-फ़िरदौस ख़ान
कार्तिक माह में मौसम सुहावना होने लगता है. सुबह और शामें गुलाबी हो जाती हैं. ऐसे दिलकश मौसम में दिवाली का त्यौहार आता है. अमावस की रात में आसमान में तारे टिमटिमा रहे होते हैं और ज़मीन पर मिट्टी के नन्हे दिये रौशनी बिखेर रहे होते हैं. ये दिलकश नज़ारा शायरों को लुभाता है. इसीलिए दिवाली पर ख़ूब शायरी लिखी गई है. नज़ीर अकबराबादी कहते हैं-
हर इक मकां में जला फिर दिया दिवाली का
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिल में समां भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मज़ा ख़ुश लगा दिवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का
जहां में यारो अजब तरह का है ये त्यौहार
रौशनी ने हमेशा अंधेरों पर फ़तेह हासिल की है. एक नन्हा-सा दीया भी अंधेरे पर भारी पड़ जाता है. दिवाली यही तो पैग़ाम देती है. अल्ताफ़ हुसैन हाली कहते हैं-
झुटपुटे के वक़्त घर से एक मिट्टी का दिया
एक बुढ़िया ने सर-ए-रह ला के रौशन कर दिया
ताकि रह-गीर और परदेसी कहीं ठोकर न खायें
राह से आसां गुज़र जाए हर एक छोटा बड़ा
ये दिया बेहतर है उन झाड़ों से और उस लैम्प से
रौशनी महलों के अंदर ही रही जिनकी सदा
गर निकलकर इक ज़रा महलों से बाहर देखिए
है अंधेरा घुप दर-ओ-दीवार पर छाया हुआ
सुर्ख़-रू आफ़ाक़ में वो रहनुमा मीनार हैं
रौशनी से जिनकी मल्लाहों के बेड़े पार हैं
भादो की झुलसा देने वाली गर्मी के बाद कार्तिक में ही लोगों को राहत मिलती है. शामें ख़ूबसूरत होने लगती हैं. माहौल बहुत ही ख़ुशनुमा हो जाता है. मोहम्मद सिद्दीक़ मुस्लिम इस ख़ूबसूरती को कुछ इस तरह बयां करते हैं-
छुप गया ख़ुर्शीद-ए-ताबां आई दीवाली की शाम
हर तरफ़ जश्न-ए-चराग़ां का है कैसा एहतिमाम
डेवढ़ियों पर शादयाने ऐश के बजने लगे
और रंगीं कुमकुमों से बाम-ओ-दर सजने लगे
इत्र-ओ-अंबर से हवा है किस क़दर महकी हुई
ख़ुशनुमा महताबियों से है फ़ज़ा दहकी हुई
फुलझड़ी से फूल यूं झड़ते हैं जैसे कहकशां
हर तरफ़ फैला फ़ज़ा में है पटाख़ों का धुआं
क्या मज़े की आतिश-अफ़्शानी है अग्नी-बान की
देखकर अश-अश करे जिसको नज़र इंसान की
हैं सितारों की ये लड़ियां या चराग़ों की क़तार
कूचा-ओ-बाज़ार के दीवार-ओ-दर हैं नूर-बार
बढ़ रहा है सूरत-ए-सैलाब लोगों का हुजूम
हर दुकां पर गाहकों का शोर-ओ-ग़ुल है बिल-उमूम
रौशनी बनकर ख़ुशी हर सम्त है छाई हुई
एक ख़िल्क़त जिसके जल्वों की तमाशाई हुई
दिवाली की तैयारियां बहुत पहले से शुरू हो जाती हैं. घर की साफ़-सफाई की जाती है, रंग-रोग़न किया जाता है. इस बाबत शाद आरफ़ी कहते हैं-
हो रहे हैं रात के दियों के हर सू एहतिमाम
सुब्ह से जल्वा-नुमा है आज दीवाली की शाम
हो चुकी घर-घर सफ़ेदी धुल रही हैं नालियां
फिरती हैं कूचों में मिट्टी के खिलौने वालियां
दिवाली के दिये सिर्फ़ दिये ही नहीं होते, बल्कि ये उम्मीदों के चराग़ होते हैं. इनसे जलाने वाले की न जाने कितनी ही उम्मीदें वाबस्ता हुआ करती हैं. बक़ौल कैफ़ी आज़मी-
एक दो ही नहीं छब्बीस दिये
एक इक करके जलाए मैंने
एक दिया नाम का आज़ादी के
उसने जलते हुए होंटों से कहा
चाहे जिस मुल्क से गेहूं मांगो
हाथ फैलाने की आज़ादी है
इक दिया नाम का ख़ुशहाली के
उसके जलते ही ये मालूम हुआ
कितनी बदहाली है
पेट ख़ाली है मिरा, जेब मिरी ख़ाली है
इक दिया नाम का यकजेहती के
रौशनी उसकी जहां तक पहुंची
क़ौम को लड़ते झगड़ते देखा
माँ के आंचल में हैं जितने पैवंद
सबको इक साथ उधड़ते देखा
दूर से बीवी ने झल्ला के कहा
तेल महंगा भी है मिलता भी नहीं
क्यूं दिये इतने जला रक्खे हैं
अपने घर में न झरोका, न मुंडेर
ताक़ सपनों के सजा रक्खे हैं
आया ग़ुस्से का इक ऐसा झोंका
बुझ गए सारे दिये
हां, मगर एक दिया नाम है जिसका उम्मीद
झिलमिलाता ही चला जाता है
माजिद-अल-बाक़री भी इस उम्मीद को बरक़रार रखते हैं. वे कहते हैं-
बीस बरस से इक तारे पर मन की जोत जगाता हूं
दीवाली की रात को तू भी कोई दिया जलाया कर
शहज़ाद अहमद कहते हैं-
जलते हैं इक चराग़ की लौ से कई चराग़
दुनिया तेरे ख़याल से रौशन हुई तो है
बक़ौल रहमान ख़ावर-
बुझा भी हो तो उजाला मिरी नज़र में रहे
कोई चराग़ तो ऐसा भी मेरे घर में रहे
मुहब्बत ही कभी चाहत बनकर, तो कभी उम्मीद बनकर दियों की सूरत में जगमगाती रहती है, लेकिन इसके लिए इंसान को ख़ुद भी जलना पड़ता है. हसन जमील के अंदाज़ में-
ये रौशनी यूं ही आग़ोश में नहीं आती
चराग़ बनके मुंडेरों पे जलना पड़ता है
शाकेब जलाली का अपना अंदाज़ है. वे कहते हैं-
प्यार की जोत से घर-घर है चराग़ां वर्ना
एक भी शमा न रौशन हो हवा के डर से
दिवाली की रात में घरों से झांकती रौशनी कितनी भली लगती है. मोहम्मद अल्वी कहते हैं-
खिड़कियों से झांकती है रौशनी
बत्तियां जलती हैं घर-घर रात में
दिवाली पर रास्ते भी ख़ूब रौशन होते हैं. बक़ौल ओबैद आज़म आज़मी-
राहों में जान घर में चराग़ों से शान है
दीपावली से आज ज़मीन आसमान है
दिवाली से न जाने कितनी ख़ूबसूरत यादें जुड़ी होती है. इस बारे में कैफ़ भोपाली कहते हैं-
वो दिन भी हाय क्या दिन थे जब अपना भी तअल्लुक़ था
दशहरे से दिवाली से बसंतों से बहारों से
मुमताज़ गुर्मानी का अंदाज़े बयां भी बहुत ही दिलकश है. वे कहते हैं-
मेले में गर नज़र न आता रूप किसी मतवाली का
फीका-फीका रह जाता त्यौहार भी इस दीवाली का
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद कहते हैं-
दीपमाला में मुसर्रत की खनक शामिल है
दीप की लौ में खिले गुल की चमक शामिल है
जश्न में डूबी बहारों का ये तोहफ़ा शाहिद
जगमगाहट में भी फूलों की महक शामिल है
इंसान की ज़िन्दगी भी बिल्कुल दिवाली की दियों की मानिन्द होती है. नुशूर वाहिदी ने इसे बहुत ही ख़ूबसूरत अंदाज़ में बयां किया है. वे कहते हैं-
हस्ती का नज़ारा क्या कहिए मरता है कोई जीता है कोई
जैसे कि दिवाली हो कि दिया जलता जाए बुझता जाए
नादिर शाहजहांपुरी फ़ानी ज़िन्दगी को इस तरह बयां करते हैं-
जल बुझूंगा भड़क के दम भर में
मैं हूं गोया दिया दिवाली का