मंजीत ठाकुर
दिल्ली-एनसीआर वालों को अजूबा लगेगा, पर कांवड़ यात्राएं ऐसी भी होती हैं जहां न डीजे का शोर होता है और न सड़कें बंद करनी होती है. झारखंड के देवघर जिले के ज्योतिर्लिंग महादेव शिव की कांवड़ यात्रा कुछ अलग ही होती है. श्रावण (सावन) के महीने में लाखों श्रद्धालु बाबा बैद्यनाथ मंदिर में इकट्ठा होते है.
सावन का महीना आने से छह महीने पहले से दो राज्यों के कई जिलों में इसकी तैयारी होती है. बिहार राज्य के भागलपुर के पास सुल्तानगंज से कांवर यात्री अपनी यात्रा शुरू करते हैं. उनमें से ज्यादातर लोग सबसे पहले सुल्तानगंज जाते हैं, जो बाबाधाम से 105 किमी दूर है. सुल्तानगंज से गंगाजल इसलिए उठाया जाता है क्योंकि वहां गंगा उत्तरवाहिनी है.
गंगा के उत्तरवाहिनी होने का अर्थ है वहां पर गंगा सर्वाधिक पवित्र है और महादेव शिव का उससे अभिषेक किया जाना सबसे अधिक फल और मनोकामना पूर्ण करने वाला माना जाता है.देश के विभिन्न हिस्सों से लोग सुल्तानगंज पहुंचते हैं. कुछ लोग भागलपुर जिले में ही अवस्थित अजगैवीनाथ के दर्शन करते हुए गंगाजल से भरे कांवड़ लेकर आगे बढ़ते हैं.
विलियम हॉज की पेंटिंग
वे बाबा बैधनाथ मंदिर तक 109 किलोमीटर की दूरी की यात्रा पैदल और नंगे पांव चलकर पूरी करते हैं. असल में, देवघर को बाबाधाम भी कहा जाता है और भगवान शिव के इस रूप को
रावणेश्वर भी कहा जाता है.
इसके पीछे मान्यता है कि एक बार रावण ने काफी तपस्या करके भगवान शिव से वरदान मांग लिया कि वह उन्हें लंका ले जा कर स्थापित करेगा.शिव जी ने शर्त रख दीः वह जाएंगे पर उनके शिवलिंग को कहीं बीच में नहीं रखा जाएगा. रावण शिवलिंग को लेकर कैलाश से चला तो पर भगवान विष्णु ने गंगा की सहायता से शिवजी को लंका ले जाने से रोकने की योजना बनाई.
आखिरकार, रावण को एक स्थान पर आकर शिवलिंग को भूमि पर रखना ही पड़ा और वह स्थान आज देवघर कहलाता है. रावण ने वहां पर एक तालाब बनाया, जिसे शिवगंगा कहते हैं और एक कुआं भी खोदा, जिस चंद्रकूप कहा जाता है. इन दोनों ही तालाब तथा कुएँ का बहुत धार्मिक महत्व है.
बाबा बैद्यनाथ धाम में कांवर ले जाने की प्रथा कई सौ साल पुरानी है. 1780 के दशक में वीरभूम के कलक्टर ने विलियम हॉज नाम के एक चित्रकार को उसके इलाके के विभिन्न क्षेत्रों की तस्वीरें बनाने का काम सौंपा था और 1784 में कांवर ले जाने वाले कांवरियों समेत बैद्यनाथ धाम मंदिर की एक पेंटिंग हॉज ने बनाई भी थी.
वीरभूम के कलक्टर ने हेजिलरीख नाम के ईस्ट इंडिया कंपनी के एक क्लर्क को बाबा बैद्यनाथ धाम मंदिर के चढ़ावे को कंपनी के कब्जे में लेने के लिए मंदिर परिसर में नियुक्त भी कर दिया था. लेकिन, स्थानीय लोगों के विरोध और इस जबरन वसूली की वजह से मंदिर आने वाले कांवड़ियों की संख्या में कमी आ गई.
इसके साथ ही संन्यासी विद्रोह, तिलका मांझी के विद्रोह जैसी कई घटनाओं और अकाल की वजह से भी ईस्ट इंडिया कंपनी को अपना क्लर्क मंदिर परिसर से हटाना पड़ा.बहरहाल, यह इस बात का प्रमाण है कि सुल्तानगंज से देवघर तक की कांवड़ यात्रा कई सदियों पुरानी है.
देवघर वाली कांवर यात्रा में लोग बोल बम बोलते हुए यहाँ तक बहुत ही श्रद्धा के साथ पहुंचते हैं. इनमें स्त्री-पुरुष, बच्चे, जवान सभी उम्र के लोग और परिवार के साथ आने वाले श्रद्धालु भी हैं. जुलाई-अगस्त के दौरान यह तीर्थ यात्रा पूरे 30 दिनों के लिए श्रावण के दौरान जारी रहता है.
झारखंड सरकार के पर्यटन विभाग के मुताबिक, “यह दुनिया का सबसे लंबा धार्मिक मेला है. सुल्तानगंज से बाबाधाम की राह पर नजर रखने वाले लोगों का एक 109 किलोमीटर लंबी मानव श्रृंखला वाली भगवा पहने तीर्थयात्रियों की दिखती है.” झारखंड सरकार का अनुमान है कि एक महीने की इस अवधि में 60 से 65 लाख तीर्थयात्री बाबाधाम जाते हैं.
बाबाधाम तक पहुंचने पर, कांवरिया पहले शिवगंगा में खुद को शुद्ध करने के लिए एक डुबकी लेते हैं और फिर बाबा बैद्यनाथ मंदिर में प्रवेश करते हैं, जहां ज्योतिर्लिंगम पर गंगा जल अर्पित करते हैं.
बाबा मंदिर परिसर ही नहीं, बल्कि पूरा देवघर शहर भगवा-केसरिया रंग से रंगा नजर आता है. शहर-बाजार, घर-दुकाने हर तरफ सिर्फ कांवरिए ही नजर आते हैं. सावन का मेला देवघर शहर की पूरी अर्थव्यवस्था को गति देता है.
असल में, भगवान शिव को तो कोई प्रसाद चढ़ता नहीं. लेकिन गंगा जल के साथ कांवरिए बेलपत्र, आक-धतूरे के फूल, और परिसर में मौजूद अन्य देवी-देवताओं के लिए फूल आदि खरीदते हैं. इससे देवघर के आसपास में फूलों की खेती यानी फ्लोरीकल्चर को काफी बढ़ावा मिला है.
पूरे शहर में माला-बद्धी, अंगूठी-कड़े जैसे मंदिर की यादों से जुड़ी चीजों के साथ ही बाबा मंदिर के प्रतीक तथा मूर्तियों का बड़ा मार्केट होता है. पीतल के सामानों की भी काफी बिक्री होती है.
लेकिन बाबा मंदिर की सबसे बड़ी पहचान है, सफेद चिपटा चूड़ा (चिड़वा), इलाइची दाना, और पेड़ा. यहां आने वाला हर कांवरिया न सिर्फ अपने परिवार के लिए बल्कि गांव-समाज के लिए भी यह प्रसाद लेकर जाता है.
पेड़े देवघर के प्रसाद की खासियत हैं. खासकर देवघर-बासुकीनाथ मार्ग पर पड़ने वाले गांव घोरमारा के पेड़े की अपनी खास पहचान है. देवघर जिले के मधुपुर जैसे शहरों में दुग्ध उत्पादन तथा मिठाई बनाने का काम लघु उद्योग का रूप ले चुका है.
हरिद्वार या देश के बाकी हिस्सों में जहां कांवड़ यात्रा सावन की अमावस्या को खत्म हो जाती है यानी सिर्फ एक पखवाड़े भर चलती है. वहीं, सुल्तानगंज-देवघर की कांवर यात्रा सावन पूर्णिमा यानी रक्षा बंधन तक चलती है.
दिल्ली-एनसीआर की कांवड़ यात्रा जहां प्रशासन को सांसत में रखती है वहीं बैद्यनाथधाम की कांवर यात्रा सांप्रदायिक सद्भाव की यात्रा होती है. हर कांवरिए के कंधे पर जमा भगवा गमछा भागलपुर के बुनकरों के हथकरघे का ही होता है.
ये बुनकर जाति के लोग मुसलमान हैं. दूसरी तरफ, 110 किमी के रास्ते में पड़ने वाले मुस्लिम बहुल गांवों में भी इन कांवर यात्रियों की सुविधा का हर तरह से खयाल रखा जाता है और आज तक किसी किस्म के तनाव की कोई खबर नहीं आई है.