिखते हैं, “जब अल्लामा शिबली अपने किसी छात्र द्वारा लिखे जाने वाले लेख या शोध-पत्र से संतुष्ट नहीं होते थे, तो मौलाना आज़ाद चुपचाप उसके बारे में पूछते और तुरंत शोध-पत्र तैयार कर देते थे, जिसे अल्लामा शिबली भी स्वीकार कर लेते थे.

अक्सर अल्लामा शिबली चाहते थे कि लेख किसी नाजुक दार्शनिक या द्वंद्वात्मक मुद्दे पर लिखा जाए.ऐसे मौकों पर मौजूद लोगों को लगता था कि जिस नौजवान ने अपनी विद्वता से नहीं, बल्कि अपनी वाकपटुता से दूसरों का दिल जीता है, वह इस मौके पर अपनी पोल खोल देगा, लेकिन मौलाना आज़ाद हमेशा सफल होते थे.”

मौलाना आज़ाद शिबली के एकमात्र शिष्य नहीं थे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम पर प्रभाव डाला.मौलाना हसरत मोहानी, जिन्होंने इंकलाब जिंदाबाद का नारा दिया, वे भी शिबली की देन थे.जब हसरत ने मुसलमानों के बीच स्वदेशी आंदोलन को लोकप्रिय बनाने के लिए अलीगढ़ में स्वदेशी स्टोर खोला, तो कथित तौर पर शिबली ने इस परियोजना को वित्तपोषित किया.

अंग्रेज उनके प्रभाव को समझते थे.शिबली की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखी जाती थी.यह अभिलेखागार में खुफिया फाइलों में परिलक्षित होता है.18 अक्टूबर 1912 की एक खुफिया रिपोर्ट कहती है, “शम्स-उल-उलमा मौलवी शिबली नोमानी ने 9 अक्टूबर 1912 (14 अक्टूबर को प्राप्त) के मुस्लिम गजट (लखनऊ) में एक लेख का योगदान दिया, जिसमें उन्होंने मुसलमानों की वर्तमान राजनीतिक नीति की निंदा की उन्होंने अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की विभिन्न बैठकों में पारित प्रस्तावों की तुलना मुस्लिम लीग की बैठकों में पारित प्रस्तावों से की और खेद व्यक्त किया कि मुस्लिम लीग के सदस्यों को केवल सांप्रदायिक विषयों पर चर्चा करनी चाहिए थी और देश से संबंधित विषयों से बचना चाहिए था.

उन्होंने मुस्लिम लीग के प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर दिया.सुझाव दिया कि लीग की कार्यकारी समिति से जमींदारों और तालुकदारों को निकाल दिया जाना चाहिए.इसमें स्वतंत्र विचारों और नैतिक साहस वाले लोगों को शामिल किया जाना चाहिए.

अंत में उन्होंने अपने सह-धर्मियों से हिंदुओं के साथ अपने संबंधों को सुधारने और जनता के बीच राजनीतिक शिक्षा फैलाने की अपील की.अंत में वह अपने सह-धर्मियों से हिंदुओं के साथ अपने संबंधों को सुधारने और जनता के बीच राजनीतिक शिक्षा का प्रसार करने की अपील करता है.”

शिबली वही कर कर रहे थे जिससे ब्रिटिश साम्राज्य सबसे ज्यादा भयभीत थी.वह हिंदू मुस्लिम एकता का उपदेश दे रहे थे और लोगों से विभाजनकारी सांप्रदायिक राजनीति से दूर रहने के लिए कह रहे थे.

इंटेलिजेंस ने मई 1914 में दिल्ली में दिए गए एक भाषण की रिपोर्ट की जिसमें शिबली ने ब्रिटिश साम्राज्य की नस्लीय नीति पर हमला किया.रिपोर्ट कहती है, “19 तारीख को दिल्ली में अंजुमन-ए-खुद्दाम-ए-काबा की एक बैठक हुई.

मुख्य वक्ता मौलाना शिबली थे.उन्होंने श्रोताओं से पूछा कि एक राष्ट्र द्वारा सभ्यता की किस डिग्री का दावा किया जा सकता है जो यह मानता है कि गोरे लोग हर विशेषाधिकार के हकदार हैं और काले लोग केवल अधीनता के योग्य हैं.”

यह आश्चर्य की बात नहीं है कि शिबली की कविताओं और लेखन पर ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया था.प्रो. खुर्शीद इस्लाम लिखते हैं, "शिबली को हमेशा धार्मिक उत्साह को बढ़ावा देने और राष्ट्रीय स्वतंत्रता की लौ को हवा देने के लिए याद किया जाएगा.

अल-हिलाल, जमींदार और मुस्लिम गजट में उनके लेखन ने अपनी पीढ़ी को बहुत शिक्षित और उत्साहित किया.हिंदू मुस्लिम एकता और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए मुस्लिम मन को तैयार करने में वे सर सैयद से एक कदम आगे थे."