अली अब्बास
साठ का दशक था. समाज में नफरत के सांप ने अभी फन फैलाना शुरू नहीं किया था. उस समय 12/13वर्ष के युवक के बारे में लोग यही जानते थे कि भले ही वह पूरे दिन भूखा रहे, लेकिन संगीत का अभ्यास किए बिना उसका दिन पूरा नहीं होता था.उनका परिवार सदियों से कव्वाली की कला को बढ़ावा दे रहा था.विभाजन के बाद, जैसे ही जालंधर फैसलाबाद में गया, वह खुद को एक नए माहौल में ढालने की कोशिश कर रहा था.
इस युवक ने अपने आस-पास के लोगों को यह विश्वास दिला कि वह अपनी कला में अद्वितीय है.अपनी आवाज की परिपक्वता, आवाज की बुलंदी और फिर शब्दों की अदायगी के कारण बहुत आगे तक जा सकता है. ऐसा अक्सर परिवार में कहा जाता है,उम्मीद थी कि ये लड़का बड़ा नाम कमाएगा.
पटियाला परिवार की संगीत परंपराओं को आगे बढ़ाते हुए, इस परिवार के इस वंशज को आने वाले वर्षों में नुसरत फतेह अली खान के नाम से जाना जाने लगा.वो नुसरत फ़तेह अली खान, जिनकी कव्वालियों पर भारतीयों और पाकिस्तानियों के अलावा अंग्रेज भी बेकाबू होकर थिरकते थे.उन पर मदहोशी छा जाती थी.
नुसरत फ़तेह अली खान ने बचपन में ही साबित कर दिया था कि वह अपने परिवार की महान संगीत परंपराओं को आगे बढ़ाने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं.दस साल की उम्र में उन्होंने तबला बजाने में महारत हासिल कर ली थी.
पत्रकार और लेखक महमूदुल हसन अपने एक लेख में लिखते हैं, "नुसरत फ़तेह अली खान के बचपन के दौरान कलकत्ता से मशहूर गायक पंडित दीना नाथ फ़ैसलाबाद आए और उनके घर पर रुके." उन्होंने उस्ताद फतेह अली खान से शिकायत की कि उन्हें यहां खाक गाना है और तबले पर संगत करने के लिए उन्हें कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिल रहा है.उनसे कहा गया कि गायक हो तो नुसरत तबला बजाएंगे.
यह सुनकर दीना नाथ हंस हंस पड़े और बोले, 'अरे, ये मोटो नुसरत?'
आश्वस्त पिता ने उत्तर दिया: हाँ, यह एक आदर्श वाक्य है,लेकिन मन बहुत सूक्ष्म है.
परीक्षा से पहले पिता ने अपने बेटे को कुछ बातें सिखाईं.नुसरत की उंगलियां तबले को छू गईं और शिक्षक दीना नाथ किशोरी के कौशल को देखकर आश्चर्यचकित रह गए.उन्होंने उठकर उसे गले लगा लिया और बोले-फतेह अली खाँ, यह आपका छोटा बेटा है, बड़ा गुणी.
इस वाक्य से पिता-पुत्र दोनों को गर्व की अनुभूति हुई.यह युवक, जो बाद के वर्षों में कव्वाली के शहंशाह के रूप में जाना जाने लगा, का जन्म विभाजन के एक साल बाद 13अक्टूबर, 1948को फैसलाबाद में हुआ था.पिता फतेह अली खान जालंधरी को संगीत की गहरी समझ थी.परिवार ने कव्वाली परंपरा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.फतेह अली खान के घर चार बेटियों के जन्म के बाद जब नुसरत फतेह अली खान का जन्म हुआ तो उन्हें अपना वारिस मिल गया.
कहा जाता है कि इस परिवार ने छह सदियों से कव्वाली की परंपरा को जीवित रखा है. दिलचस्प ये है कि फतेह अली खान नहीं चाहते थे कि उनके बेटे कव्वाली का पेशा अपनाएं. उनका मानना था कि कव्वालों की कम सामाजिक स्थिति के कारण उन्हें डॉक्टर या इंजीनियर का अधिक सम्मानजनक पेशा चुनना चाहिए, लेकिन युवा नुसरत ने कव्वाली में ऐसी रुचि दिखाई कि उनके पिता ने अपना निर्णय बदल दिया.
साल 1964में नुसरत फतेह अली खान महज 16साल के थे जब उनके पिता का साया उनके सिर से उठ गया.ये न केवल किशोर नुसरत के लिए, बल्कि फतेह अली खान की मृत्यु के कारण पूरे परिवार के लिए दुख और पीड़ा के क्षण थे. छह शताब्दियों से चली आ रही कव्वाली की परंपरा को जीवित रखना मुश्किल हो गया.उस्ताद मुबारक अली खान ने अपना साथी खो दिया था.
उस समय एक चश्मदीद ने उस्ताद फतेह अली खान की बहन से युवा नुसरत फतेह अली खान के बारे में कहा था, 'ऐसा होगा मानो वह बड़ा हो जाएगा.'अपने पिता उस्ताद फ़तेह अली खान की मृत्यु के बाद, युवा नुसरत ने धीरे-धीरे साबित कर दिया कि उनकी आवाज़ में कर्कशता, स्वरों पर पकड़ और दर्द है, जिसके बाद उनके पिता की जगह उनके चाचा कव्वाल पार्टी में शामिल हो गए और इस तरह 16 साल की उम्र में नुसरत फतेह अली खान ने सार्वजनिक समारोहों और मेलों में अपनी कला का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया.
1971 में अपने चाचा मुबारक अली खान की मृत्यु के बाद नुसरत फतेह अली खान ने 22 साल की उम्र में पारिवारिक कव्वाल पार्टी का नेतृत्व संभाला था.नुसरत फतेह अली खान, मुजाहिद मुबारक अली को खान और हमनावा के नाम से जाना जाने लगा.
यह युवा कव्वाल नुसरत फतेह अली खान की कलात्मक यात्रा की एक नई शुरुआत थी, लेकिन कला तक उनकी पहुंच और संगीत का उनका ज्ञान अद्वितीय था.उन दिनों रेडियो पाकिस्तान ने 'जिशान-ए बहारन' नाम से एक कार्यक्रम आयोजित किया था जिसमें नुसरत फतेह अली खान और उनकी कव्वाल पार्टी ने भी हिस्सा लिया था.
इस कार्यक्रम में उनके द्वारा गाया गया एक सूफ़ी कलाम पूरे पाकिस्तान में लोकप्रिय हो गया और इस तरह नुसरत फ़तेह अली खान और उनके साथियों को एक नई पहचान मिली.उन्हीं दिनों फैसलाबाद में एक ग्रामोफोन कंपनी के मालिक मियां रहमत ने नुसरत फतेह अली खान को गाते हुए सुना.कव्वालों के इस परिवार को वह पहले से ही जानते थे लेकिन इस युवक की गायकी ने उन्हें बहुत प्रभावित किया.
मियां रहमत के पोते मियां असद के बारे में वह लिखते हैं कि "मेरे पिता नुसरत को बचपन से जानते थे, लेकिन सत्तर के दशक में जब उन्होंने अपने चाचा उस्ताद मुबारक की मृत्यु के बाद आधिकारिक तौर पर अपना परिवार शुरू किया, तो उन्होंने मेरे पिता पर ध्यान देना शुरू किया."
रहमत ग्रामोफोन ने उस्ताद नुसरत फतेह अली खान के कई एल्बम जारी किए और उनकी प्रसिद्धि अब फैसलाबाद तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि वह जल्द ही प्रसिद्धि के सिंहासन तक पहुंचने में कामयाब रहे, जिसे कई लोगों ने वर्षों की कड़ी मेहनत से हासिल किया है.
ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के इस लेख के मुताबिक, 'मियां असद के मुताबिक, नुसरत को उनके पिता मियां रहमत सत्तर के दशक के अंत और अस्सी के दशक की शुरुआत में अपने रिकॉर्डिंग स्टूडियो में लाए थे, जहां उन्होंने अपनी कव्वालियां और ग़ज़लें रिकॉर्ड करना शुरू किया और फिर विकास की ऊंचाइयों पर पहुंच गईं और प्रसिद्धि.
नुसरत फ़तेह अली खान ने कव्वाली में नए आविष्कार किए, नए वाद्ययंत्र जोड़े और कव्वाली की परिभाषा ही बदल दी.उन्होंने ग़ज़लें, लोकगीत गाए.वह एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने परंपरा के खिलाफ विद्रोह किया और कव्वाली को आधुनिक आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला, जिसके कारण इसे सीमाओं की आवश्यकता नहीं रही.
पिछली सहस्राब्दी के अंतिम दो दशकों के दौरान, नुसरत फ़तेह अली खान ने कुछ ही वर्षों में एक किंवदंती का दर्जा हासिल कर लिया और इस तरह नुसरत फ़तेह अली खान की प्रसिद्धि सात समंदर पार उन देशों तक पहुँच गई जहाँ उर्दू, पंजाबी या हिंदी बोली जाती थी उनमें से आटे में नमक के बराबर था.
यह 1985 का वसंत था, जब नुसरत फतेह अली खान ने विश्व संगीत को बढ़ावा देने के लिए रॉक गायक पीटर गेब्रियल द्वारा आयोजित लंदन में 'वर्ल्ड ऑफ म्यूजिक, आर्ट्स एंड डांस' उत्सव में प्रदर्शन किया था.और यहीं पर पीटर गेब्रियल और उस्ताद नुसरत फतेह अली खान के बीच रचनात्मक साझेदारी बनी, जिसने पूर्वी संगीत को पश्चिमी दर्शकों तक लाने में प्रमुख भूमिका निभाई.
यह बताना ज़रूरी है कि पीटर गेब्रियल के जीवन में उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान के आने से पहले ही, वह प्राच्य संगीत में सबसे विश्वसनीय संदर्भ बन गए थे.उन्होंने लंदन, पेरिस, जापान, न्यूयॉर्क सहित पश्चिम में कई स्थानों पर प्रदर्शन किया है और इस तरह उन्होंने पश्चिम में अपने संगीत के लाखों प्रशंसक बनाए हैं.
पीटर गेब्रियल और उस्ताद नुसरत फतेह अली खान ने साल 1988 में रिलीज हुई एक फिल्म के साउंडट्रैक में साथ काम किया था. इस फिल्म में उस्तादजी के 'अलाप' को हमेशा के लिए अमर कर दिया गया और कहा गया कि यह कोई गायक नहीं बल्कि भगवान बोल रहा है.
उनका गाना 'मस्ट मस्त' इसी दौर की याद दिलाता है, जिसे उन्होंने 1990 में पीटर गेब्रियल के रियल वर्ल्ड रिकॉर्ड्स के लिए कनाडाई संगीतकार माइकल ब्रॉक के साथ बनाया था। यह एक बहुत बड़ी सफलता थी.
“रियल वर्ल्ड रिकॉर्ड्स” एक दिलचस्प कहानी बताता है कि “पीटर गेब्रियल नुसरत फतेह अली को फिल्म के गाने के लिए उनकी आवाज रिकॉर्ड करने के लिए अपने साथ अपने स्टूडियो में ले गए.उस समय उस्ताद जी के साथ उनके भाई फारुख फतेह अली खान और तबला नवाज दिलदार हुसैन भी थे.उस्ताद नुसरत फतेह अली खान स्टूडियो में राग गा रहे थे और पीटर उसे रिकॉर्ड कर रहे थे.
इस आर्टिकल के मुताबिक, 'यह क्रम देर रात तक चलता रहा.नुसरत, फारुख और दिलदार थक गये थे.जब रिकॉर्डिंग ख़त्म होने वाली थी तो गेब्रियल ने (उत्साहजनक रूप से) कहा, 'मैं चाहता हूं कि आप पश्चिमी संगीतकारों के साथ भी कुछ गाएं.'
नुसरत ने हारमोनियम पकड़ रखा था. फारुख ने कहा, 'खान साहब, कृपया कुछ करें, ताकि हम आराम करने के लिए अपने कमरे में जा सकें.'यह सुनकर थके हुए दिलदार भी फारुख के साथ मुस्कुरा दिए. उन तीनों को पता ही नहीं चला कि नुसरत ने इतने हल्के-फुल्के अंदाज में क्या रचा है?
पीटर को गायन की यह शैली इतनी पसंद आई कि उन्होंने अपनी टीम के सदस्यों माइकल ब्रॉक, डेरिल जॉनसन, जेम्स पिंकर और गुओ यू को अपने निर्माताओं के साथ नुसरत के साथ एक ऐसे एल्बम पर काम करने के लिए कहा, जिसमें पश्चिमी संगीत का प्रभाव हो.इन सत्रों के बाद 'मस्ट मस्त' और अन्य गाने रिकॉर्ड किए गए और एल्बम भी इसी नाम से जारी किया गया.
उस्ताद नुसरत फतेह अली खान ने रियल वर्ल्ड रिकॉर्ड्स के तहत पांच कव्वाली एल्बम जारी किए हैं जिनमें 'मस्त मस्त' और 'नाइट सॉन्ग' शामिल हैं, जबकि एक एल्बम 'स्टार राइज' 1997 में मरणोपरांत जारी किया गया था.
उन्होंने अगले वर्षों में और अधिक पश्चिमी संगीतकारों के साथ काम किया और एल्बम 'डेडमैन वॉकिंग' के लिए अमेरिकी रॉक बैंड एडी वेडर के मुख्य गायक के साथ दो गाने गाए, जबकि कुछ अन्य पश्चिमी गायकों के साथ भी अपने गायन का जादू चलाया.
इस तथ्य से बचना नामुमकिन है कि उस्ताद नुसरत फतेह अली खान ने न सिर्फ कव्वाली में नए चलन पेश किए,बल्कि कव्वाली को पूरी दुनिया में लोकप्रिय बनाने में सबसे अहम भूमिका भी निभाई. वह निस्संदेह उपमहाद्वीप के सबसे महान कव्वाल और गायक थे.
उस्ताद नुसरत फतेह अली खान ने कुछ बॉलीवुड फिल्मों के लिए कव्वाल भी गाए.उन्होंने पहली बार किसी फिल्म के लिए गाना 'बैंडिट क्वीन' के लिए गाया था जो साल 1994 में रिलीज हुई थी.उनका कव्वाली गाना 'दुल्हे का सेहरा सुहाना लगता है' साल 2000 में रिलीज हुई फिल्म 'धड़कन' में दिखाया गया था.इसे काफी सराहना मिली थी.
हालांकि उन्होंने बॉलीवुड में कुछ खास नहीं किया, लेकिन महान संगीतकार एआर रहमान से लेकर आम दर्शक तक भारत भर में लाखों लोग उस्ताद नुसरत फतेह अली खान की गायकी की कला के दीवाने हैं.नुसरत फ़तेह अली खान का करियर बहुत लंबा नहीं था.भारतीय उपमहाद्वीप के किसी अन्य कव्वाल को उनके जैसी प्रसिद्धि नहीं मिली.
उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान को 1987 में पाकिस्तान सरकार द्वारा प्राइड ऑफ़ परफॉर्मेंस अवार्ड से सम्मानित किया गया था, जबकि वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र की सहायक संस्था यूनेस्को ने 1995में उस्ताद जी को संगीत पुरस्कार से सम्मानित किया था.
अगले वर्ष, उन्हें मॉन्ट्रियल वर्ल्ड फिल्म फेस्टिवल द्वारा सिनेमा की उत्कृष्ट सेवा के लिए एक विशेष पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जबकि जापान में उन्हें आज भी 'सिंगिंग बुद्धा' के रूप में याद किया जाता है.
उस्ताद नुसरत फतेह अली खान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिले सम्मानों की सूची बहुत लंबी है, वहीं उन्होंने कई रिकॉर्ड भी बनाए, जिनमें सबसे ज्यादा कव्वाली रिकॉर्ड करने का उनका रिकॉर्ड गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स का हिस्सा बन गया है.
टाइम्स पत्रिका, एनपीआर और सीएनएन ने उन्हें दुनिया के महानतम संगीतकारों की सूची में शामिल किया, जबकि अमेरिकी पत्रिका 'रोलिंग स्टोन' ने जनवरी 2023 में सर्वकालिक 200सर्वश्रेष्ठ गायकों की सूची प्रकाशित की, इसमें उस्ताद फ़तेह अली खान को शामिल किया गया 91 वीं रैंक दी गई.
उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान विश्व संगीत के अग्रदूत थे.हांगकांग पत्रिका 'एशिया वीक' के एक लेख के अनुसार, 'नुसरत फतेह अली खान की आवाज जादुई थी और उनके संगीत ने एक चौथाई सदी से लाखों लोगों को मंत्रमुग्ध कर रखा है.बुलंद आवाज़, कौशल और भावनाओं की तीव्रता की तुलना किसी और से नहीं की जा सकती.
वह अगस्त की एक उमस भरी शाम थी.उस्ताद नुसरत फतेह अली खान, जो पहले से ही किडनी की बीमारी से पीड़ित थे, लंदन से लॉस एंजिल्स जा रहे थे, तभी उनकी हालत अचानक खराब हो गई और उन्हें लंदन के क्रॉमवेल अस्पताल ले जाया गया, लेकिन कुछ दिनों तक वे जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष में रहे.16 अगस्त 1947 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई.उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ 49 साल थी.
उनके भतीजे राहत फतेह अली खान अब उनकी कलात्मक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं,लेकिन सच तो ये है कि नुसरत फतेह अली खान जैसा कोई दूसरा कलाकार पैदा ही नहीं हो सकता.
उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान की जीवनी 'कव्वाली का पयाम रसन' की प्रस्तावना में, लेखक और गायक, जिन्होंने गायक के साथ कई साल बिताए, पियरे एलेन बौ ने लिखा है: 'टोक्यो में सारा महात्मा, ट्यूनीशिया में मानव संगीत का सार, लॉस एंजिल्स में हेवन्स वॉयस, पेरिस में पूर्व की पावरती और लाहौर में शाहशाह-ए-कावली की उपाधियों से सम्मानित, लोगों के इस गायक ने लगभग डेढ़ दशक में सार्वभौमिक प्रसिद्धि प्राप्त की और फिर अपने समय से पहले हजारों अनुयायियों का अनुसरण किया.उसने छोड़ दिया.