-फ़िरदौस ख़ान
उर्दू मुहब्बत की ज़बान है. मुहब्बत दिलों को जोड़ने का काम करती है, इसलिए यह कहना क़तई ग़लत नहीं होगा कि उर्दू दिलों को जोड़ने वाली भाषा है. ‘उर्दू’ मूल रूप से तुर्की भाषा का शब्द है, जिसका मतलब है- ख़ेमा यानी शाही शिविर. तुर्कों के साथ यह शब्द भी हिन्दुस्तान आया.
उस वक़्त ख़ेमों में हिन्दुस्तानी मिश्रित फ़ारसी बोली जाती थी, इसीलिए इसका नाम उर्दू पड़ा. उर्दू का जन्म इसी सरज़मीं पर हुआ है, इसलिए उर्दू एक हिन्दुस्तानी भाषा है. इसे विदेशी भाषा कहना, हिन्दुस्तानी तहज़ीब का अपमान है. उर्दू फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है. यह अरबी, फ़ारसी और हिन्दी आदि स्थानीय भाषाओं के शब्दों को मिलाकर बनी है. उर्दू की मिठास और नफ़ासत इसे ख़ास बनाती है. उर्दू के बारे में शायर दानिश आमिरी कहते हैं-
वो उर्दू का मुसाफ़िर है यही पहचान है उसकी
जिधर से भी गुज़रता है सलीक़ा छोड़ जाता है
उर्दू को शायरों ने परवान चढ़ाया
महाराष्ट्र के औरंगाबाद में जन्मे वली मुहम्मद वली को उर्दू का पहला शायर माना जाता है. उन्हें वली दकनी, वली दक्कनी, वली औरंगाबादी और वली गुजराती भी कहा जाता है. उन्हें उर्दू ग़ज़ल का जनक कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने उर्दू को शायरी की भाषा बनाने में अहम किरदार अदा किया.
उस वक़्त फ़ारसी शायरी अपने उरूज़ पर थी. ऐसे वक़्त में वली दकनी ने स्थानीय भाषा यानी उर्दू में शायरी कर इसे लोकप्रिय बनाया. हालांकि उर्दू में शायरी का सिलसिला अमीर ख़ुसरो के दौर में ही शुरू हो गया था, लेकिन उसका अंदाज़ वही फ़ारसी शायरी वाला ही था.
जब वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची, तो इसने धूम मचा दी. उन्होंने उत्तरी भारत में उर्दू शायरी की बुनियाद रखी. दिल्ली, लखनऊ और आगरा आदि के शायरों ने उनकी शैली को अपनाया. इसके बाद उर्दू शायरी का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज भी बदस्तूर जारी है. यह सिलसिला हिन्दुस्तान से होता हुआ दुनियाभर में फैल गया.
वली दकनी की शायरी इश्क़ की शायरी है. वही इश्क़ जो इंसान को इश्क़े मिज़ाजी से इश्क़े हक़ीक़ी तक ले जाता है.उनकी शायरी में सूफ़ी फ़लसफ़ा है, जिसमें इश्क़ को ख़ुदा तक पहुंचने का ज़रिया माना गया है. वे कहते हैं-
याद करना हर घड़ी उस यार का
है वज़ीफ़ा मुझ दिल-ए-बीमार का
आरज़ू-ए-चश्मा-ए-कौसर नहीं
तिश्नालब हूं शर्बत-ए-दीदार का
आक़िबत क्या होवेगा मालूम नईं
दिल हुआ है मुब्तला दिलदार का
उन्होंने आम बोलचाल की भाषा में शायरी लिखी. उन्होंने दक्कनी उर्दू का ख़ूब इस्तेमाल किया, जिसमें फ़ारसी के साथ-साथ हिन्दी, मराठी और गुजराती आदि भाषाओं के शब्द भी शामिल हैं. उनकी शायरी में लोक संस्कृति और लोक जीवन के रंग झलकते हैं. उनकी शायरी में जहां क़ुदरत के इन्द्रधनुषी रंग समाये हैं, तो वहीं जज़्बात का गहरा समन्दर भी हिलोरे ले रहा है. वे गहरी से गहरी बात को बहुत ही आसान तरीक़े से कहने में माहिर थे. बानगी देखें-
मुफ़लिसी सब बहार खोती है
मर्द का एतिबार खोती है
उन्होंने शायरी को न सिर्फ़ एक नई भाषा दी, बल्कि उसे आम लोगों तक पहुंचाया भी। उनकी शायरी में मुहब्बत, रूहानियत और लोक संस्कृति का ऐसा अनोखा संगम है, जो लोगों को उनका मुरीद बना देता है. उनकी शायरी उर्दू अदब के इतिहास में मील के पत्थर की मानिन्द है. यह सांस्कृतिक और सामाजिक का सद्भाव का प्रतीक है.
मुहम्मद मीर यानी मीर तक़ी मीर ने वली दकनी की रवायत को आगे बढ़ाया. वे भी उर्दू के सबसे महान शायरों में से एक माने जाते हैं. उन्हें ख़ुदा-ए-सुख़न यानी शब्दों का देवता कहा जाता है. वे फ़ारसी और उर्दू के शायर थे. उन्होंने उर्दू शायरी को नई बुलंदियों तक पहुंचाया। उनकी शायरी में ज़िन्दगी के तमाम रंग समाये हुए हैं. इसमें जहां मिलन की ख़ुशी है, तो वहीं विरह की तड़प भी है. उन्होंने जज़्बात को बहुत ही गहराई से बयां किया है. बानगी देखें-
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
मीर तक़ी मीर के बाद मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा, नज़ीर अकबराबादी, मुहम्मद इब्राहिम ज़ौक़, मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान यानी मिर्ज़ा ग़ालिब, मोमिन ख़ाँ मोमिन, नवाब मिर्ज़ा खान दाग़ यानी दाग़ देहलवी, अल्ताफ़ हुसैन हाली, अकबर इलाहाबादी, अल्लामा इक़बाल, फ़ानी बदायूंनी, जिगर मुरादाबादी, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, जांनिसार अख़्तर, शकील बदायूंनी, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, जॉन एलिया, निदा फ़ाज़ली, बशीर बद्र, वसीम बरेलवी और राहत इन्दौरी आदि शायरों ने अपनी शायरी के ज़रिये उर्दू को लोकप्रिय बनाया. शायरों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है, जिसे यहाँ लिखना मुमकिन नहीं है.
उर्दू को आगे बढ़ाने में हिन्दू शायरों ने भी अहम किरदार निभाया है. बृज नारायण चकबस्त और रघुपति सहाय फ़िराक़ यानी फ़िराक़ गोरखपुरी को भला कौन नहीं जानता. फ़िराक़ गोरखपुरी का एक शेअर देखें-
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
शायर इक़बाल अशहर ने उर्दू की तारीफ़ कुछ इस अंदाज़ में की है-
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली
मैं मीर की हमराज़ हूं, ग़ालिब की सहेली
दक्कमन के वली ने मुझे गोदी में खिलाया
सौदा के क़सीदों ने मेरा हुस्न बढ़ाया
है मीर की अज़्मत कि मुझे चलना सिखाया
मैं दाग़ के आंगन में खिली बनके चमेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली…
ग़ालिब ने बुलंदी का सफ़र मुझको सिखाया
हाली ने मुरव्वदत का सबक़ याद दिलाया
इक़बाल ने आईना-ए-हक़ मुझको दिखाया
मोमिन ने सजायी मेरे ख़्कवाबों की हवेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली...
है ज़ौक़ की अज़्मत कि दिये मुझको सहारे
चकबस्तक की उल्फ़दत ने मेरे ख़्ेवाब संवारे
फ़ानी ने सजाये मेरी पलकों पे सितारे
अकबर ने रचायी मेरी बेरंग हथेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली...
क्यूं मुझको बनाते हो तआस्सुोब का निशाना
मैंने तो कभी ख़ुद को मुसलमां नहीं माना
देखा था कभी मैंने भी ख़ुशियों का ज़माना
अपने ही वतन में हूं मगर आज अकेली
उर्दू है मेरा नाम, मैं ख़ुसरो की पहेली...
उर्दू तो सिर्फ़ और सिर्फ़ मुहब्बत की भाषा है. मुहब्बत का न तो सरहदों से कोई वास्ता होता है और न किसी तबक़े से वह जुड़ी होती है. मुहब्बत तो ख़ुशबू की तरह फ़ज़ा में बहती है. लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि सियासत ने इसे मज़हब से जोड़कर बवाल खड़ा कर दिया है. शायर सदा अम्बालवी ने उर्दू के हालात को बख़ूबी बयां किया है-
अपनी उर्दू तो मुहब्बत की ज़बां थी प्यारे
अब सियासत ने उसे जोड़ दिया मज़हब से
दरअसल उर्दू एक ऐसी भाषा है, जिसमें देश की असंख्य भाषाओं के शब्द शामिल होकर इसे हिन्दुस्तानी भाषा बनाते हैं. यह हमारी भाषायी संस्कृति की पहचान है. किसी शायर ने क्या ख़ूब कहा है-
उर्दू हमारे मुल्क की वाहिद ज़बान है
गंगा की इसमें रूह है, जमना की जान है
(लेखिका शायरा, कहानीकार और पत्रकार हैं)