सूफ़ियाना बसंत पंचमी: आज बसंत मना ले सुहागन

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 27-01-2023
हजरत निजामुद्दीन में जश्न-ए-बहारा
हजरत निजामुद्दीन में जश्न-ए-बहारा

 

फ़िरदौस ख़ान

भारत ऋतुओं का देश है. प्राचीन काल में साल को छह ऋतुओं में बांटा गया था. यहां बसंत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, वर्षा ऋतु, शरद ऋतु, हेमंत ऋतु और शीत ऋतु अपने-अपने वक़्त पर आती जाती रहती हैं.  जाड़ो की कंपकंपाने वाली ठंड के बाद बसंत का मौसम आता है. इसे ऋतुओं का राजा कहा जाता है. यह सबसे प्यारा मौसम माना जाता है. इसलिए इसे मधुमास भी कहा जाता है. इसमें न ज़्यादा सर्दी होती है और न ज़्यादा गर्मी.

बसंत का संदेश लाती है बसंत पंचमी. यह पावन पर्व माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन मनाया जाता है, इसलिए इसे बसंत पंचमी कहा जाता है. फाल्गुन और चैत्र बसंत ऋतु के महीने माने जाते हैं. फाल्गुन साल का आख़िरी महीना होता है, जबकि चैत्र पहला महीना होता है. इस महीने से हिन्दू पंचांग की शुरुआत भी होती है.

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बसंत में मौसम सुहावना हो जाता है. ठंड कम हो जाती है और जिस्म को छू कर जाते नीम सर्द हवा के झोंके रूह तक को ताज़गी से सराबोर कर देते हैं. दरख़्तों की शाख़ों पर नये सब्ज़ पत्ते आने लगते हैं. नीम के सफ़ेद फूल अपनी महक से फ़िज़ा को मुअत्तर कर देते हैं. आम के पेड़ बौरों से भर जाते हैं. हर तरफ़ कोयल के कूकने की सुरीली आवाज़ सुनाई देने लगती है. पलाश की शाख़ों पर दहकते सुर्ख़ फूल आंखों को कितने भले लगते हैं. खेतों में सरसों के पीले फूल अपनी शाख़ों पर मंद-मंद चलती हवा से झूमने लगते हैं. खेतों में फ़सलें पकने लगती हैं. क्यारियों में गेंदा और गुलाब के रंग-बिरंगे फूल बड़े मनोहारी लगते हैं. हर तरफ़ बहार ही बहार होती है.

बसंत पंचमी को जश्ने बहारा भी कहा जाता है, क्योंकि बसंत पंचमी बहार के मौसम का पैग़ाम लाती है. सूफ़ियों के लिए बंसत पंचमी का दिन बहुत ख़ास होता है. ख़ानकाहों में बसंत पंचमी मनाई जाती है. बसंत का पीला साफ़ा बांधे मुरीद बसंत के गीत गाते हैं.

बसंत पंचमी के दिन मज़ारों पर पीली चादरें चढ़ाई जाती हैं. पीले फूलों की भी चादरें चढ़ाई जाती हैं, पीले फूल चढ़ाए जाते हैं. पीले फूलों के गुलदस्ते चढ़ाए जाते हैं. क़व्वाल पीले साफ़े बांधकर हज़रत अमीर ख़ुसरो के गीत गाते हैं:

 

आज बसंत मना ले सुहागन

आज बसंत मना ले ...

 

अंजन–मंजन कर पिया मोरी

लंबे नेहर लगाए

तू क्या सोवे नींद की माटी

सो जागे तेरे भाग सुहागन

आज बसंत मना ले...

 

ऊंची नार के ऊंचे चितवन

ऐसो दियो है बनाय

शाहे अमीर तोहे देखन को

नैनों से नैना मिलाय

आज बसंत मना ले...

 

कहा जाता है कि ख़ानकाहों में बसंत पंचमी मनाने की यह रिवायत हज़रत अमीर ख़ुसरो ने शुरू की थी. हुआ यूं कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाह अलैह को अपने भांजे हज़रत सैयद नूह के विसाल से बहुत सदमा पहुंचा और वह उदास रहने लगे.

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हज़रत अमीर ख़ुसरो से अपने मुर्शिद की यह हालत देखी न गई. वे उन्हें ख़ुश करने के लिए तरह-तरह के जतन करने लगे, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए. एक दिन हज़रत अमीर ख़ुसरो अपने साथियों के साथ कहीं जा रहे थे. ये एक सुहावना और खिला-खिला दिन था. नीले आसमान पर सूरज दमक रहा था. उसकी सुनहरी किरनें ज़मीन पर पड़ रही थीं. उन्होंने रास्ते में सरसों के खेत देखे. सरसों के पीले फूल बहती हवा से लहलहा रहे थे. उनकी ख़ूबसूरती हज़रत अमीर ख़ुसरो की निगाहों में बस गई और वे वहीं खड़े होकर फूलों को निहारने लगे.

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तभी उन्होंने देखा कि एक मंदिर के पास कुछ हिन्दू श्रद्धालु हर्षोल्लास से नाच गा रहे हैं. यह देखकर उन्हें बहुत अच्छा लगा. उन्होंने इस बारे में पूछा, तो श्रद्धालुओं ने बताया कि आज बसंत पंचमी है और वे लोग देवी सरस्वती पर पीले फूल चढ़ाने जा रहे हैं, ताकि देवी ख़ुश हो जाए.

इस पर हज़रत अमीर ख़ुसरो ने सोचा कि वे भी अपने पीर मुर्शिद, अपने औलिया को पीले फूल देकर ख़ुश करेंगे. फिर क्या था. उन्होंने पीले फूलों के गुलदस्ते बनाए और कुछ पीले फूल अपने साफ़े में भी लगा लिए. फिर वे अपने पीर भाइयों और क़व्वालों को साथ लेकर नाचते-गाते हुए अपने मुर्शिद के पास पहुंच गए. अपने मुरीदों को इस तरह नाचते-गाते देखकर उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई. और इस तरह बसंत पंचमी के दिन हज़रत अमीर ख़ुसरो को उनकी मनचाही मुराद मिल गई. हज़रत अमीर ख़ुसरो तब से हर साल बसंत पंचमी मनाने लगे.

अमीर ख़ुसरो को सरसों के पीले फूल इतने भाये कि उन्होंने इन पर एक गीत रच दिया:

 

सगन बिन फूल रही सरसों

अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार-डार

और गोरी करत सिंगार

मलनियां गेंदवा ले आईं कर सों

सगन बिन फूल रही सरसों


तरह-तरह के फूल खिलाए

ले गेंदवा हाथन में आए

निज़ामुद्दीन के दरवज़्ज़े पर

आवन कह गए आशिक़ रंग

और बीत गए बरसों

सगन बिन फूल रही सरसों

 

ग़ौरतलब है कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाह अलैह चिश्ती सिलसिले के औलिया हैं. उनकी ख़ानकाह में बंसत पंचमी की शुरुआत होने के बाद दूसरी दरगाहों और ख़ानकाहों में भी बंसत पंचमी बड़ी धूमधाम से मनाई जाने लगी. इस दिन मुशायरों का भी आयोजन किया जाता है, जिनमें शायर बंसत पर अपना कलाम पढ़ते हैं.

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हिन्दुस्तान के अलावा पड़ौसी देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी बंसत पंचमी को जश्ने बहारा के तौर पर ख़ूब धूमधाम से मनाया जाता है. बसंत शायरों का पसंदीदा मौसम रहा है. मशहूर शायर नज़ीर अकबराबादी कहते हैं:

 

गुलशने-आलम में जब तशरीफ़ लाती है बहार

रंगो बू के हुस्न क्या-क्या कुछ दिखाती है बहार

सुबह को लाकर नसीमे दिल कुशा हर शाख़ पर

ताज़ा तर किस-किस तरह के गुल खिलाती है बहार


दरअसल बसंत पंचमी प्राणियों में एक नई ऊर्जा का संचार करती है. यह हमें हमेशा मुसलसल आगे बढ़ते रहने का हौसला और प्रेरणा देती है. ये बताती है कि कायनात की हर चीज़ फ़ानी है. जिस तरह दरख़्तों से पुराने ज़र्द पत्ते झड़ जाते हैं और उनकी जगह नये सब्ज़ पत्ते आ जाते हैं, इसी तरह हमें भी अपनी ज़िन्दगी के दुखों और तकलीफ़ों को अपने वजूद से झाड़कर उन्हें भुला देना चाहिए और नये पल की शुरुआत एक नई उमंग से करनी चाहिए, क्योंकि ज़िन्दगी तो मुसलसल चलते रहने का ही नाम है.

(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं.)