जब सरदार पटेल ने तस्करी से मंगवाई नेताजी सुभाष की प्रतिबंधित फिल्म

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 18-08-2023
Netaji Subhash chandra bose observing Rani Jhansi Regiment
Netaji Subhash chandra bose observing Rani Jhansi Regiment

 

https://www.hindi.awazthevoice.in/upload/news/1692174727Saquib_Salim.jpgसाकिब सलीम

1945 में, रात के अंधेरे में, ब्रिटिश खुफिया विभाग ने मुंबई के तट के पास एक संदिग्ध दिखने वाले समुद्री ट्रॉलर को रोका. पुलिस की एक टीम ने ट्रॉलर पर छापा मारा, लेकिन केवल रसोई के बर्तन और बोरियां ही मिलीं. ट्रॉलर म्यांमार के यंगून से यात्रा कर रहा था और इसमें लदा माल एक गुजराती इंजीनियर बीसी मेहता का था. जैसे ही ट्रॉलर तट पर पहुंचा, मेहता ने सभी बैग और बर्तन अपने साथ ले लिए और सीधे सरदार वल्लभभाई पटेल के पास गए.

यंगून से आने वाला कोई व्यक्ति उन महत्वहीन बर्तनों और बोरियों को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े नेताओं में से एक के पास क्यों ले जाएगा? वास्तव में, मेहता एक बहुत ही महत्वपूर्ण मिशन पर थे. मिशन था आजाद हिंद फौज द्वारा युद्ध के मैदान में दिखाए गए शौर्य और पराक्रम की कहानियां बताना. उन बोरियों में फौज की प्रचार इकाई द्वारा बनाई गई एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म की रीलें छिपी हुई थीं.

जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाली फौज को युद्ध में पराजय झेलनी पड़ी, तो यह महसूस किया गया कि भारत में रहने वाले भारतीयों को नेताजी की वास्तविक कहानी जानने की जरूरत है. ब्रिटिश सरकार ने आजाद हिंद फौज की किसी भी खबर पर कड़ा सेंसर लगा दिया था.

भारतीयों को यह कहानी सुनाई गई कि नेताजी एक जापानी एजेंट थे और उनकी फौज और कुछ नहीं, बल्कि भारत में जापानी उपनिवेशवाद स्थापित करने के लिए बनाई गई भारतीय जापानी लड़ाकू सेना थी. हालाँकि फौज के पास एक प्रचार इकाई थी, लेकिन भारतीय मुख्य भूमि तक इसकी पैठ ज्यादा नहीं थी.


ये भी पढ़ें :  नूंह हिंसाः ब्रज चौरासी कोस परिक्रमा पर असर नहीं, मुस्लिम युवक कर रहे सुरक्षा 


नेताजी के आदेश पर फौज की प्रचार इकाई ने एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई, जिसमें नेताजी, युद्ध के मैदान में सैनिकों, रानी झांसी रेजिमेंट और फौज की अन्य गतिविधियों को दिखाया गया था. महात्मा गांधी के साथ कड़वे मतभेदों के बाद भले ही नेताजी ने भारत छोड़ दिया हो, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में अभी भी उनके समर्थक और सहयोगी मौजूद थे. इन नेताजी समर्थक नेताओं से संपर्क किया गया, ताकि फिल्म को भारतीय जनता को दिखाया जा सके.

मेहता एक व्यवसायी परिवार से ताल्लुक रखने वाले गुजराती इंजीनियर थे, जो कई बार म्यांमार में नेताजी को अपनी गाड़ी में घुमाते थे. इस फिल्म के संबंध में आजाद हिंद फौज ने सरदार पटेल से संपर्क किया था. उन्होंने फिल्म को भारत में तस्करी के लिए अपना समर्थन देने का वादा किया और मेहता को इसे भारतीय क्षेत्र में लाने की जिम्मेदारी दी गई.

सरदार पटेल फिल्म की रीलें अपने साथ ले गए और नई दिल्ली चले गए, क्योंकि यह फिल्म कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेताओं को देखनी चाहिए. पटेल ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं से फिल्म की सार्वजनिक स्क्रीनिंग की व्यवस्था करने को कहा. कनॉट प्लेस में रीगल सिनेमा के मालिक राजेश्वर दयाल से उनके थिएटर में स्क्रीनिंग की अनुमति देने का अनुरोध किया गया था. वह सहमत हो गए और स्क्रीनिंग की व्यवस्था की गई.


निर्धारित दिन सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना आजाद और कांग्रेस हाईकमान के प्रत्येक सदस्य ने फिल्म देखी. आजाद हिन्द फौज और नेताजी के प्रति दृष्टिकोण बदल दिया गया. लोगों को एहसास हुआ कि नेताजी अपनी मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए एक राष्ट्रीय मिशन पर थे और अंग्रेजों का यह दुष्प्रचार कि वह एक जापानी एजेंट थे, झूठ था.

गौतम कौल लिखते हैं, ‘‘फिल्म में आजाद हिंद फौज के सदस्यों के जंगल में प्रशिक्षण के दृश्यों के साथ-साथ यंगून और सिंगापुर में स्थित भारतीय महिलाओं की झांसी की रानी ब्रिगेड के काम को भी दिखाया गया है. इसमें बोस को क्षेत्र के अन्य नेताओं के साथ निरीक्षण और बैठक करते हुए और साथ ही अपने कार्यकर्ताओं को दिल्ली तक एक लंबे मार्च के लिए तैयार होने के लिए प्रोत्साहित करते हुए भी दिखाया गया है.’’

स्क्रीनिंग के बाद, जैसा कि अपेक्षित था, दयाल को कानून का उल्लंघन करने के लिए सरकार से नोटिस मिला. राजिंदर नारायण, जिन्होंने प्रसिद्ध लाल किले आईएनए परीक्षणों में भी बहस की थी, को दयाल ने उनकी मदद करने के लिए कहा था.

नारायण उसे कुँवर मोहिंदर सिंह बेदी के पास ले गए, जो उस समय सिटी मजिस्ट्रेट थे और उनसे मदद मांगी. बेदी को पता था कि औपनिवेशिक कानून के दायरे में एक देशभक्त की मदद कैसे की जानी चाहिए. पहली सुनवाई के बाद उन्होंने लंबी छुट्टी की घोषणा कर दी. उन्होंने भारत को आजादी मिलने तक मामले को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध ही नहीं किया.


ये भी पढ़ें :   स्वतंत्रता संग्राम में पंजाब के मुसलमानों की क्या थी भूमिका यहां जानें 


दूसरी ओर, सरदार पटेल ने अपने वफादारों से नेताजी पर अधिक सामग्री की व्यवस्था करने को कहा. वह भारत के महान इस सपूत पर एक संपूर्ण फीचर फिल्म चाहते थे. 1947 में, नेताजी सुभाष चंद्र बोस को रिहा कर दिया गया. फिल्म का निर्माण सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा किया गया था, जिसे छोटूभाई देसाई द्वारा निर्देशित किया गया था और फिल्म की सभी रीलों को बीसी मेहता द्वारा यांगून से तस्करी करके लाया गया था.

1945 में सरदार पटेल द्वारा भारत में तस्करी करके लाई गई इस फिल्म ने समूचे जनमत को नेताजी और आजाद हिंद फौज के समर्थन में मोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसके कारण आईएनए परीक्षणों, पुलिस विद्रोहों, सेना विद्रोहों और नौसेना विद्रोहों को लेकर व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए. इन सभी घटनाओं ने यह सुनिश्चित कर दिया कि अंग्रेज जल्द से जल्द भारत छोड़ दें.