साकिब सलीम
स्वामी सत्यभक्त 20वीं सदी के भारतीय दार्शनिक थे, जिन्होंने मनुष्यों के बीच प्रेम को बढ़ावा देने के लिए जैन और हिंदू धार्मिक विचारों का प्रतिनिधित्व किया.1940 के दशक के उत्तरार्ध में जब भारत में धर्म के नाम पर सबसे भयानक हिंसा देखी गई, देश का विभाजन हुआ, तब सत्यभक्त ने अपने अनुयायियों के साथ प्रेम का उपदेश दिया.
हिंदू-मुस्लिम दुश्मनी को बनावटी बताने के लिए पुस्तिकाएँ छपवाई गईं और वितरित की गईं.सत्यभक्त द्वारा विकसित विचार आज भी प्रासंगिक हैं. जब लोग अपने धार्मिक विश्वासों के कारण भेदभाव का सामना कररहे हैं.उस समय हज़ारों लोग उनकी शिक्षाओं से प्रभावित हुए.उन्होंने धर्मों के बीच प्रेम का प्रचार किया.
सत्यभक्त ने लोगों से कहा, “इस देश में इस तरह के संघर्ष नए नहीं हैं.अतीत में आर्यों और अनार्यों के बीच बहुत भयंकर संघर्ष हुआ करते थे.उनकी संस्कृतियों में हिंदुओं और मुसलमानों की तुलना में कहीं ज़्यादा अंतर था.फिर भी, आज आर्यों और अनार्यों के बीच संघर्ष पूरी तरह से अनुपस्थित है.अब दोनों एक समाज और एक राष्ट्र के रूप में रहते हैं.”
सत्यभक्त ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कथित मतभेदों के बिंदुओं को सूचीबद्ध किया, जिन्हें हिंसक संघर्षों के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था.फिर एक-एक करके उनका खंडन किया.मूर्ति पूजा को अक्सर उन केन्द्र बिन्दुओं में से एक माना जाता है जो दो समुदायों के बीच खूनी संघर्ष पैदा करता है.सत्यभक्त तर्क देते हैं, “हिंदुओं में आर्य समाजी, ब्रह्म समाजी, स्थानकवासी आदि कई संप्रदाय हैं,जो मूर्ति पूजा के खिलाफ हैं.
सिख और तारणपंथी आधे मूर्तिपूजक हैं. यानी वे धर्मग्रंथों को मूर्ति के रूप में पूजते हैं.मुसलमान भी आधे मूर्तिपूजक हैं. वे ताजिया और कब्र की पूजा करते हैं. काबा के पत्थर को चूमते हैं. मस्जिदों में जूते पहनना मना है. ये भी एक तरह की मूर्ति पूजा है. ईंट और चूना पत्थर का सम्मान भी मूर्ति पूजा है, इसलिए हिंदू और मुसलमान दोनों मूर्तिपूजक हैं.वास्तव में, न तो कोई हिंदू मूर्तिपूजक है और न ही कोई मुसलमान.”
लोगों को बताया गया कि पैगंबर का मूर्ति-विरोधी अभियान उन लोगों को जवाब था जो मूर्तियों के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाते थे.एक मूर्ति के अनुयायी दूसरे मूर्ति के अनुयायियों के खिलाफ हथियार उठाते थे.यह लोगों को एकजुट करने का एक प्रयास था.इसी तरह उन्होंने मूर्तियों के खिलाफ अभियान चलाया.वर्तमान संदर्भ में, भारत को एकता हासिल करने के लिए ऐसे मतभेदों को भुलाने की जरूरत है.
सत्यभक्त ने कहा, “व्यवहार में, हिंदुओं में भी मूर्तिपूजक और उसके विरोधी हैं.मुसलमानों में भी मूर्तिपूजक और उसके विरोधी हैं.” मांस खाना भी विवाद का एक और कथित मुद्दा है.सत्यभक्त ने तर्क दिया, “हर सौ हिंदुओं में से पचहत्तर मांसाहारी हैं.बंगाल, उड़ीसा, मिथिला और अन्य प्रांतों में शूद्र कहलाने वाली अधिकांश जातियाँ मांसाहारी हैं. ब्राह्मण आदि सहित तथाकथित उच्च जातियाँ भी मांस खाती हैं.
क्षत्रिय लोग ज़्यादातर मांस खाते हैं.सिख भी मांस खाते हैं.ईसाई भी मांस खाते हैं, इसलिए मांसाहार को हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भेदभाव का कारण नहीं कहा जा सकता.”यह भी कहा जाता है कि हिंदू बहुदेववादी हैं और मुसलमान एकेश्वरवादी हैं, इसलिए वे एक साथ शांति से नहीं रह सकते.सत्यभक्त कहते हैं, "हिंदू कई देवताओं (अवतारों) में विश्वास करते हैं, लेकिन बहुदेववादी नहीं हैं.
मुसलमानों की तरह, वे भी एकेश्वरवादी हैं और हिंदुओं की तरह, मुसलमान भी कई दूतों में विश्वास करते हैं.हिंदू केवल एक ईश्वर में विश्वास करते हैं और उनके कई अवतारों, व्यक्तित्वों, दूतों आदि को मानते हैं. वे केवल एक ईश्वर की पूजा करते हैं.मुसलमान एक ही ईश्वर के हजारों पैगम्बरों में विश्वास करते हैं.उनका सम्मान भी करते हैं.जिस तरह हजारों पैगम्बर होने के बावजूद ईश्वर एक है. उसी तरह हजारों सेवक और अवतार के रूप में भक्तों के होने के बावजूद ईश्वर एक है."
दरअसल,कई हिंदू संप्रदाय तो किसी ईश्वर को मानते ही नहीं.फिर भी उनमें और आस्तिक हिंदुओं में कोई टकराव नहीं है.इसलिए यह विचार कि एकेश्वरवाद और बहुदेववाद के कारण हिंदू और मुसलमानों में टकराव होता है, निराधार है.टकराव का एक बड़ा मुद्दा यह है कि मुसलमान आरोप लगाते हैं कि हिंदू मस्जिदों के सामने ऊंची आवाज में संगीत बजाते हैं, जबकि इस्लाम में संगीत प्रतिबंधित है.
सत्यभक्त तर्क देते हैं, 'नीतिशास्त्र कहता है कि अगर नमाज पढ़ी जा रही हो और ठाकुरजी की बारात गाजे-बाजे के साथ निकले तो मस्जिद के सामने आते ही जुलूस रुक जाना चाहिए.सभी लोगों को शांति से खड़े हो जाना चाहिए.जैसे कि वे नमाज में शामिल हुए हों.
नमाज खत्म होने के बाद मुसलमानों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जुलूस सम्मानपूर्वक आगे बढ़े.अगर नमाज से ठीक पहले जुलूस आता है तो जुलूस को सम्मानपूर्वक विदाई देने के बाद मुसलमानों को नमाज अदा करनी चाहिए.अगर इसके लिए नमाज 10-5 मिनट देरी से भी हो जाए तो कोई बुराई नहीं है.'
सत्यभक्त ने इसी तरह तर्क दिया कि राष्ट्रीयता, भाषा, लिपि और वेशभूषा के संघर्ष भी कृत्रिम हैं.अगर बारीकी से जांच की जाए तो दोनों समुदाय इतने मिलते-जुलते हैं कि कई बार उन्हें अलग करना मुश्किल हो जाता है.उनका मानना था कि हिंदुओं और मुसलमानों को कम से कम कभी-कभी एक-दूसरे के साथ प्रार्थना करनी चाहिए.सत्यभक्त ने कहा, "जो लोग रोज़ नमाज़ पढ़ते हैं, उन्हें कभी-कभी हिंदू तरीके से पूजा का आनंद लेना चाहिए.
इसी तरह, जो लोग रोज़ पूजा करते हैं, उन्हें नमाज़ पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए.जब हम खाने में नए स्वाद आज़माते हैं, तो आध्यात्मिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए नए तरीके क्यों नहीं आज़माते? ये नए स्वाद प्रेम, शांति और मानवता के लिए फायदेमंद होंगे."
सत्यभक्त के अनुसार, हिंदू पश्चिम की ओर देखते हैं.मुसलमान पूर्व की ओर. यह तर्क वास्तव में साबित करता है कि दोनों समुदाय एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.वे कहते हैं, “मिलते या बात करते समय विपरीत दिशाओं में देखना ज़रूरी है.अगर मैं आपकी तरफ़ मुँह करके भी देखूँ, तो आप मेरी पीठ देखेंगे.
अगर मैं आपसे छाती से छाती मिलाकर मिलना चाहूँ, तो मैं आपकी तरफ़ से विपरीत दिशा में मुँह करके बैठूँगा, नहीं तो हम कभी नहीं मिलेंगे.जब मिलने के लिए विपरीत दिशा में मुँह करके मिलना ज़रूरी है, तो पूजा और नमाज़ के लिए मिलने में विपरीत दिशा क्यों बाधा बनेगी?” स्वामी सत्यभक्त हज़ारों लोगों को प्रभावित कर सकते थे, लेकिन बड़ी संख्या में लोग अभी भी सांप्रदायिक द्वेष पाल रहे हैं.