सूफिज्मः तसव्वुफ़ की मंज़िलें

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 01-06-2023
सूफिज्मः तसव्वुफ़ की मंज़िलें
सूफिज्मः तसव्वुफ़ की मंज़िलें

 

-फ़िरदौस ख़ान 
 
अल्लाह के वली से बैअत होने के बाद मुरीद की तरबियत शुरू होती है. तसव्वुफ़ एक रूहानी सफ़र है, जिसकी चार मंज़िलें हैं. मुरीद अपने इश्क़ के ज़रिये, अपनी इबादत के ज़रिये रूहानी दर्जात की बुलंदियों तक पहुंचता है.

शैख़ उमर सहाबुद्दीन सुहरवर्दी अपनी किताब ‘अवारिफ़ उल मारिफ़’ में तसव्वुफ़ की चार मंज़िलों का ज़िक्र करते हैं. 
 
शरीअत

तसव्वुफ़ की पहली मंज़िल शरीअत है. मुरीद को शरीअत के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर करनी होती है. इस्लाम में इबादत के पांच सुतून हैं. पहला तौहीद, दूसरा नमाज़, तीसरा रोज़ा, चौथा ज़कात और पांचवां हज. इसके साथ ही उसे हर ऐसे काम से बचना होता है, जिससे किसी को तकलीफ़ हो.
 
यहां बन्दा मोमिन होता है. दायरे शरीअत में बन्दे का कलमा होता है- ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर रसूलुल्लाह यानी अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं है और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अल्लाह के रसूल हैं.
 
तरीक़त 

तसव्वुफ़ की दूसरी मंज़िल तरीक़त है. तरीक़त का मतलब है ख़ुद को बुराइयों से पाक करना यानी ख़ुद को तमाम बुराइयों से बचा लेना. जब बन्दा शरीअत से आगे बढ़ जाता है, तो वह तरीक़त की मंज़िल तक पहुंच जाता है.
 
इस मंज़िल पर पहुंचकर वह सालिक कहलाता है. सालिक का मतलब है मुसाफ़िर यानी रूहानी सफ़र पर चलने वाला ऐसा बन्दा, जो घरबार की ज़िम्म्दारियां निभाते हुए इबादत में मशग़ूल है.
 
इस मंज़िल पर आकर वह दुनिया के माल व दौलत और इज़्ज़त व शौहरत से दूर हो जाता है. उसके लिए ये सब चीज़ें बेमानी हो जाती हैं. उसे बस इतना चाहिए होता है, जितने की उसे ज़रूरत है. अकसर वह इसकी भी परवाह नहीं करता.
 
वह बस अपने महबूब के लिए, अपने मुर्शिद के लिए दिन-रात तड़पता रहता है. यहां उसे ग़ैबी बातों का इल्म होने लगता है. ऐसे वक़्त में उसे अपने मुर्शिद की ज़रूरत होती है, जो आगे के सफ़र के लिए उसकी रहनुमाई करते हैं. 
 
मारिफ़त 

तसव्वुफ़ की तीसरी मंज़िल मारिफ़त है. मारिफ़त का मतलब है जानना. इस मंज़िल पर आकर मुरीद को क़ुर्बे इलाही हासिल हो जाता है और उसे अपने परवरदिगार का अहसास होने लगता है. वह अपने रब को जानने लगता है.
 
यहां उसे ग़ैब की ऐसी-ऐसी बातों का इल्म होने लगता है, जिसके बारे में कोई तसव्वुर भी नहीं कर सकता. इस मंज़िल पर आकर उसे ख़ुद अपना होश तक नहीं रहता. वह किसी ख़ला में खो जाता है. 
 
हक़ीक़त 

तसव्वुफ़ की चौथी और आख़िरी मंज़िल हक़ीक़त है. मारिफ़त के बाद बन्दा इस मंज़िल तक ख़ुद ब ख़ुद पहुंच जाता है. यहां बन्दे और उसके रब के दरम्यान कोई फ़ासला नहीं रहता. वह इश्क़-ए-इलाही के समन्दर में तैरने लगता है.
 
और एक हद पर जाकर उसे अहसास होता है कि यहां से आगे कुछ भी नहीं है. हर सिम्त सिर्फ़ नूर-ए-इलाही है और वह इसी नूर का एक क़तरा है. इस मंज़िल को मंज़िले हक़ भी कहा जाता है. यहां उसे अनल हक़ का अहसास होता है. 
 
तसव्वुफ़ के हर्फ़ और उनके मानी 

पीरों के पीर यानी ग़ौसे आज़म अब्दुल क़ादिर जिलानी रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि तसव्वुफ़ تصوف चार हर्फ़ ف  و  ص  ت यानी ता, सुआद, वाव और फ़ा से मिलकर बना है.
 
ता यानी त हर्फ़ के मानी 

ता हर्फ़ तौबा को ज़ाहिर करता है. इसकी दो क़िस्में हैं- एक ज़ाहिरी और दूसरी बातिनी. ज़ाहिरी तौबा यह है कि इंसान अपने ज़ाहिरी जिस्म के साथ गुनाहों और बुरे अख़लाक़ से फ़रमाबरदारी की तरफ़ लौट आए और बुराइयों को छोड़कर अच्छाई को इख़्तियार कर ले.
 
बातिनी तौबा यह है कि इंसान अपनी छुपी हुई तमाम बुरी आदतों को छोड़कर अच्छाई की तरफ़ आ जाए और दिलो-दिमाग़ को साफ़ कर ले. जब दिलो-दिमाग़ की सारी बुराई अच्छाई में तब्दील हो जाए तो ‘ता’ का मुक़ाम  मुकम्मल हो जाता है और ऐसे बन्दे को ताएब कहते हैं.
 
सुआद यानी स हर्फ़ के मानी 

सुआद हर्फ़ सफ़ा यानी पाकीज़गी को ज़ाहिर करता है. सफ़ा की दो क़िस्में हैं- एक क़ल्बी और दूसरी सिर्री. क़ल्बी यह है कि इंसान नफ़्स से दिल को साफ़ कर ले. दुनिया के माल व दौलत के लालच से ख़ुद को बचाए और अल्लाह से दूर करने वाली तमाम हराम चीज़ों से परहेज़ करे. 
 
इन तमाम दुनियावी चीज़ों को दिल से दूर करना ज़िक्रे इलाही के बिना मुमकिन नहीं है. इसलिए अल्लाह का ज़िक्र करते रहना चाहिए, ताकि हक़ीक़त के मुक़ाम तक पहुंचा जा सके जैसा क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है कि हक़ीक़त में ईमान वाले तो सिर्फ़ वही लोग हैं कि जब उनके सामने अल्लाह का ज़िक्र किया जाता है, तो उनके दिल कांप उठते हैं और जब उनके सामने उसकी आयतें पढ़ी जाती हैं, तो उनके ईमान में मज़ीद इज़ाफ़ा हो जाता है और वे अपने परवरदिगार पर भरोसा करते हैं.(क़ुरआन 8:2)  
 
सिर्री का मतलब यह है कि इंसान अल्लाह के सिवा किसी को देखने से परहेज़ करे और ग़ैर अल्लाह को दिल में जगह न दे. और यह सिफ़्त असमा-ए-तौहीद का लिसान बातिन से मुसलसल विर्द करने से ही हासिल होती है. जब यह तसफ़िया हासिल हो जाए, तो ‘सुआद’ का मुक़ाम मुकम्मल हो जाता है.
 
वाव यानी व हर्फ़ के मानी 

वाव हर्फ़ विलायत को ज़ाहिर करता है और यह तसफ़िया पर मुरत्तब होती है.क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि जान लो कि बेशक अल्लाह के औलिया न ख़ौफ़ज़दा होंगे और न वे ग़मगीन होंगे. (क़ुरआन 10:62)
 
इस मुक़ाम पर इंसान अख़लाक़-ए- ख़ुदावन्दी के रंग में रंग जाता है. अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि अख़लाक़-ए- ख़ुदावन्दी को अपनाओ.
 
विलायत में इंसान सिफ़ाते बशरी का चोला उतार कर सिफ़ाते ख़ुदावन्दी की ख़िलअत पहन लेता है. हदीसे क़ुदसी के मुताबिक़ “जब मैं किसी बन्दे को महबूब बना लेता हूं तो उसके कान बन जाता हूं, उसकी आंख बन जाता हूं, उसके हाथ बन जाता हूं और उसकी ज़बान बन जाता हूं. वह मेरे कानों से सुनता है, वह मेरी आंखों से देखता है, वह मेरी क़ूवत से पकड़ता है, वह मेरी ज़बान से बोलता है और मेरे पांव से चलता है.”
 
जो इस मुक़ाम पर फ़ाइज़ हो जाता है वह ग़ैर अल्लाह से कट जाता है.क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि ऐ रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ! और तुम कह दो कि हक़ आ गया और बातिल नाबूद हो गया. बेशक बातिल को मिटना ही था.(क़ुरआन 17:81)
 
यहां ‘वाव’ का मुक़ाम मुकम्मल हो जाता है.

फ़ा यानी फ़ हर्फ़ के मानी

फ़ा हर्फ़ फ़नाफ़िल्लाह को ज़ाहिर करता है यानी ग़ैर से अल्लाह में फ़ना हो जाना. जब बशरी सिफ़ात फ़ना हो जाती है, तो ख़ुदाई सिफ़ात बाक़ी रह जाती है. और ख़ुदाई सिफ़ात कभी फ़ना नहीं होती.
 
क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि और तुम अल्लाह के सिवा किसी दूसरे की इबादत न करो. अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं. उसकी ज़ात के सिवा हर चीज़ फ़ानी है. उसी का हुक्म व फ़रमानरवाई है. और तुम सबको उसकी तरफ़ ही लौटना है.(क़ुरआन 28:88)
 
कायनात की सारी चीज़ें फ़ानी हैं, सिवाय उन आमाले सालेहा के जिन्हें सिर्फ़ अल्लाह की रज़ा के लिए किया जाए. रब का राज़ी ब रज़ा होना ही मुक़ाम-ए-बक़ा है.
 
क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि जो शख़्स इज़्ज़त चाहता है, तो सब इज़्ज़त अल्लाह ही के लिए है. उसी की बारगाह में पाकीज़ा कलाम पहुंचता है और वही नेक अमल को बुलंद करता है. (क़ुरआन 35:10)
 
जब इंसान फ़नाफ़िल्लाह के मुक़ाम पर फ़ाइज़ हो जाता है, तो उसे आलमे क़ुर्बत में बक़ा हासिल होती है. आलमे लाहूत में यही अम्बिया और औलिया के रहने की जगह है.क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि वे लोग हक़ की मजलिस में तमाम क़ुदरत के मालिक के क़रीब होंगे.(क़ुरआन 54:55)
 
क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि ऐ ईमान वालो ! अल्लाह से डरो और सच्चे लोगों के साथ हो जाओ. (क़ुरआन 9:119)
 
क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि और जो लोग ईमान लाए और नेक अमल करते रहे, तो वही लोग असहाबे जन्नत हैं. वे उसमें हमेशा रहेंगे.(क़ुरआन 2:82)
 
जब क़तरा समन्दर में मिल जाता है, तो फिर उसका अपना कोई वजूद नहीं रह जाता. हक़ीक़त में यही हदे कमाल है और यहां आकर बन्दा साहिब-ए-कमाल हो जाता है. इस मंज़िल तक पहुंचने के बाद बन्दा दुनियाभर के लोगों को अल्लाह के दीन की दावत देने की तबलीग़ में जुट जाता है, यानी वह अल्लाह के नबियों के काम में जुट जाता है.
 
क़ाबिले ग़ौर यह भी है कि कुछ सूफ़ी तसव्वुफ़ की तीन मंज़िलों का ज़िक्र करते हैं, तो कुछ इसकी तादाद सात बताते हैं. कुछ सूफ़ी दस मंज़िलों का ज़िक्र करते हैं. 
 
पहली तौबा यानी बुराइयों और हराम चीज़ों से तौबा करना.

दूसरी जहद यानी अपने नफ़्स की बुराइयों से जहद करना. 

तीसरी सब्र यानी अपनी अच्छी या बुरी क़िस्मत पर सब्र करना.

चौथी शुक्र यानी अल्लाह ने जो कुछ दिया है, उसके लिए उसका शुक्र अदा करते रहना. 

पांचवीं रिज़ा यानी मुतईनी यानी अल्लाह ने जो कुछ अता किया या फिर जो कुछ वापस लिया, उस पर मुतमईन रहना.

छठी ख़ौफ़ यानी अल्लाह के अज़ाब से डरते रहना.

सातवीं तवक्कुल यानी अल्लाह ही पर भरोसा करना.

आठवीं रज़ा यानी अल्लाह की रज़ा में ही राज़ी रहना. 

नौवीं फ़िक्र यानी अल्लाह की निशानियों पर ग़ौर व फ़िक्र करना. क़ुरआन करीम में अल्लाह की क़ुदरत की निशानियों का बार-बार ज़िक्र किया गया है और इन पर ग़ौर व फ़िक्र करने का हुक्म भी दिया गया है. 
 
दसवीं मुहब्बत यानी अल्लाह और उसकी मख़लूक़ से मुहब्बत करना और ज़िक्रे इलाही में मशग़ूल रहना.       

कई किताबों में तसव्वुफ़ की दस से ज़्यादा मंज़िलें भी बताई गई हैं, लेकिन ज़्यादातर सूफ़ी तसव्वुफ़ की चार मंज़िलें ही मानते हैं. ग़ौसे आज़म अब्दुल क़ादिर जिलानी रज़ियल्लाहु अन्हु ने भी तसव्वुफ़ की चार मंज़िलें ही मानी हैं.
 
(लेखिका सूफ़िज़्म के चिश्तिया सिलसिले से जुड़ी हुई हैं और उन्होंने सूफ़ी-संतों के जीवन दर्शन पर आधारित किताब ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ लिखी है)



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