इस्लाम में उस्ताद का मर्तबा

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 05-09-2024
The status of a teacher in Islam AI photo
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फ़िरदौस ख़ान

मां-बाप बच्चे को इस दुनिया में लाते हैं और उसकी परवरिश करते हैं, लेकिन उस्ताद उसे ज़िन्दगी जीने का शऊर और सलीक़ा सिखाता है और हर क़दम पर उसकी रहनुमाई करता है. इसलिए उस्ताद को वालिदैन से ज़्यादा मर्तबा हासिल है.

एक बार सिकंदरे आज़म से किसी ने सवाल किया कि बाप का मर्तबा ज़्यादा है या उस्ताद का? इस पर सिकंदरे आज़म ने जवाब दिया कि उस्ताद का मर्तबा वालिद से कहीं ज़्यादा बुलन्द है, क्योंकि बाप तो फ़ना होने वाली ज़िन्दगी देता है, लेकिन उस्ताद हमेशा क़ायमो-दायम रहने वाली ज़िन्दगी देता है. बाप आसमान से ज़मीन पर लाता है और उस्ताद ज़मीन से आसमान पर ले जाता है. 

पहला उस्ताद कौन है?

जो हमें सिखाता है, वही उस्ताद है. तमाम कायनात में सबसे बुलंद मर्तबा उस्ताद का ही होता है. इस कायनात की तख़लीक़ करने वाला अल्लाह ख़ुद पहला उस्ताद है. क़ुरआन करीम में ख़ुद अल्लाह तआला फ़रमाता है-    
और अल्लाह ने आदम अलैहिस्सलाम को सारे नाम सिखाए. (2 :31) यानी अल्लाह पहला उस्ताद है और आदम अलैहिस्सलाम पहले तालिबे-इल्म यानी शिष्य हैं. अल्लाह तआला ने आदम अलैहिस्सलाम को कायनात का सारा इल्म सिखाया. अल्लाह ने लोगों को इल्म सिखाने के लिए अपने पयम्बर भेजे. आदम अलैहिस्सलाम पहले और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अल्लाह के आख़िरी नबी हैं. पयम्बरों ने ही अपने-अपने वक़्त की क़ौमों की रहनुमाई की और उन्हें ज़िन्दगी जीने का सच्चा और सीधा रास्ता दिखाया. कहते हैं कि उस्ताद तो एक नुक़्ते का भी होता है, यानी कोई एक नुक़्ता लिखना सिखा दे या समझा दे, तो उसे भी उस्ताद का दर्जा हासिल हो जाता है.    

अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि जिसने किसी बन्दा-ए-मोमिन को क़ुरआन की या कोई भी एक अच्छी बात सिखाई, तो वह उसका उस्ताद हो गया. (तबरानी)  

इस तरह कायनात के मालिक से शुरू हुआ इल्म उसके पयम्बरों तक पहुंचा. फिर पयम्बरों से दुनिया के तमाम लोगों तक पहुंचा. हम अल्लाह के आख़िरी नबी की उम्मत में जी रहे हैं. ये इस दुनिया की आख़िरी उम्मत भी है, क्योंकि अब न कोई नबी आएगा और न कोई उम्मत ही आएगी. हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हमारी रहनुमाई करने वाले हमारे उस्ताद भी हैं, रहबर और हादी भी हैं. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि मैं इल्म का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा हैं. लिहाज़ा जो इस शहर में दाख़िल होना चाहता है उसे चाहिए कि वह उस दरवाज़े से आए. यानी इल्म मौला अली अलैहिस्सलाम के ज़रिये हासिल होता है. बच्चे के लिए उसकी मां पहली उस्ताद है. शायद इसीलिए उसके क़दमों में जन्नत है.
 
दरहक़ीक़त इस्लाम में उस्ताद का बहुत बड़ा मक़ाम है. उस्ताद की ताज़ीम करना शागिर्द पर लाज़िमी है. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि वह हमारी उम्मत में से नहीं है, जो बड़ों की इज़्ज़त न करे और छोटों पर मेहरबानी न करे और आलिम का हक़ न पहचाने. (मुसनद, तबरानी, हकीम)    

हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि जिसने मुझे एक हर्फ़ भी सिखाया, उसने मुझे अपना ग़ुलाम बना लिया. अब वह चाहे मुझे बेचे या आज़ाद करे. आपने यह भी फ़रमाया कि आलिम का हक़ ये है कि उसके सामने मत बैठो और ज़रूरत पड़े तो सबसे पहले उसकी ख़िदमत के लिए खड़े हो जाओ. (तबरानी)  

इमाम बुरहानुद्दीन ज़रनुजी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि एक तालिबे-इल्म उस वक़्त तक इल्म हासिल नहीं कर सकता और न ही उससे नफ़ा उठा सकता है, जब तक कि वह इल्म और अपने उस्ताद की इज़्ज़त न करता हो. यानी उसे इल्म और उस्ताद दोनों की इज़्ज़त करनी होगी, तभी उसे इल्म से फ़ायदा हासिल होगा.  
इन हदीसों से मालूम हो जाता है कि इस्लाम में उस्ताद को क्या मक़ाम हासिल है.
 
बादशाह हारून रशीद के दरबार में एक आलिम तशरीफ़ लाते, तो वे उनके सम्मान में खड़े हो जाते. यह देखकर दरबारियों ने कहा कि इससे सल्तनत का रौब जाता रहता है, तो उन्होंने जवाब दिया कि उलमा-ए-दीन की ताज़ीम करने से सल्तनत का रौब जाता है, तो वह जाने ही के क़ाबिल है.    

एक और वाक़िया है. हारून रशीद ने अपने बेटे मामून को इल्म व अदब की ताज़ीम के लिए इमाम असमई के सुपुर्द कर दिया था. एक दिन इत्तेफ़ाक़न हारून रशीद उनके यहां जा पहुंचे. उन्होंने देखा कि इमाम असमई अपने पांव धो रहे हैं और शहज़ादा पानी डाल रहा है. ये देखकर उन्होंने इमाम असमई से कहा कि मैंने तो इसे आपके पास इसलिए भेजा था कि आप इसे अदब सिखाएंगे. आपने शहज़ादे को ये हुक्म क्यों नहीं दिया कि वह एक हाथ से पानी डाले और दूसरे हाथ से आपके पांव धोये.      

इमाम फ़ख़रुद्दीन अर्सा बंदी रहमतुल्लाह अलैह मज़्द शहर में रईसुल आईमा के मक़ाम पर फ़ाईज़ थे. सुल्ताने वक़्त आपका बेहद अदब व एहतराम किया करते थे. आपने फ़रमाया कि मुझे ये मंसब अपने उस्ताद की ख़िदमत व अदब करने की वजह से मिला है.

इल्म की अहमियत

उस्ताद की ताज़ीम करना, इल्म की इज़्ज़त करना है. इस्लाम में इल्म की भी बहुत बड़ी अहमियत बयान की गई है. हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि फ़रिश्ते तालिबे-इल्म के लिए बख़्शीश की दुआ करते हैं. यहां तक कि मछलियां पानी में दुआ करती हैं. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि ख़ैर की तालीम देने वाले के लिए हर चीज़ बख़्शीश की दुआ करती है. यहां तक कि समन्दर में मछलियां भी. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि जब एक उस्ताद तालीम देने के दौरान बच्चे से कहता है कि कहो और वह बच्चा उसे दोहराता है, तो अल्लाह तआला उस बच्चे, उसके वालिदैन और उस्ताद को जहन्नुम की आग से निजात अता कर देता है.

एक हदीस में कहा गया है कि इल्म हासिल करो, मां की गोद से क़ब्र के पेट तक.

शैख़ुल मशायख़ डॉक्टर बहार चिश्ती नियामातपुरी साहब कहते हैं कि जो शिष्य अपने उस्ताद की ताज़ीम करते हैं, उन्हें दीनी और दुनियावी दोनों ही तरह का नफ़ा हासिल होता है. उनमें क़ुदरती समझ पैदा होती है. लोग उन्हें इज़्ज़त की नज़र से देखते हैं और उनके रूहानी दर्जात भी बुलंद होते हैं. वे कहते हैं कि हर दौर में उस्ताद की ज़रूरत रही है. वह उस्ताद अल्लाह हो, उसके पैग़म्बर हों या आलिमे-दीन हों या आलिमे-मारिफ़त यानी  मुर्शिद हों. ज़िन्दगी के हर गोशे में उस्ताद की ज़रूरत होती है. बच्चा सबसे पहले अपनी मां से ही इल्म हासिल करता है. इसके बाद उसका वालिद उसे सिखाता है. फिर बहुत से उस्ताद उसकी ज़िन्दगी में आते हैं. दरअसल मां, वालिद, परिवार, समाज और समाज के लोग उस्ताद की हैसियत से ही ज़िन्दगी में आते हैं, क्योंकि इन सबसे ही कुछ न कुछ सीखने को मिलता है. बहार साहब फरमाते हैं-

चिश्ती दो हैं ही नहीं, गुरु अरु गोबिन्दाम.
जैसे बेटी अरु बहू, एक रूप दो नाम..

(लेखिका आलिमा हैं. उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है.)