भारत की आत्मा इसकी समग्र संस्कृति में बसती है

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 21-06-2024
The soul of India lies in its composite culture
The soul of India lies in its composite culture

 

शुजात अली कादरी

भारत का सार एक जीवंत मोजेक है, जो सदियों से सह-अस्तित्व में रहे आस्था, अनुष्ठानों और संस्कृति के पवित्र और अनंत मिश्रण से चमकता है. इस सांस्कृतिक वातावरण में रहस्यवाद और ‘समग्र संस्कृति’ का उदात्त विचार निहित है, जिसका अर्थ है एक सुंदर अंतर्संबंध जहां संस्कृति विभिन्न धागों से ली गई है और एक उच्च पारलौकिक एकता में संयुक्त है, जहां सभी बाधाएं, मनोवैज्ञानिक बाधाएं और भ्रामक विभाजन का आत्मसमर्पण हो गया है.

सांस्कृतिक उत्पत्ति का पता प्राचीन काल में लगाया जा सकता है, जब यात्री और आध्यात्मिक साधक भारतवर्ष के तटों पर पहुंचे, जिसने सांस्कृतिक विचारधारा और कथाओं और कहानियों के कई संपर्कों के लिए एक जगह बनाई.

यह संलयन भारत की अनगिनत आध्यात्मिक धाराओं का एक दिव्य कीमिया है, जहां अद्वितीय संश्लेषण देश भर में विभिन्न तीर्थ स्थलों पर उत्सवों के रूप में जीवंत अभिव्यक्ति पाता है और पहचान और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की साझा भावना को बढ़ावा देता है.

इन पवित्र स्थानों में ही ‘भारतीयता’ की शाश्वत भावना देखने को मिलती है, एक समावेशी एकता, जहां विभिन्न धर्मों का पवित्र एकीकरण राष्ट्रीय पहचान और बहुलवाद के सामूहिक उत्कर्ष को जन्म देता है. सूफी रहस्यवादी और संत दिव्य प्रेम, आध्यात्मिक सद्भाव के अपने शाश्वत संदेश को प्रकट करते हुए खिले.

निजामुद्दीन की कव्वाली और गुलाब की पंखुड़ियां 

भारतीयता की भव्यता दिल्ली के ऐतिहासिक निजामुद्दीन बस्ती में निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में देखी जा सकती है, जहां बैसाखी, बसंत पंचमी और अन्य मौसमी उत्सवों के जीवंत त्योहारों के दौरान, दरगाह एक जीवंत दृश्य प्रस्तुत करती है,  जहाँ हिंदू, मुस्लिम, सिख और सभी धर्मों के लोग भगवा, नारंगी और सरसों के रंग के वस्त्र पहनकर अपनी पहचान को समर्पित करते हैं और पूजा की एक संयुक्त धारा बनाते हैं, जहां वसंत और फसल के मौसम का आगमन मनाया जाता है. हवा में कव्वाली की मनमोहक धुनें और गुलाब की पंखुड़ियों की खुशबू फैली होती है, जो एकता का माहौल बनाती है और दरगाह की पवित्र दीवारों के भीतर धार्मिक सीमाएं खत्म हो जाती हैं और एकता की गहरी भावना व्याप्त होती है, जो समग्र संस्कृति का सार परिभाषित करती है.

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दरगाह के संरक्षकों में से एक सूफी हम्माद निजामी के अनुसार, यह परंपरा 700 साल पुरानी हो सकती है. एक आध्यात्मिक नेता, निजामुद्दीन औलिया पर काले बादल छा गए, जब उन्होंने अपने भतीजे को खो दियाऔर इससे वे बहुत दुखी हो गए, क्योंकि वे इस नुकसान का दर्द सहन करने में असमर्थ थे. उन्होंने अपनी पीड़ा के कारण मुस्कुराना बंद कर दिया.

एक दिन, उनके शिष्य, कवि अमीर खुसरो घूम रहे थे और उन्होंने कुछ किसानों को खुशी-खुशी मंदिर की ओर जाते देखा. वे भरपूर फसल के लिए देवताओं को धन्यवाद देने के लिए पीले फूल और स्कार्फ लेकर गए थे. खुसरो के मन में एक विचार आया.

उन्होंने किसान से एक स्कार्फ लिया और उसे पगड़ी की तरह अपने सिर पर बाँध लिया. फिर वह टहलते हुए निजामुद्दीन औलिया के पास गए और रास्ते में बनाए गए वसंत के मधुर गीतों को गुनगुनाते रहे. उन्होंने आध्यात्मिक नेता से कहा कि वह यह सब सिर्फ उन्हें फिर से मुस्कुराते हुए देखने के लिए कर रहे हैं. धुनों को सुनकर निजामुद्दीन औलिया छह महीने बाद फिर से मुस्कुराए. तब से, वे हर साल यह उत्सव मनाते हैं कि कैसे निजामुद्दीन औलिया की खुशियां लौट आईं.

पहचान का समर्पणः विविधता में जीवंत एकता

दरगाह में रहने वाले गनी शाह के अनुसार, हाजी वारिस अली शाह, एक सूफी संत थे, जिनकी गहरी मान्यता थी कि हर धर्म की नींव करुणा, प्रेम और भक्ति की भावना पर आधारित है. इसी आस्था ने एक अभ्यास की शुरुआत की - बाराबंकी में सभी समुदायों के सदस्यों के साथ होली खेलने की परंपरा.

उस दिन, देवा शरीफ दरगाह का सफेद परिसर पीला, हरा, बैंगनी हो जाता है, क्योंकि मुस्लिम, ईसाई, हिंदू, सिख सहित हजारों लोग होली मनाने के लिए इकट्ठा होते हैं.

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वारिस पाक, देवा शरीफ और हमुदीन नागोरी जैसे पवित्र स्थलों पर होली के उल्लासपूर्ण उत्सवों में इस मिश्रित संस्कृति के जादू के अद्भुत दृश्य देखने को मिलते हैं, जहाँ विभिन्न आध्यात्मिक पथों के लोग सभी नश्वर आवरणों और भेदभावों को त्याग कर एक खुशनुमा उल्लासपूर्ण धारा बन जाते हैं और खुशी-खुशी उत्सव में भाग लेते हैं, एक-दूसरे पर रंग-बिरंगे गुलाल लगाते हैं और मिठाइयों का आदान-प्रदान करते हैं.

माहौल हंसी-मजाक, सौहार्द और समावेशिता की भावना से भरा होता है, जो धार्मिक संबद्धताओं से परे है. ये उत्सव केवल अनुष्ठान नहीं हैं, ये साझा सांस्कृतिक विरासत के जीवंत अवतार हैं,, जो विभिन्न समुदायों को एक साथ बांधते हैं. सभी धर्मों के लोगों का उत्साह सहिष्णुता, सांस्कृतिक जागरूकता, आपसी सम्मान और समझ की गहरी जड़ें दर्शाता है, जिसने भारतीय समाज की नींव रखी है.

मिश्रित संलयन

मिश्रित संस्कृति का प्रभाव धार्मिक उत्सवों से आगे बढ़कर भारतीय जीवन के विभिन्न पहलुओं में व्याप्त है. इसने स्थापत्य शैली, पाक परंपराओं, संगीत, नृत्य रूपों और कलात्मक अभिव्यक्तियों के आदान-प्रदान को सुगम बनाया है, जिसके परिणामस्वरूप प्रभावों का मिश्रण हुआ है. मंदिरों और मस्जिदों पर जटिल नक्काशी, भारतीय व्यंजनों के असंख्य स्वाद और शास्त्रीय संगीत की विविध लेकिन सामंजस्यपूर्ण धुनें सभी इस सांस्कृतिक समामेलन के प्रमाण हैं.

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इसके अलावा, गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस जैसे राष्ट्रीय उत्सव सभी पृष्ठभूमि के लोगों के लिए एक साथ आने और सामूहिक रूप से राष्ट्र की विविधता का सम्मान करने के लिए मंच के रूप में कार्य करते हैं, साथ ही उन्हें बांधने वाले सामान्य धागों को संजोते हैं.

ये अवसर भारत की मिश्रित विरासत में एकता और गर्व की भावना को मजबूत करते हैं. मिश्रित संस्कृति का उत्सव न केवल भारत की विविधता को समृद्ध करता है, बल्कि सांस्कृतिक सकारात्मकता और सद्भाव का माहौल भी बनाता है. विभिन्न समुदायों की अनूठी परंपराओं और प्रथाओं को अपनाने और उनकी सराहना करने से एक-दूसरे की मान्यताओं के प्रति गहरी समझ और सम्मान पैदा होता है. बदले में, यह समावेशिता का माहौल बनाता है, जहां लोग बिना किसी डर या पूर्वाग्रह के अपनी सांस्कृतिक पहचान व्यक्त करने में सक्षम महसूस करते हैं.

जैसे-जैसे भारत तेजी से बदलती दुनिया की जटिलताओं से जूझ रहा है, समग्र संस्कृति की भावना एक मार्गदर्शक शक्ति बनी हुई है, जो हमें एकता में निहित ताकत और मतभेदों को गले लगाने में पाई जाने वाली सुंदरता की याद दिलाती है.

यह एक विरासत है, जो समय की कसौटी पर खरी उतरी है. एक ऐसे राष्ट्र के लचीलेपन का प्रमाण है, जिसने सीमाओं को पार किया है और अपनी विविध विरासत की समृद्धि को अपनाया है. इस समग्र संस्कृति का जश्न मनाकर और उसे संजोकर, हम न केवल अतीत का सम्मान करते हैं बल्कि एक अधिक सामंजस्यपूर्ण और समावेशी भविष्य का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं.

(शुजात अली क़ादरी मुस्लिम छात्र संगठन के अध्यक्ष हैं.)