-ज़ाहिद ख़ान
देश की आज़ादी के लंबी जद्दोजहद में यूं तो बेशुमार घटनाएं याद की जा सकती हैं, लेकिन इनमें कुछ इतनी ख़ास हैं कि आगे चलकर आज़ादी के आंदोलन में फ़ैसला-कुन साबित हुईं.‘लाल किला ट्रायल’ ऐसा ही एक ऐतिहासिक वाक़िआ है.इस मुक़दमे की अहमियत इसलिए भी है कि इसने आज़ादी के लिए हमारे पुरखों के संघर्ष को अंजाम तक पहुंचाया.
भारतीय इतिहास में ‘लाल क़िला ट्रायल’ के नाम से मशहूर आज़ाद हिन्द फ़ौज के इस मुक़दमे के दौरान उठे नारे 'लाल क़िले से आई आवाज़/सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़/तीनों की उम्र हो दराज़' ने उस वक़्त मुल्क की आज़ादी के हक़ के लिए लड़ रहे लाखों नौजवानों को एक सूत्र में बांध दिया था.
वकील भूलाभाई देसाई लाल क़िले के अंदर जब इस मुक़दमे में जिरह कर रहे होते, तो बाहर सड़कों पर हज़ारों नौजवान नारे लगाकर फ़िज़ा को गूंजा देते. वतन-परस्ती का एक सैलाब-सा उठता.5 नवम्बर 1945 से 31 दिसम्बर 1945 यानी 57 दिनों तक चला यह मुक़दमा हिन्दुस्तान की आज़ादी के लड़ाई में ‘टर्निंग प्वाईंट’ था.
यह मुक़दमा कई मोर्चों पर हिंदोस्तानी एकता को और मज़बूत करने वाला साबित हुआ.मेजर जनरल शाहनवाज़ को मुस्लिम लीग और ले.कर्नल गुरबख़्श सिंह ढिल्लन को अकाली दल ने अपनी ओर से मुक़दमा लड़ने की पेशकश की, लेकिन इन वतन—परस्त सिपाहियों ने कांग्रेस की बनाई हुई डिफ़ेन्स टीम को ही अपने मुक़दमे में पैरवी करने की मंज़ूरी दी.
कांग्रेस की डिफ़ेंस टीम में सर तेज बहादुर सप्रू की लीडरशिप में मुल्क के उस समय के कई नामी-ग़िरामी वकील भूलाभाई देसाई, सर दिलीप सिंह, आसफ़ अली, जवाहरलाल नेहरू, बख़्शी सर टेकचंद, कैलाशनाथ काटजू, जुगलकिशोर खन्ना, सुल्तान यार ख़ान, राय बहादुर बद्रीदास, पीएस सेन, रघुनंदन सरन आदि शामिल थे.
जो ख़ुद इन सेनानियों का मुक़दमा लड़ने के लिए आगे आए थे.सर तेज बहादुर सप्रू की अस्वस्थता की वजह से भूलाभाई देसाई ने आज़ाद हिन्द फ़ौज के तीनों सिपाहियों का संयुक्त ट्रायल लड़ा.
मुक़दमा लड़ने से पहले भूलाभाई देसाई ने वे सारे दस्तावेज़ पढ़े, जिनमें आईएनए के जन्म, गठन, विघटन और पुनर्जन्म के साथ उपलब्धियां, आज़ाद हिन्द की अस्थायी सरकार और शक्तिशाली देशों से उसे मिली मान्यता, आईएनए का नेतृत्व और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़ आईएनए के युद्धबंदियों की उस समय की स्थिति जबकि अंग्रेज़ों ने मुक्ति सेना को बंदी बनाया था, का विस्तृत ब्योरा था.
देसाई को अस्थायी सरकार बनाने के बारे में जैसे-जैसे अधिक सबूत मिलते जाते, वैसे-वैसे वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की दूरदर्शिता और उनके अद्भुत सांगठिक कौशल से चकित हो जाते.क्रांतिकारी युद्ध में रत रहते हुए भी नेताजी ने छोटी से छोटी बात पर भी गहन विचार किया था.इन तथ्यों के आधार पर ही भूलाभाई देसाई ने मुक़दमे में बचाव की तैयारी की.
अभियोग की कार्यवाही मीडिया और जनता दोनों के लिए खुली हुई थी.जैसे-जैसे आज़ाद हिन्द फ़ौज के बहादुरी के क़िस्से देशवासियों को मालूम होते, उनका जोश बढ़ता जाता था.इस मुक़दमे के ज़रिये ही उन्हें यह मालूम चला कि आज़ाद हिन्द फ़ौज ने भारत-बर्मा सीमा पर अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ कई जगहों पर जंग लड़ी थी और एक समय तो 14 अप्रैल, 1944 को कर्नल शौकत अली मलिक की लीडरशिप में आज़ाद हिन्द फ़ौज की एक टुकड़ी ने मणिपुर के मोरांग में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा तक लहरा दिया था.
यह बात भी तथ्य है कि आज़ाद हिंद सरकार की ओर से कर्नल शौकत अली मलिक ने ढाई महीने तक मोरांग को मुख्यालय बनाकर इस प्रदेश पर शासन किया.मुक़दमे के दौरान पूरे मुल्क में क़ौमियत का माहौल पैदा हो गया.लोग मर मिटने को तैयार हो गए.
सारे मुल्क में सरकार के ख़िलाफ़ धरने-प्रदर्शन हुए, हिन्दू-मुस्लिम एकता की सभाएं हुईं.जिसमें मुक़दमे के मुख्य आरोपी कर्नल प्रेम कुमार सहगल, कर्नल गुरबख़्श सिंह ढिल्लन, मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान की लम्बी उम्र की दुआएं की गईं.
अंग्रेज़ हुकूमत ने सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज पर ब्रिटिश सम्राट के ख़िलाफ़ बग़ावत करने का इल्ज़ाम लगाया.लेकिन सीनियर एडवोकेट भूलाभाई देसाई की शानदार दलीलों ने यह मुक़दमा आज़ाद हिन्द फौज के सिपाहियों के हक़ में ला दिया.अदालत के सामने उन्होंने दो दिन तक लगातार अपनी दलीलें रखीं.
भूलाभाई ने मुक़दमे का आग़ाज़ इस बात से किया, ‘‘इस समय न्यायालय के समक्ष, किसी परतंत्र जाति द्वारा अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करने का अधिकार कसौटी पर है.’’ भूलाभाई देसाई की पहली दलील थी,‘‘जापान से पराजय के बाद अंग्रेज़ी सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल हंट ने जब ख़ुद आज़ाद हिन्द फ़ौज के जवानों को जापानी सेना के सुपुर्द कर दिया और उनसे कहा कि आज से आप हमारे मुलाज़िम नहीं और मैं अंग्रेज़ी सरकार की ओर से आप लोगों को जापान सरकार को सौंपता हूं, आप लोग जिस प्रकार अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहे, उसी प्रकार अब जापानी सरकार के प्रति वफ़ादार रहें.
यदि आप ऐसा नहीं करेंगे, तो आप दंड के भागी होंगे.कर्नल हंट का जापानी सेना के सम्मुख समर्पण और भारतीय सेना को जापानियों को सौंपने के बाद, इन जवानों पर अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत करने का मुक़दमा नहीं बनता.’’
उनकी दूसरी अहम दलील थी, ‘‘अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़ हर आदमी को अपनी आज़ादी हासिल करने के लिये लड़ाई लड़ने का अधिकार है.आज़ाद हिन्द फ़ौज एक आज़ाद और अपनी इच्छा से शामिल हुए लोगों की फ़ौज थी और उनकी निष्ठा अपने देश से थी.जिसको आज़ाद कराने के लिये नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने देश से बाहर एक अस्थायी सरकार बनाई थी और उसका अपना एक संविधान था.
इस सरकार को विश्व के नौ देशों की मान्यता प्राप्त थी.’’अपनी दलील को साबित करने के लिये उन्होंने मशहूर कानूनविद बीटन के कथन को उद्धत किया,‘‘अपने मुल्क की आज़ादी को हासिल करने के लिये, हर ग़ुलाम क़ौम को लड़ने का हक़ है,क्योंकि, अगर उनसे यह हक़ छीन लिया जाए, तो इसका मतलब यह होगा कि एक बार यदि कोई क़ौम ग़ुलाम हो जाए, तो वह हमेशा ग़ुलाम होगी.’’
बहरहाल, आगे चलकर इस ट्रायल ने पूरी दुनिया में अपनी आज़ादी के लिये लड़ रहे लाखों लोगों को अपने अधिकारों के जानिब बेदार किया.सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज़ के अलावा आज़ाद हिन्द फ़ौज के तमाम फ़ौजी जो जगह-जगह गिरफ़्तार हुए थे और जिन पर सैकड़ों मुक़दमे चल रहे थे, वे सभी रिहा हो गए.
3जनवरी, 1946को आज़ाद हिन्द फ़ौज के जाँ-बाज़ सिपाहियों की रिहाई पर ‘राईटर्स एसोसिएशन ऑफ़ अमेरिका’ तथा ब्रिटेन के कई पत्रकारों ने अपने अख़बार में मुक़दमे के बारे में जमकर लिखा.
इस तरह यह मुक़दमा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो गया.मौक़े की नज़ाकत को समझते हुए अंग्रेज़ी सरकार के कमाण्डर-इन-चीफ सर क्लॉड अक्लनिक ने इन जवानों की उम्र क़ैद सज़ा माफ़ कर दी.
भारत में बदली हुई हवा का रुख भांपकर, उन्होंने जान लिया कि यदि इन फ़ौजियों को सज़ा दी गई, तो पूरी हिन्दुस्तानी फ़ौज में बग़ावत हो जाएगी.कई इतिहासकारों का मानना है कि मुल्क की आज़ादी में आज़ाद हिन्द फ़ौज की लड़ाइयों की उतनी अहमियत नहीं है, जितना कि उसकी शिकस्त की.
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जो सुभाष चंद्र बोस की कई नीतियों से नाइत्तिफ़ाक़ी रखते थे, उन्होंने भी आज़ाद हिन्द फ़ौज के 1945 में भारत आगमन पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘‘यद्यपि आईएनए इस समय अपने लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रही, फिर भी उनकी अनेक उपलब्धियां हैं, जिनके लिए वे गर्व कर सकते हैं.
उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि, उनके एक स्थान पर एक झंडे के नीचे एकत्र होने की है.भारत की सभी जातियां एवं धर्मों के व्यक्ति धार्मिक एवं जातीय भेदभाव भूलकर एक हो गए और उनमें संगठित होने की भावना जाग्रत हुई.यह एक ऐसा उदाहरण है, जिसका अनुसरण हम सबको करना चाहिए.’’
आईएनए के आगमन और लाल क़िले में चलाए गए अभियोग का असर मुल्क में सशस्त्र सेना के हिन्दुस्तानी अफ़सरों और फ़ौजियों पर पड़ा.लाल क़िला ट्रायल के प्रभाव से ही बंबई नौसेना और वायु सेना में विद्रोह हुआ और कई जगह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह की हवा फैल गई.
कामगार, आम राजनैतिक हड़ताल पर चले गए और आम जीवन अस्त-व्यस्त हो गया.ज़ाहिर है कि इस पूरे घटनाक्रम से हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज की नींव हिल गई.इस मुक़दमे पर मोतीराम द्वारा संपादित किताब ‘टू हिस्टॉरिक ट्रायल्स इन रेड फ़ोर्ट’ की प्रस्तावना में पं.जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है,‘‘क़ानूनी मुद्दे अत्यंत महत्वपूर्ण थे, परन्तु क़ानून से परे इसमें ऐसा कुछ था, जो गहरा तथा अधिक महत्वपूर्ण था.
ऐसा कुछ जिसने भारतीय मस्तिकों की अर्द्ध-चेतन गहराइयों को झकझोर दिया.वे तीन अधिकारी और आज़ाद हिन्द फ़ौज, आज़ादी के लिए भारत के संघर्ष का प्रतीक बन गए.’’ अंग्रेज़ों को लगने लगा कि हिन्दुस्तानी फ़ौजों की पूरी हमदर्दी आज़ाद हिन्द फ़ौज के साथ है.उन्हें हिन्दुस्तानी फ़ौजों की वफ़ादारी पर शक होने लगा.
वे समझ गए कि जिस देश के सिपाही आज़ादी के लिए आमादा हो जाएं, उसे और ज़्यादा दिन ग़ुलाम नहीं रखा जा सकता.लंदन में ब्रिटिश सरकार ने अविलंब हिन्दुस्तान छोड़ने का फ़ैसला कर लिया.ब्रिटिश सरकार की ओर से एक कैबिनेट मिशन भारत भेजा गया.
जिसका काम भारत से ब्रिटिश शासन हटाने की योजना तैयार करना था.हिन्दुस्तानी तारीख़ के इस अहमतरीन ‘लाल क़िला ट्रायल’ के अठारह महीने बाद, यानी 15 अगस्त, 1947 को हमारा मुल्क आज़ाद हो गया.