एम मिश्र / लखनऊ
जंगे-आजादी का यह वह दौर था, जब अंग्रेजी हुकूमत एक-एक कर भारतीय राजाओं, बादशाहों और नवाबों की रियासतें व सल्तनत हड़पते जा रहे थे. चंद रूपयों में राजे-रजवाड़ों को अपना गुलाम बनाने की मुहिम को अंग्रेज अफसर धार दे रहे थे. यह सिलसिला अवध की ओर बढ़ा और यहां के नवाब वाजिद अली को बेदखल कर दिया था. बेगम हजरत महल, रानी झांसी लक्ष्मीबाई और नाना राव के साथ तमाम रियासतों के अगुवा के अंदर धधक रही चिंगारी अब आग बनकर फैलने को बेताब थी. सन् 1857 के इसी दौर में फैजाबाद से ताल्लुक रखने वाले एक मौलवी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मोर्चे की छापामार अगुवाई की. मौलवी अहमदउल्ला शाह फैजाबादी उर्फ नक्कारशाह उर्फ डंका शाह फैजाबादी रात को घोड़े पर सवार होकर निकलते और अंग्रेज सैनिकों के ठिकाने पर आफत बनकर टूट पड़ते. आजादी की इस पहली लड़ाई में इस मौलवी के आने भर की आहट से ही अंग्रेज अफसर और उनकी टुकड़ी खौफ से थर्रा उठती थी.
मेरठ में सिपाहियों के अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत शुरू हुई, तो यह आग पूरे देश में फैल गई. 10 मई के बाद भड़की इस चिंगारी ने आगरा व अवध में खूब जमकर धधकी. आजादी की इस जंग को लेकर इतिहासकारों का मानना है कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत की जो तैयारी तत्कालीन आगरा व अवध सूबे में थी, वह कहीं और नहीं थी. इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि दिल्ली में पांच माह के भीतर ही अंग्रेजों ने बगावत पर काबू पा लिया. आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर कैद कर लिए गए, लेकिन लखनऊ में आजादी के मतवालों ने अंग्रेजों से 11 माह तक लोहा लिया. कहीं अंग्रेजों को जगह-जगह अपने अफसरों व जवानों की हिफाजत के लिए संघर्ष करना पड़ा, तो कहीं से उन्हें अपनी इमारतों व तंबुओं को उखाड़कर वापस भागना पड़ा.
1857 में जंगे आजादी के इन मतवालों की टोली में फैजाबाद के एक मौलवी ने जमकर मोर्चा संभाला. मौलवी अहमदउल्ला शाह फैजाबादी के अंग्रेजों के खिलाफ अपनाए गए तौर-तरीकों से अंग्रे भी दंग थे. उनकी बहादुरी और जाबांजी की दाद अंग्रेज तक देते थे और उन्हें फौलादी शेर कहते थे.
मौलवी अहमदउल्ला शाह फैजाबादी को कई इतिहासकारों ने पद से हटाया गया तालुकेदार या जमीनदार बताया है. उन्हें नक्कारशाह व डंकाशाह के नाम से भी जाना जाता था. यानि वे जरूर किसी ओहदे पर रहे होंगे, जिसके आने की मुनादी नक्कार या डंके का इस्तेमाल करके की जाती रही होगी. हालांकि इतिहास में इस शख्सियत के लिए तरह-तरह की बातें हैं. कई जगह उनके लिए दक्षिण से आया फकीर भी बताया गया है. लेकिन, एक बात हकीकत थी कि इस शख्स ने अंग्रेजों के खिलाफ 1857 की लड़ाई हिंदुओं व मुसलमानों को अपने साथ शामिल कर उनके कंधे से कंधा मिलाकर लड़ी. अहमदउल्ला शाह की इस ताकत को अंग्रेज लाख कोशिशों के बावजूद भी कमजोर नहीं कर सके. यह पूरे अवध में छिड़ी जंग की ताकत भी थी. इसकी वजह मौलवी की सभी रियासतों, जमीनदारों व नवाबों को देशभक्ति के धागे में पिरोने वाली काबिलियत थी. शंकरपुर ;रायबरेली के राणा वेणी माधो सिंह के साथ मिलकर इस ताने-बाने को और मजबूत किया.
मौलवी अहमदउल्ला शाह ने बगावत के दौर में बांटे गए पर्चों में अंग्रेजों को काफिर कहा. उन दिनों छावनी-छावनी और शहर-शहर, साधु-फकीरों, सिपाहियों व चौकीदारों के जरिये रोटी व कमल बांटने का सिलसिला जारी रहा, उसके लिए जोश भरने का काम भी मौलवी ने ही किया. गांव-गांव, शहर-शहर पहुंची रोटियों को खाकर लोग दूसरी ताजा रोटियां बनाकर अन्य जगहों के लिए रवाना की जाती थीं. यह रोटी खाने का मतलब था कि हम भी आजादी की इस जंग में शरीक हैं.
एक सूफी संत की दी सीख को मौलवी ने अपनी जिंदगी का फलसफा बना लिया था. वह यह था कि सांस रहते नाइंसाफी मंजूर नहीं. बगावत की चिंगारी भड़कने से कई माह पहले ही मौलवी अहमदउल्ला शाह के साथ हथियारबंद लोगों की टोली के जुटने से अंग्रेज अफसर डर गए थे. फरवरी 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें अपने हथियार सौंपने को कहा. इस पर मौलवी ने इंकार कर दिया. मौलवी की गिरफ्तारी का हुक्म जारी किया गया, तो अवध में अंग्रेजी हुकूमत के सिपाहियों ने ऐसा करने से मना कर दिया. इसके बाद अंग्रेजी फौज पहुंची और उसने 19 फरवरी, 1857 को मौलवी को पकड़ लिया और जंजीरों में जकड़े मौलवी को फांसी की सजा सुना दी गई.
आठ जून, 1857 को बगावत की लपटें फैजाबाद पहुंचीं, तो शहर की बहादुर जनता और अंग्रेजों खिलाफ बगावत में शामिल हुए भारतीय सिपाहियों ने जेल पर हमला कर बंद मौलवी को आजाद करा लिया. अपने चहेते मौलवी के आजाद होने पर उन्हें तोपों की सलामी दी गई. भरपूर जश्न के बाद मौलवी ने बागी फौज की कमान मौलवी अहमदउल्ला शाह ने संभाल ली और फैजाबाद को अंग्रेजों के पंजों से आजाद करा राजा मान सिंह को उसका राजा बनाया.
अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए मौलवी फैजाबाद तक के दायरे में नहीं बंधे और वे लखनऊ में रेजीडेंसी के घेरे और चिनहट की लड़ाई में अगुवा बनकर आ कूदे. इतिहासकार भी मानते हैं कि लखनऊ में क्रांति का सबसे काबिल नेता मौलवी ही था. रेजीडेंसी और चिनहट ही नहीं आलमबाग में खड़ी अवधकाल की इमारत भी मौलवी की इस जांबाजी की गवाह है.
मौलवी अहमदउल्ला शाह हर रात घोड़े पर सवार होकर आते और अंग्रेजों के ठिकानों पर हथियारबंद टोली के साथ टूट पड़ते. बंदूकों, तलवारों के वार से जख्मी अंग्रेज सिपाही अपनी जान बचाने के लिए मोर्चा छोड़ भाग खड़े होते. कई बार बागियों को पीछे हटना पड़ा, तो मौलवी ने उन्हें छापामार लड़ाई के गुर बताए. फिर तो अंग्रेज बागियों से आमने-सामने की लड़ाइयों में भी उतने दहशत से भरे नहीं थे, जितने इन छापामार मुकाबलों से हुए.
15 जनवरी, 1858 को गोली लगने से जख्मी होने के बावजूद मौलवी ने हिम्मत नहीं हारी. लखनऊ के पतन के बाद भी उन्होंने शहादतगंज मोहल्ले में विजयी अंग्रेजी सेना से जा भिड़े. वहां से निकले तो अंग्रेज छह मील तक पीछा करके भी उनके पास नहीं फटक सके. आखिर अंग्रेज धीरे-धीरे बगावत पर काबू पाने म