फ़िरदौस ख़ान
इस्लामी तारीख़ में माहे रमज़ान की बहुत अहमियत है. इस महीने में कई ऐसे वाक़ियात हुए हैं, जो यादगार बन गए. इन वाक़ियात ने तमाम आलमों को दर्स दिया. इसी मुक़द्दस महीने में अल्लाह ने अपने रसूलों पर आसमानी किताबें और सहीफ़े नाज़िल किए.
सहीफ़े
अल्लाह के उन पैग़ाम को सहीफ़े कहा जाता है, जो अल्लाह के मुअज़्ज़िज़ फ़रिश्ते हज़रत जिब्रईल अलैहिस्सलाम नबियों के पास लाया करते थे. चार रसूलों को छोड़कर बाक़ी सभी नबियों पर सहीफ़े नाज़िल हुए. हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम पर रमज़ान की पहली रात को सहीफ़े नाज़िल हुए.
क़ुरआन करीम
माहे रमज़ान में अल्लाह तआला ने अपने आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर क़ु़रआन नाज़िल किया. हज़रत जिब्रईल अलैहिस्सलाम आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास अल्लाह के पैग़ाम लाया करते थे.
बाद में इन्हीं आयतों का ज़ख़ीरा क़ुरआन बना. क़ुरआन करीम 23 साल में नाज़िल हुआ, क्योंकि ये लोहे महफ़ूज़ से थोड़ा-थोड़ा नाज़िल किया गया. इसकी ज़बान अरबी है. क़ुरआन करीम को कई नामों से जाना जाता है, जैसे अल किताब, अल फ़ुरक़ान, अल तंजील, अल ज़िक्र, अल नूर, अल हुदा, अल रहमा, अहसनुल हदीस, अल वही, अल रूह, अलमुबीन, अल मजीद और अल हक़. क़ुरआन पाक में 114 सूरतें हैं और इसके 30 पारे हैं.
क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “ऐ रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ! उसी अल्लाह ने यह किताब तुम पर हक़ के साथ नाज़िल की है. ये उन सब आसमानी किताबों की तसदीक़ करती है, जो इससे पहले नाज़िल हुई हैं और उसी ने तौरात और इंजील नाज़िल की है.” (क़ुरआन 3:3)
रमज़ान एक मुक़द्दस महीना है. क़ुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “रमज़ान वह मुक़द्दस महीना है, जिसमें क़ुरआन नाज़िल किया गया है, जो लोगों के लिए सरापा हिदायत है और जिसमें रहनुमाई करने वाली और हक़ व बातिल की तमीज़ सिखाने वाली वाज़ेह निशानियां हैं.” (क़ुरआन 2: 185)
क़ुरआन शबे क़द्र में नाज़िल हुआ. शबे क़द्र के बारे में क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “बेशक हमने इस क़ुरआन को शबे क़द्र में नाज़िल किया. और तुम क्या जानते हो कि शबे क़द्र क्या है ? शबे क़द्र हज़ार महीनों से बेहतर है. इस रात में फ़रिश्ते और रूहुल अमीन यानी जिब्रईल अलैहिस्सलाम अपने परवरदिगार के हुक्म से हर काम के लिए ज़मीन पर उतरते हैं. ये रात फ़ज्र होने तक सलामती है.” (क़ुरआन 97:1-5 )
क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “बेशक हमने इसे मुबारक रात में नाज़िल किया. बेशक हम ख़बरदार करने वाले हैं. इस रात में हर हिकमत वाले काम का फ़ैसला कर दिया जाता है.”(क़ुरआन 44:3-4)
बेशक क़ुरआन पाक तमाम आलमों के लिए नसीहत है. क़ुरआन एक मुकम्मल पाक किताब है. ये हिदायत भी है और शिफ़ा भी. क़ुरआन एक ऐसी किताब है, जिसमें कोई तब्दीली नहीं हो सकती. ऐसा करना नामुमकिन है. लोगों ने इससे पहले नाज़िल हुई किताबों में अपने फ़ायदे के लिए बदलाव कर लिए, इसलिए क़ुरआन की हिफ़ाज़त का ज़िम्मा अल्लाह तआला ने ख़ुद लिया है.
क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “ बेशक हमने ही ज़िक्रे अज़ीम यानी क़ुरआन नाज़िल किया है और बेशक हम ही उसके मुहाफ़िज़ हैं.”(क़ुरआन 15:9)
क़ुरआन सिर्फ़ काग़ज़ पर ही नहीं लिखा है, ये लोगों के दिलों में भी महफ़ूज़ है. क़ुरआन हिफ़्ज़ किया जाता है और क़ुरआन हिफ़्ज़ करने वाले को हाफ़िज़ कहा जाता है. हदीसों के मुताबिक़ क़ुरआन आसमान पर मौजूद लोहे महफ़ूज़ का हिस्सा है और क़यामत से कुछ अरसा पहले ये दुनिया से उठा लिया जाएगा.
इंजील
अल्लाह तआला ने क़ुरआन से पहले इंजील नाज़िल की थी. ये हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम पर रमज़ान की 13 तारीख़ को नाज़िल हुई थी. कुछ रिवायत के मुताबिक़ इंजील रमज़ान की 4 तारीख़ को नाज़िल हुई थी. इंजील सुरयानी ज़बान में है.
क़ुरआन करीम में इंजील का ज़िक्र भी है. अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और हमने उन पैग़म्बरों के पीछे उनके नक़्शे क़दम पर ईसा इब्ने मरयम अलैहिस्सलाम को भेजा, जो ख़ुद से पहले की किताब यानी तौरात की तसदीक़ करने वाले थे और हमने उन्हें इंजील अता की, जिसमें हिदायत और नूर था और यह इंजील भी ख़ुद से पहले की किताब यानी तौरात की तसदीक़ करने वाली थी और यह परहेज़गारों के लिए हिदायत और नसीहत थी.
और अहले इंजील को भी इस हुक्म के मुताबिक़ फ़ैसला करना चाहिए, जो अल्लाह ने उसमें नाज़िल किया है. और जो शख़्स अल्लाह की नाज़िल की हुई किताब के मुताबिक़ हुक्म न दे यानी फ़ैसला न करे, तो ऐसे ही लोग नाफ़रमान हैं.”(क़ुरआन 5:46-47)
क़ाबिले ग़ौर है कि इंजील अपनी असल हालत में मौजूद नहीं है, क्योंकि इसमें बदलाव कर लिए गए. इसलिए इसके बाद अल्लाह ने क़ुरआन नाज़िल किया.
तौरात
ये हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम पर रमज़ान की 6 तारीख़ को नाज़िल हुई थी. ये इबरानी ज़बान में है. कुछ रिवायत के मुताबिक़ तौरात सुरयानी ज़बान में नाज़िल हुई थी.
क़ुरआन करीम में तौरात का भी ज़िक मिलता है. अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और वह वक़्त भी याद करो कि जब हमने मूसा अलैहिस्सलाम को किताब यानी तौरात अता की और हक़ व बातिल को जुदा करने वाले अहकाम दिए, ताकि तुम हिदायत पा सको.(क़ुरआन 2:53)
“और वह वक़्त याद करो कि जब हमने तुमसे तौरात पर अमल करने का अहद लिया था और हमने कोहे तूर को तुम्हारे ऊपर उठा लिया था और हुक्म दिया था कि जो कुछ हमने तुम्हें अता किया है, उसे मज़बूती से पकड़े रहो और जो कुछ इस किताब यानी तौरात में है, उसे याद रखो, ताकि तुम परहेज़गार बन जाओ. (क़ुरआन 2:63)
“और बेशक हमने मूसा अलैहिस्सलाम को किताब यानी तौरात अता की और उनके बाद हमने बहुत से रसूलों को भेजा. और मरयम अलैहिस्सलाम के बेटे ईसा अलैहिस्सलाम को भी रौशन निशानियां अता कीं. और हमने पाक रूहुल क़ुदुस यानी जिब्रईल अलैहिस्सलाम के ज़रिये उनकी ताईद व मदद की. (क़ुरआन 2:87)
क़ाबिले ग़ौर है कि तौरात भी अपनी असल हालत में मौजूद नहीं है, क्योंकि इसमें भी बदलाव कर लिए गए.
ज़बूर
ये हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम पर रमज़ान की 13 तारीख़ को नाज़िल हुई थी. ये इबरानी ज़बान में है. इसकी कुल 150 सूरतें हैं. क़ुरआन करीम में ज़बूर का ज़िक भी मिलता है. अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और तुम्हारा परवरदिगार उन्हें ख़ूब जानता है, जो आसमानों और ज़मीन में आबाद हैं. और बेशक हमने कुछ नबियों को दूसरे नबियों पर फ़ज़ीलत बख़्शी है और हमने दाऊद अलैहिस्सलाम को ज़बूर अता की.”(क़ुरआन 17: 55)
क़ाबिले ग़ौर है कि ज़बूर अपनी असल हालत में मौजूद नहीं है, क्योंकि इसमें बदलाव कर लिए गए थे. . मुसलमानों पर सभी आसमानी सहीफ़ों और किताबों पर यक़ीन रखना लाज़िमी है. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं, तो वे नाफ़रमान माने जाएंगे और दीन से ख़ारिज हो जाएंगे.
क़ुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “ऐ मुसलमानो ! तुम कह दो कि हम अल्लाह पर ईमान लाए हैं और उस किताब यानी क़ुरआन पर, जो मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर नाज़िल किया गया और जो सहीफ़े इब्राहीम अलैहिस्सलाम और इस्माईल अलैहिस्सलाम और इसहाक़ अलैहिस्सलाम और याक़ूब अलैहिस्सलाम और उनकी औलादों पर नाज़िल हुए और जो किताबें तौरात और इंजील मूसा अलैहिस्सलाम और ईसा अलैहिस्सलाम को अता की गईं और इसी तरह जो सहीफ़ें दूसरे नबियों को उनके परवरदिगार की तरफ़ से अता किए गए, उन सब पर ईमान लाए हैं और हम उनमें कोई फ़र्क़ नहीं करते और हम अल्लाह ही के मुसलमान यानी फ़रमाबरदार हैं.” (क़ुरआन 2:136)
जंगे बदर
रमज़ान की 17 तारीख़ को जंगे बदर हुई. ये इस्लामी तारीख़ की अहम जंग है. मदीने से काफ़ी दूर एक कुआं था, जिसका नाम बदर था. इस कुएं के नाम पर ही इस इलाक़े को बदर कहा जाता था. इसी मैदान में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम व उनके सहाबियों और मक्के के कुफ़्फ़ार के बीच जंग हुई थी.
एक तरफ़ 313 मुसलमान थे और दूसरी तरफ़ कुफ़्फ़ार की तादाद उनसे कई गुना यानी हज़ारों में थी. इस जंग में 14 सहाबा शहीद हुए. इनमें से छह मुहाजिर और आठ अंसार थे.
क़ुरआन करीम में जंगे बदर का ज़िक्र है. अल्लाह तआला फ़रमाता है- “बेशक तुम्हारे लिए उन दो जमातों में एक निशानी है, जो जंगे बदर में आपस में मुक़ाबिल हुईं. एक जमात ने अल्लाह की राह में जंग की और दूसरी काफ़िर थी. कुफ़्फ़ार को अपनी खुली आंखों से मुसलमान दोगुने नज़र आ रहे थे. और अल्लाह अपनी मदद के ज़रिये जिसे चाहता है ताईद करता है. और बेशक इसमें बसीरत वाले लोगों के लिए बड़ी इबरत है.”(क़ुरआन 3:13)
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने परवरदिगार से इस जंग में मदद मांगी थी और उनकी दुआ क़ुबूल हुई. अल्लाह तआला फ़रमाता है- “ऐ रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ! और वह वक़्त याद करो कि जब तुम अपने परवदिगार से मदद के लिए फ़रियाद कर रहे थे, तो उसने तुम्हारी फ़रियाद क़ुबूल कर ली और फ़रमाया कि एक हज़ार मुसलसल आने वाले फ़रिश्तों के ज़रिये तुम्हारी मदद की जाएगी.”
(क़ुरआन 8: 9)
मक्का फ़तह
रमज़ान की 20 तारीख़ को मुसलमानों ने मक्का फ़तह किया था. क़ाबिले ग़ौर है कि मदीने के मुसलमानों और मक्का के क़ुरैश के बीच दस साल के लिए जंग न करने की सुलह हुई थी, जिसे तारीख़ में सुलह हुदैबिया के नाम से जाना जाता है. लेकिन क़ुरैश इस पर क़ायम नहीं रह सके और क़ुरैश के मददगार बनू बक़र ने हाल ही में मुसलमानों के मददगार बने बनू ख़ुजा पर हमला कर दिया.
इसके बाद नौबत यहां तक आन पहुंची कि मुसलमानों को जंग करनी पड़ी. इस जंग में मुसलमानों को शानदार जीत हासिल हुई. क़ुरआन करीम में भी इस जीत का ज़िक्र है. अल्लाह तआला फ़रमाता है- “ऐ मेरे महबूब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ! बेशक हमने तुम्हें रौशन फ़तह अता की.”(क़ुरआन 48:1)
हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दामाद और मुसलमानों के ख़लीफ़ा हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत रमज़ान की 21 तारीख़ को हुई थी. हज़रत अली अलैहिस्सलाम रमज़ान की 19 तारीख़ को कूफ़ा की मस्जिद में फ़ज्र की नमाज़ पढ़ रहे थे.
जब वे सजदे में गए, तो अब्दुर्रहमान इब्ने मुलजम ने ज़हर में डूबी हुई तलवार से उनके सर पर वार किया. इस हमले में वे ज़ख़्मी हो गए और ज़हर उनके जिस्म में फैलने लगा. उन्होंने अपने साथियों को ताकीद की कि वे मुलजम को क़त्ल न करें, बल्कि उन्होंने उसे आरामदेह बिस्तर, लज़ीज़ खाना और शर्बत मुहैया करवाया. दो दिन बाद 19 तारीख़ को मौला अली अलैहिस्सलाम का विसाल हो गया.
रमज़ान हुरमत वाला महीना है. हदीसों के मुताबिक़ माहे रमज़ान में जन्नत के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं. हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया- “जब माहे रमज़ान आता है तो आसमान के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं, जहन्नुम के दरवाज़े बंद कर दिए जाते हैं और शैतानों को क़ैद कर दिया जाता है. (बुख़ारी)
बहरहाल, रमज़ान में नाज़िल हुए सभी सहीफ़ों और आसमानी किताबों ने तमाम आलमों को मुहब्बत का पैग़ाम दिया है. रमज़ान के वाक़ियात भी राहे-हक़ पर चलने का पैग़ाम देते हैं. मौला अली की शहादत की इस बात की अलामत है कि अल्लाह वाले अपने दुश्मनों के साथ भी नरमी से पेश आते हैं.
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)