साकिब सलीम
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के संस्थापक सर सैयद अहमद खान को उनके आलोचकों की आलोचना का सामना करना पड़ता है कि दो राष्ट्र सिद्धांत, जिसके परिणामस्वरूप पाकिस्तान का गठन हुआ, उनका विचार था.डॉ. शान मोहम्मद समस्या का सार बताते हैं, "पाकिस्तानी इतिहासकार सर सैयद के प्रति अपनी प्रशंसा के कारण उन्हें "पहला पाकिस्तानी" कहते हैं, जबकि भारतीय इतिहासकार अपने पूर्वाग्रह के कारण उन्हें दो-राष्ट्र सिद्धांत का जनक और इस प्रकार पाकिस्तान के विचार का अग्रदूत कहते हैं."
हिंदी में कहावत है कि आग के बिना धुआं नहीं उठता.इस आलोचना को जन्म देने वाली आग एक हानिरहित उर्दू शब्द कौम है.प्लैट्स के शब्दकोष में कौम की परिभाषा है “लोग, राष्ट्र; जनजाति, नस्ल, परिवार; संप्रदाय, जाति.” असल में हुआ यह है कि सर सैयद के कई भाषण, जो मूल रूप से उर्दू में थे, वाराणसी से द पायनियर द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित किए गए थे.
प्रोफेसर फ्रांसेस डब्ल्यू. प्रिटचेट यहां समस्या की ओर इशारा करते हैं.वह लिखती हैं, “लगभग हर जगह जहां पायनियर के अनुवाद में "राष्ट्र" लिखा है, उर्दू शब्द वास्तव में "कौम" या "समुदाय" है.इसलिए 19वीं सदी में ही पायनियर ने आग लगा दी थी जब उन्होंने कौम का अनुवाद ‘समुदाय’ या ‘लोग’ के बजाय ‘राष्ट्र’ के रूप में किया.इसने एक कहानी को जन्म दिया कि सर सैयद ने भारत के हिंदुओं और मुसलमानों को दो अलग-अलग ‘राष्ट्र’ के रूप में वर्गीकृत किया था.
प्रोफेसर शाफ़े किदवई ने सर सैयद पर अपनी किताब में लिखा है, “मज़हर मेहदी (2002) का दावा है कि सर सैयद ने कई बार मुसलमानों और हिंदुओं दोनों को एक कौम (राष्ट्र) के रूप में वर्णित किया है.हालांकि, कभी-कभी वह दो समुदायों के बीच अंतर को चिह्नित करने के लिए इस शब्द का उपयोग करते हैं.”
सर सैयद के मन में यह बात घर कर गई कि हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर यह देश बनाते हैं.27 जनवरी 1884 को उन्होंने गुरदासपुर में कहा, “हे हिंदू और मुसलमानो, क्या तुम लोग भारत के अलावा किसी और देश में रहते हो ? क्या तुम दोनों एक ही धरती पर नहीं रहते और क्या तुम दोनों इसी धरती पर दफन नहीं होते या इसी घाट पर दाह संस्कार नहीं करते ?
तुम यहीं जीते हो और यहीं मरते हो.इसलिए याद रखो कि हिंदू और मुसलमान धार्मिक महत्व के शब्द हैं. अन्यथा इस देश में रहने वाले हिंदू, मुसलमान और ईसाई मिलकर एक राष्ट्र बनाते हैं (जयकार).जब इन सभी समूहों को एक राष्ट्र कहा जाता है, तो उन्हें देश की सेवा में एक होना चाहिए, जो कि सभी का देश है.”
1883 में पटना में सर सैयद ने कहा, "हम भारत की हवा में सांस लेते हैं.गंगा और यमुना का पवित्र जल पीते हैं. भारतीय मिट्टी की उपज खाते हैं.हम जीने और मरने में बहुत कुछ साझा करते हैं; हमारे व्यक्तित्व एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं.मुसलमानों ने हिंदुओं के कई रीति-रिवाजों का पालन किया.हिंदुओं ने मुसलमानों की कई आदतें अपनाईं.एक ही भूमि के निवासी होने के नाते, हम (हिंदू और मुसलमान) एक राष्ट्र हैं."
सर सैयद की रचनाओं का अनुवाद करने वाले जावेद अशरफ लिखते हैं, "सर सैयद अक्सर इस उर्दू शब्द (कौम) का इस्तेमाल समुदाय, जाति और नस्ल या यहां तक कि एक निम्न पेशे जैसी संस्थाओं की विविधता के लिए करते थे.हालांकि, जब वे हिंदुओं और मुसलमानों को 'ऐसे कौम (समुदाय) के रूप में वर्णित करते हैं जो अतीत की प्रथाओं को सही मानते हैं और उनका पालन करना जारी रखते हैं.
जबकि ब्रिटिश, फ्रांसीसी और जर्मन ऐसे कौम हैं जो हमेशा प्रगति करते हैं.यह स्पष्ट होता है कि "कौम" शब्द के अर्थ अंग्रेजी शब्द "राष्ट्र" के समान हैं.ऐसा लगता है कि भ्रम सिर्फ़ पायनियर के अनुवाद तक सीमित नहीं, बल्कि कहीं-कहीं सर सैयद ने कौम शब्द का इस्तेमाल 'राष्ट्र' समेत अलग-अलग संदर्भों में भी किया है.
प्रिचेट बताते हैं, "समस्या यह है कि सर सैयद का इस्तेमाल एक अर्थ से दूसरे अर्थ में बहुत ही फिसलन भरे तरीके से बदलता है." शान मोहम्मद का मानना है, "सर सैयद के लिए राष्ट्र और समुदाय शब्द एक ही मायने रखते हैं.उन्होंने हमेशा राष्ट्र शब्द का इस्तेमाल किया है, जहाँ उन्हें समुदाय शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए था.
इससे यह साबित होता है कि जहाँ भी उन्होंने राष्ट्र शब्द का इस्तेमाल किया, उनका मतलब शब्द के तकनीकी अर्थ में समुदाय से है.वह राष्ट्र शब्द के उन्नीसवीं सदी के पश्चिमी अर्थ से परिचित नहीं थे और उन्होंने जो कुछ भी कहा है, उसे इसके साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए."
लाहौर में सर सैयद ने कथित तौर पर कहा, "मैंने इस अंजुमन में कई बार राष्ट्र शब्द का इस्तेमाल किया है.इससे मेरा मतलब सिर्फ़ मुसलमानों से नहीं.मेरी राय में सभी लोग एक हैं.मैं नहीं चाहता कि धर्म, समुदाय या समूह को राष्ट्र के साथ पहचाना जाए.मैं चाहता हूँ,सभी लोग अपने धर्म और समुदाय से परे एक साथ मिलकर राष्ट्र के लिए एकजुट हों.
हमारे धर्म बेशक अलग-अलग हैं, लेकिन इस कारण हमारे बीच दुश्मनी की कोई वजह नहीं है." शान मोहम्मद के अनुसार, "उन्होंने कभी भी राष्ट्र शब्द का इस्तेमाल तकनीकी अर्थ में नहीं किया.न ही हिंदुओं और मुसलमानों को कभी दो राष्ट्र माना.सर सैयद का कोई भाषण ऐसा नहीं है जिससे पता चले कि उन्होंने कभी हिंदुओं और मुसलमानों को अलग-अलग राष्ट्र माना हो.इतिहासकारों ने संदर्भ से हटकर वाक्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया और अपनी सोच के हिसाब से उनकी व्याख्या की.
टाइम्स ने सर सैयद की राजनीतिक भूमिका का उल्लेख करते हुए कहा है, "सैयद ने कभी भी उपमहाद्वीप के अंदर इस्लामिक राज्य के निर्माण जैसी कठोर बात के बारे में नहीं सोचा था.उनका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि भारत में उनके सहधर्मी लोग हिंदू समुदाय के साथ भारत में अपना स्थान लेने में सक्षम हों: वह भारत के विभाजन के लिए नहीं, बल्कि समान भागीदारी के लिए काम कर रहे थे.
वह यह नहीं सोच सकते थे और न ही उन्होंने सोचा था कि अंतिम उपाय के रूप में विभाजन ही मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा का एकमात्र व्यावहारिक तरीका साबित हो सकता है; निस्संदेह उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ होगा कि उनकी मृत्यु के बाद उन्हें एक भविष्यवक्ता के रूप में श्रेय दिया जाएगा, जिसका दावा करने वाले वे अंतिम व्यक्ति होंगे."