साकिब सलीम
24 अप्रैल, 1918 को अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को की अदालत में राम सिंह नाम के एक हिंदुस्तानी क्रन्तिकारी के खिलाफ एक मुकदमा चला कि उसने गदर पार्टी के एत लीडर राम चंद्र को गोली मार कर कत्ल कर दिया. मौका-ए-वारदात पर ही एक अमरीकी पुलिस वाले ने राम सिंह को भी गोली मार दी. ये अमरीका के इतिहास के सबसे महंगे कोर्ट केस का आखिरी दिन था. चार महीने से जारी ये केस हिंदुस्तानी क्रांतिकारियों के खिलाफ था.
इल्जाम था कि अमरीका में रहने वाले हिंदुस्तानी क्रांतिकारी जर्मनी की मदद से पैसा और हथियार लेकर पहली आलमी जंग यानि फर्स्ट वर्ल्ड वॉर में अंग्रेजों के खिलाफ जगह-जगह बगावत कर रहे हैं. राम चंद्र को राम सिंह ने इस शक पर गोली मारी थी कि वो अंग्रेजों के हाथों बिक चूका है. सच्चाई का तो किसी को नहीं पता, लेकिन हिन्दू-जर्मन कांस्पीरेसी केस के नाम से मशहूर इस केस ने क्रांतिकारियों के कई राज उजागर कर दिए थे. प
हली बार ये समझ आया कि हिंदुस्तानी सिर्फ मुल्क में नहीं, पूरी दुनिया में अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे. हिंदुस्तानी होने का मतलब किसी एक खास जमीन पर रहना नहीं था.
अगर शुरुआत की बात की जाये, तो हिंदुस्तानी क्रांतिकारियों का पहला मरकज मक्का और मदीना थे. 1857 से भी पहले सैयद अहमद शहीद और फिर हाजी इम्दादुल्लाह ने हज का इस्तेमाल दूर-दराज से आने वाले हाजियों को अंग्रेजों के खिलाफ भड़काने के लिए किया था.
इम्दादुल्लाह तो 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोलने मक्के से ही आये थे और शामली को अंग्रेजों से आजाद भी कराया. उसके बाद जब अंग्रेज वापिस जीत गए, तो वो मक्का ही जा कर रहने लगे थे. वहीं से अगले तीस साल तक उन्होंने हज पर आने वालों को अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ लड़ने का पाठ पढ़ाया.
दूसरा सबसे बड़ा क्रांतिकारियों का मरकज लंदन में श्यामजी कृष्ण वर्मा का इंडिया हाउस था. 1905 से 1910 के बीच यूरोप की सरजमीन से इस इंडिया हाउस ने जंगे-आजादी की अगुआई की. यहीं से विनायक दामोदर सावरकर ने 1857 के इतिहास पर किताब लिखी, जिसने क्रांतिकारियों की कई नस्लों को तैयार किया.
यहीं पर आसफ अली तैयार हुए, जिन्होंने भगत सिंह का केस लड़ा और मुल्क में कई बड़े कारनामे अंजाम दिए. यहां से हैदर रजा, बिपिन चंद्र पाल, एमपीटी आचार्य, अली खान और अनेक क्रांतिकारी मुल्क को मिले. इसी इंडिया हाउस के मदन लाल ढींगरा भी थे, जिन्होंने कर्जन को लंदन में गोली मार कर हँसते-हँसते फांसी के फंदे को चूम लिया था.
यही वो वक्त भी था, जब सावरकर की अगुवाई में इंडिया हाउस के क्रांतिकारियों ने इजिप्ट, इथियोपिया और बाकी मुमालिक के क्रांतिकारियों के साथ गठजोड़ शुरू कर दिया था. ढींगरा को फांसी होने के साथ ही इंडिया हाउस के क्रांतिकारी पेरिस या बर्लिन की तरफ चले गए और वहां से जंगे आजादी शुरू की थी.
इसी वक्त पर राजा महेंद्र प्रताप हिंदुस्तान से जर्मनी और तुर्की गए. वहां से मदद लेकर वो काबुल पहुंचे. यहाँ मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी पहले से उनका इंतजार दीगर गदर क्रांतिकारियों के साथ कर रहे थे. एक आरजी हुकुमत या अंतरिम सरकार काबुल में बनी, महेंद्र प्रताप सिंह राष्ट्रपति, उबैदुल्लाह सिंधी गृह मंत्री और एक अन्य गदर लीडर बरकतुल्लाह प्रधानमंत्री कहलाए.
ये 1915का किस्सा है. फौज बनाने की तैयारी हो चुकी थी. मक्के से इसी प्लान का हिस्सा मौलाना महमूद और हुसैन अहमद थे. उनका एक खत अंग्रेज सरकार के हाथ लग गया. ये खत रेशमी रुमाल पर लिखा था. ऐसे तीन खत बरामद हुए.
इसे अंग्रेजों ने सिल्क लेटर कांस्पीरेसी कहा. पता लगा कि काबुल में बनी सरकार की एक फौज भी तैयार हो रही है, जिसमें मुल्क भर से लोग थे. बहुत लोग गिरफ्तार हुए. मौलाना महमूद और हुसैन अहमद मदनी को मक्का से युद्ध बंदी बनाकर माल्टा भेज दिया गया.
इसी साल सिंगापुर में गदर के लीडर अंग्रेज फौज के हिंदुस्तानी सिपाहियों को भड़काने में कामयाब रहे और एक फौजी टुकड़ी ने अंग्रेज अफसरों को मारकर सिंगापुर पर कब्जा कर लिया. आखिर में बगावत को कुचलने के लिए रूस और जापान की फौज का सहारा लिया गया. कम से काम चार दर्जन हिंदुस्तानियों को गोली से कत्ल करने का हुक्म हुआ. एक फौजी दस्ते ने सबको एक साथ खड़ा कर गोली मार दी. शहीद होने वालों में से 41 से ज्यादा हरियाणा के मुसलमान थे.
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दूसरी तरफ बाघ जतिन और एमएन रॉय मुल्क में हथियार लाने की कोशिश कर रहे थे, जो योजना कामयाब न हो सकी. जतिन तो शहीद हो गए और एमएन रॉय एक नई जंग की तैयारी के लिए रूस की तरफ चले गए. रूस के ताशकंद में एक आर्मी स्कूल बनाया गया.
ये 1920 के बाद की बात है. इसमें ज्यादातर वो हिंदुस्तानी थे, जो हिजरत का फतवा पाकर 1915 में अफगानिस्तान आ गए थे. सावरकर के साथ इण्डिया हाउस में रहे एमपीटी आचार्य और रॉय इसके सर्वेसर्वा थे. इस स्कूल ने कई क्रांतिकारी मुल्क को दिए, जिनमें सबसे मशहूर नाम मियां अकबर शाह का है, जिन्होंने लगभग दो दशक बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस को कलकत्ते से निकालकर पेशावर और फिर काबुल जाने में मदद की थी. ये आखिर तक नेताजी के साथ रहे.
इस बीच विश्व युद्ध खत्म हो चुका था. तुर्की और जर्मनी हार गए थे. अफगानिस्तान में भी अंग्रेज का साथ देने वाली हुकुमत आ गयी थी. ऐसे में महेंद्र प्रताप पहले अमरीका, फिर चीन और आखिर में जापान चले आए. बरकतुल्लाह गदर पार्टी को फिर जिंदा करने अमरीका गए और वहीं आखिरी साँस ली. उबैदुल्लाह रूस गए और दुनिया भर के देशों के बाद मक्के में जाकर रहने लगे. यहाँ हज के लिए आने वाले लोगों को वो अंग्रेजों के खिलाफ शिक्षा देने लगे.
1930 की दहाई में नेताजी बोस यूरोप में ही थे और इन सब क्रांतिकारियों से मिल रहे थे. रणनीति तैयार हो रही थी. 1938 में उबैदुल्लाह मुल्क वापिस आ जाते हैं और नेताजी से मिलकर उनको कहते हैं कि अब वक्त आ गया है कि तुम जापान की तरफ जाओ और एक फौज के साथ हिंदुस्तान को आजाद कराओ. जापान में रास बिहारी बोस और राजा महेंद्र सरीखे पुराने क्रांतिकारी तैयारियों में जुटे थे.
उधर जर्मनी में भी क्रांतिकारी तैयार थे. लगभग उसी वक्त एक फौज इटली में इकबाल शैदाई और सरदार अजरत सिंह ने भी बनाई. ये दोनों कई देशों में रहकर आजादी की जंग कर चुके थे. अजीत सिंह, भगत सिंह के चाचा भी थे और क्रांतिकारियों की पहली खेप के नेता भी.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जर्मनी और फिर जापान जाना तो मुल्क का बच्चा-बच्चा जनता है. सिंगापुर और बर्मा की जमीन से हिंदुस्तान की जंगे आजादी लड़ी गई थी.