ज़ाहिद ख़ान
देश की आज़ादी लाखों-लाख लोगों की कु़र्बानियों का नतीजा है,जिसमें लेखक, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों ने भी एक अहम रोल निभाया.ख़ास तौर से तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े लेखक, कलाकार आज़ादी के आंदोलन में पेश-पेश रहे.अपने गीत, ग़ज़ल, नज़्म, नाटक, अफ़सानों और आलेखों के ज़रिए उन्होंने पूरे मुल्क में वतन-परस्ती का माहौल बनाया.
तरक़्क़ीपसंद तहरीक से निकले तमाम तरक़्क़ीपसंद शायरों का ख़्वाब हिंदुस्तान की आज़ादी थी.साल 1942 से 1947 तक का दौर, तरक़्क़ीपसंद तहरीक का सुनहरा दौर था.यह तहरीक आहिस्ता-आहिस्ता मुल्क की सारी ज़बानों में फैलती चली गई.
हर भाषा में एक नये सांस्कृतिक आंदोलन ने जन्म लिया। आंदोलन ने जहां धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद व हर तरह की धर्मांधता और सामंतशाही का विरोध किया, तो वहीं साम्राज्यवादी दुश्मनों से भी ज़मकर टक्कर ली.
हसरत मोहानी, जोश मलीहाबादी, फ़िराक़ गोरखपुरी, वामिक़ जौनपुरी, मख़दूम मोहिउद्दीन, फै़ज़ अहमद फ़ैज़, अली सरदार जाफ़री, मजाज़, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी जैसे कद्दावर शायर तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमनवां, हमसफ़र थे.
यह सभी अपने अदब और तख़्लीक़ के ज़रिए आज़ादी की तहरीक में हिस्सा ले रहे थे.दर हक़ीक़त यह है कि इन शायरों की ग़ज़ल, नज़्मों ने मुल्क में आज़ादी के हक़ में एक समां बना दिया.
अवाम अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ गोलबंद हो गई.प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना तो हालांकि साल 1936में हुई, मगर उर्दू अदब पर तरक़्क़ीपसंद ख़यालात का असर बीसवीं सदी के आग़ाज़ से ही होने लगा था.
मौलाना हसरत मोहानी वह शख़्स थे, जिनके ख़यालात बड़े इंक़लाबी थे.उन्होंने उस ज़माने में पत्रकारिता और क़लम की अहमियत को पहचाना और साल 1903में अलीगढ़ से एक सियासी-अदबी रिसाला ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ निकाला.
जिसमें अंग्रेज़ी हुकूमत की नीतियों की कड़ी आलोचना की जाती थी.इस रिसाले में हसरत मोहानी ने हमेशा आज़ादी—पसंदों के लेखों, शायरों की इंक़लाबी ग़ज़लों-नज़्मों को तरजीह दी.इस बात का शायद ही बहुत कम लोगों को इल्म हो कि आज़ादी की तहरीक में मौलाना हसरत मोहानी ने ही सबसे पहले ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ का नारा दिया था.
इसके अलावा अहमदाबाद में साल 1921में हुए कांग्रेस सम्मलेन में उन्होंने ही ‘आज़ादी—ए—कामिल’ यानी पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव भी रखा.महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया.बावजूद इसके हसरत मोहानी ‘पूर्ण स्वराज्य’ का नारा बुलंद करते रहे और आख़िकार यह प्रस्ताव, साल 1929में पारित हुआ.
भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद समेत तमाम क्रांतिकारियों ने आगे चलकर मौलाना हसरत मोहानी के नारे ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ की अहमियत समझी और देखते-देखते यह नारा आज़ादी की लड़ाई में बेहद मक़बूल हो गया.एक समय देश भर में बच्चे-बच्चे की ज़बान पर यह नारा था.
उर्दू अदब में जोश मलीहाबादी वह आला नाम है, जो अपने इंक़लाबी कलाम से शायर-ए-इंक़लाब कहलाए.दूसरी आलमी जंग के दौरान जोश मलीहाबादी ने ‘ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़रजंदों के नाम’, ‘वफ़ादारान—ए-अजली का पयाम शहंशाह—ए-हिंदोस्तां के नाम’ और ‘शिकस्त—ए-जिंदां का ख़्वाब’ जैसी साम्राज्यवाद विरोधी नज़्में लिखीं.
‘‘क्या हिन्द का ज़िंदाँ काँप रहा है गूँज रही हैं तक्बीरें/उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें.’’ जोश के कलाम में सियासी चेतना साफ़ दिखलाई देती है और यह सियासी चेतना मुल्क की आज़ादी के लिए इंक़लाब का आहृान करती है.पूंजीवाद से समाज में जो आर्थिक विषमता पैदा होती है, वह जोश ने अपने ही मुल्क में देखी थी.
अंग्रेज़ हुकूमत में किसानों, मेहनतकशों को अपनी मेहनत की असल क़ीमत नहीं मिलती थी.सरमायेदार और अमीर होते जा रहे थे.इन इंसानियत मुख़ालिफ़ हरकतों की उन्होंने अपनी नज़्मों में हमेशा मुख़ालफ़त की, ‘‘इन पाप के महलों को गिरा दूंगा मैं एक दिन/इन नाच के रसियों को नचा दूंगा मैं एक दिन.’’ फ़िराक़ गोरखपुरी भी अपनी अदबी ज़िंदगी के आग़ाज़ में ही आज़ादी की तहरीक में शामिल हो गए थे.
साल 1920में प्रिंस ऑफ वेल्स की यात्रा की मुख़ालफ़त के इल्ज़ाम में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया था.वे इस ज़ुर्म में ढाई साल तक आगरा और लखनऊ की जेलों में रहे.फै़ज़ अहमद फै़ज़ ने अपने कलाम से बार-बार मुल्कवासियों को एक फ़ैसला—कुन जंग के लिए ललकारा.‘शीशों का मसीहा कोई नहीं’ शीर्षक नज़्म में वे कहते हैं,‘‘सब सागर शीशे लालो-गुहर, इस बाजी में बद जाते हैं/उठो, सब खाली हाथो को इस रन से बुलावे आते हैं.’’
मेहनतकशों के चहेते, इंक़लाबी शायर मख़दूम मोहिउद्दीन का शुमार मुल्क में उन शख़्सियात में होता है, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी अवाम की लड़ाई लड़ने में गुज़ार दी.आज़ादी की तहरीक के दौरान उन्होंने न सिर्फ़ साम्राज्यवादी अंग्रेज़ी हुकूमत से टक्कर ली, बल्कि अवाम को सामंतशाही के ख़िलाफ़ भी बेदार किया.मख़दूम की क़ौमी नज़्मों का कोई सानी नहीं था.
जलसों में कोरस की शक्ल में जब उनकी नज़्में गाई जातीं, तो एक समां बंध जाता। हज़ारों लोग आंदोलित हो उठते. ‘‘वो हिन्दी नौजवां यानी अलम्बरदार-ए-आज़ादी/वतन का पासबां वो तेग-ए-जौहर दार-ए-आज़ादी.’’
और ‘‘ये जंग है, जंग-ए-आज़ादी के लिए’’ इन नज़्मों ने तो उन्हें हिन्दुस्तानी अवाम का महबूब और मक़बूल शायर बना दिया.मख़दूम मोहिउद्दीन ने न सिर्फ़ आज़ादी की तहरीक में हिस्सेदारी की, बल्कि अवामी थिएटर में मख़दूम के गीत गाए जाते थे.
किसान और मज़दूरों के बीच जब इंक़लाबी मुशायरे होते, तो मख़दूम उसमे पेश-पेश होते। तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े सभी प्रमुख शायरों की तरह कैफ़ी आज़मी ने भी अपनी नज़्मों से प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद की.
किसानों और कामगारों की सभाओं में वे जब अपनी नज़्म पढ़ते, तो लोग आंदोलित हो जाते.ख़ास तौर से जब वे अपनी डेढ़ सौ अश्आर की मस्नवी ‘ख़ानाजंगी’ सुनाते तो हज़ारों लोगों का मजमा इसे दम साधे सुनता रहता.
उन्होंने साम्राज्यवाद का खुलकर विरोध किया.‘तरबियत’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं, ‘‘मिटने ही वाला है खू़न आशाम देव-ए-जर का राज़/आने ही वाला है ठोकर में उलट कर सर से ताज.‘‘
साहिर लुधियानवी की इब्तिदाई नज़्में यदि देखें, तो दीगर इंक़लाबी शायरों की तरह उनकी नज़्मों में भी ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ एक गुस्सा, एक आग है.वतनपरस्त नौजवान इन नज़्मों को गाते हुए, गिरफ़्तार हो जाते थे.उनकी कई ग़ज़लें हैं, जो अवाम को अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ उठने की आवाज़ देती हैं.
एक ग़ज़ल में वे कहते हैं,‘‘सरकश बने हैं गीत बग़ावत के गाये हैं/बरसों नए निज़ाम के नक्शे बनाये हैं.’’ ‘आवारा’ वह नज़्म है, जिसने शायर मजाज़ को एक नई पहचान दी.उस ज़माने में ‘आवारा’ पूरी एक नस्ल की बेचैनी की नज़्म बन कर उभरी.
मजाज़ जब अपनी एक और नज़्म ‘नौ-जवान से’ में नौजवानों को ख़िताब करते हुए कहते थे, ‘‘जलाल-ए-आतिश-ओ-बर्क़-ओ-सहाब पैदा कर/अजल भी काँप उठे वो शबाब पैदा कर/......तू इंक़लाब की आमद का इंतिज़ार न कर/जो हो सके तो अभी इंक़लाब पैदा कर.’’ तो यह नज़्म, नौजवानों में एक जोश, नया जज़्बा पैदा करती थी.
वतनपरस्ती और मुल्क के जानिब मुहब्बत जगाती मजाज़ की एक और मक़बूल नज़्म ‘हमारा झंडा’ के चंद अश्आर हैं,‘‘शेर हैं चलते हैं दर्राते हुए/बादलों की तरह मंडलाते हुए.’’ ‘भूका है बंगाल रे साथी, भूका है बंगाल’ वह नज़्म है, जिससे शायर वामिक़ जौनपुरी की शोहरत पूरे मुल्क में फैली.इस नज़्म का पसमंज़र साल 1943में बंगाल में पड़ा भयंकर अकाल है.
‘‘पूरब देस में डुग्गी बाजी फैला दुख का जाल/दुख की अगनी कौन बुझाये सूख गए सब ताल/जिन हाथों ने मोती रोले आज वही कंगाल रे साथी/आज वही कंगाल/भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल.’’ इप्टा के ‘बंगाल स्कवॉड’ और सेंट्रल स्कवॉड ने ‘भूका है बंगाल’ नज़्म की धुन बनाई और चंद महीनों के अंदर यह तराना मुल्क के कोने-कोने में फैल गया.
इस नज़्म ने लाखों लोगों के अंदर वतन—परस्ती, एकता और भाईचारे के जज़्बात जगाए। इप्टा के कलाकारों ने नज़्म को गा-गाकर बंगाल रिलीफ़ फंड के लिए हज़ारों रुपए और अनाज बंगाल के लिए इकट्ठा किया। जिससे लाखों हमवतनों की जान बची.
मजरूह की शायरी में रूमानियत और इंक़लाब का बेहतरीन संगम है.वे मुशायरों के कामयाब शायर थे.खु़शगुलू होने की वजह से जब वे तरन्नुम में अपनी ग़ज़ल पढ़ते, तो श्रोता झूम उठते थे.ग़ज़ल में उनके बग़ावती तेवर अवाम को आंदोलित कर देते थे.
उनकी एक नहीं, कई ऐसी ग़ज़लें हैं जिनमें उन्होंने समाजी और सियासी मौजू़आत को कामयाबी के साथ उठाया है.इनमें उनके बगावती तेवर देखते ही बनते हैं.आलम यह था कि मुल्क की आज़ादी की तहरीक में ये ग़ज़लें, नारों की तरह इस्तेमाल हुईं.
‘‘सितम को सर-निगूं, ज़ालिम को रुसवा हम भी देखेंगे/चले ऐ अज़्मे बग़ावत चल, तमाशा हम भी देखेंगे.’’ अवामी मुशायरों में तरक़्क़ीपसंद शायर जब इस तरह की ग़ज़लें और नज़्में पढ़ते थे, तो पूरा माहौल मुल्क की मोहब्बत से सराबोर हो जाता था.
लोग कुछ कर गुज़रने के लिए तैयार हो जाते थे.अप्रत्यक्ष तौर पर ये अवामी मुशायरे अवाम को बेदार करने का काम करते थे.तमाम तरक़्क़ीपसंद शायरों के साथ जांनिसार अख़्तर ने भी शायरी को रिवायती रूमानी दायरे से बाहर निकालकर, ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों से जोड़ा.उनकी शायरी में इंक़लाबी अनासिर तो हैं ही, साम्राज्यवाद और सरमायेदारी की भी सख़्त मुख़ालफ़त है.
वतनपरस्ती और क़ौमी—यकजेहती पर उन्होंने कई बेहतरीन नज़्में लिखी.सर्वहारा वर्ग का आहृान करते हुए, वे अपनी एक इंक़लाबी नज़्म में कहते हैं,‘‘मैं उनके गीत गाता हूं/जो शाने पर बग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं.’’ इन चंद मिसालों से जाना जा सकता है कि तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े शायरों ने मुल्क की आज़ादी के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया था.
अंग्रेज़ी हुकूमत के सैकड़ों ज़ुल्म सहे, जेल में हज़ारों यातनाएं सहीं.अपने परिवार से दूर रहे, लेकिन बग़ावत का झंडा नहीं छोड़ा। उसे बुलंद करे रहे। मुल्क की आज़ादी में उनकी बेमिसाल क़ुर्बानियां शामिल हैं.