सूफी विचारधारा में मानव अधिकार

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 07-06-2023
सूफी विचारधारा में मानव अधिकार
सूफी विचारधारा में मानव अधिकार

 

गौस सिवानी

जहां एक तरफ आज का आधुनिक समाज यह तय नहीं कर पाया है कि मानवाधिकार क्या हैं? मानवाधिकार की परिभाषा क्या है? और इन्हें किन सिद्धांतों के तहत निर्धारित किया जाना चाहिए? वहीं दूसरी ओर सूफीवाद इस समस्या को सदियों पहले हल कर चुका है? सूफियों की नजर में यह एक मुख्य समस्या है और इसके नियम अल्लाह की तरफ से ही तय कर दिए गए हैं.

उनका मानना है कि बन्दों  के अधिकार- यानी इंसान पर कुछ अल्लाह के अधिकार हैं, जैसे उसके आदेशों की पाबंदी, नमाज, रोजा, हज और जकात आदि. दूसरे, बंदों के भी अधिकार हैं, जैसे माता-पिता के अधिकार अपने बच्चों पर, बच्चों के अधिकार अपने माता-पिता पर, रिश्तेदारों के अधिकार, पड़ोसियों के अधिकार पड़ोसियों पर और मानव अधिकार मानव पर.

यहीं पर बस नहीं, यहां तो महिलाओं के अधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकार, कैदियों के अधिकार, शरणार्थियों के अधिकार, यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों की प्रकृति भी धार्मिक और आध्यात्मिक विस्तार के साथ बयान कर दी गई है. इन अधिकारों के तहत शासकों और प्रजा के अधिकार भी बयान कर दिए गए हैं तथा पुलिस, अधिकारियों और न्यायाधीशों के दायरे को भी बता दिया गया है.

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यहां न तो किसी प्रकार का कनफ्यूजन है और न यह संभावना है कि इस क्षेत्र में कुछ ऐसी बातें शामिल कर दी जाएं, जो दायरे से बाहर हैं और न ही दाखिल बातों को हटाने की संभावना है. यहाँ मानव अधिकार का दायरा व्यापक और निषेधात्मक है.

यहाँ मानव अधिकारों पर इतना अधिक जोर है कि उन्हें स्वर्ग में प्रवेश का प्रमाण माना जाता है. यह भी बताया गया है कि अल्लाह के अधिकारों का उल्लंघन अल्लाह माफ कर दे, तो कर दे, मगर बंदों के अधिकार का उल्लंघन वो कभी नहीं माफ करेगा, जब तक कि बंदा खुद न माफ करे.

यहाँ किसी के साथ भेदभाव की बात नहीं होती, सभी इंसान हैं और आदम की औलाद हैं, तो वह भाई-भाई हैं और सभी के एक दूसरे पर अधिकार हैं. जिस मजहब में जानवरों के सम्मान की बात की जाती हो और उनके साथ भी अच्छा व्यवहार करने की शिक्षा दी जाती हो, वहां मानव की गरिमा और सम्मान का क्या स्थान होगा, अनुमान लगाया जा सकता है.

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प्रसिद्ध विद्वान और सूफी हजरत इमाम मुहम्मद गजाली रहमतुल्लाह अलैहि इन अधिकारों का विशेष उल्लेख करने से पहले कुछ सामान्य बातें लिखते हैंः हर व्यक्ति एक दूसरे के साथ मिलकर रहता है.

उसके मेलजोल के कुछ शिष्टाचार हैं और वह उसके अधिकार के अनुसार और वह उतना ही है,जितना उसका संपर्क है, जिसकी वजह से वे परस्पर मेलजोल और संपर्क रखते हैं या तो कुराबत के कारण होगा या इस्लामी भाईचारा होगा.

भाईचारे के अर्थ में दोस्ती और हमनशीनी शामिल है. या फिर पड़ोसी के कारण संपर्क होगा या यात्रा के कारण या पाठशाला और शिक्षण की वजह से संपर्क होगा, तो यह दोस्ती होगी या फिर भाईचारा.

इन संबंधों में से प्रत्येक के कुछ स्तर हैं, करीबियों का अधिकार है, लेकिन रहम महरम (ऐसा करीबी रिश्तेदार जिससे विवाह हराम हो, जैसे माँ-पिता वगैरा) का भी अधिकार अधिक सत्यनिष्ठा से है और महरम का भी अधिकार है, लेकिन माता-पिता का अधिकार भी अधिक सख्त है. इसी तरह पड़ोसी का भी अधिकार है, लेकिन मकान के नजदीकी और दूरी की वजह से भी यह अधिकार अलग-अलग है और तुलना करते समय अंतर दिखाई देता है.

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जैसे अन्य शहरों में पड़ोसी उसी तरह होता है, जिस तरह अपने शहरों के रिश्तेदार होते हैं, क्योंकि शहर में वह पड़ोसी के अधिकार के साथ विशेष है. इसी तरह पहचान की वजह से मुसलमान का अधिकार अधिक कठोर होता है और पहचान के भी कई स्तर हैं, जिसकी पहचान देखकर होती है, उसका अधिकार सुनकर पहचान प्राप्त होने वाले के अधिकार से अधिक कठोर है.

इस पहचान के बाद द्विपक्षीय मुलाकात से अधिकार और पक्का हो जाता है. अहयाउल उलूम, (उल्फत और भाईचारे का बयान) जैसा कि ऊपर के भाव से स्पष्ट है कि समाज में रहने वाले हर व्यक्ति के अन्य व्यक्तियों पर कुछ अधिकार हैं. कोई रिश्तेदार है, तो अधिक अधिकार है.

और रिश्तेदार नहीं है, तो संपर्क आधारित अधिकार तय होते हैं. जिसके साथ अधिक करीबी संपर्क हैं, उसके अधिकार भी अधिक हैं. इसी तरह जो जितना निकट पड़ोसी है, उसके उतने ही अधिक अधिकार हैं. जिससे कोई संबंध नहीं, उससे मानवता का संबंध है और एक समाज में रहने का संबंध है. इसलिए इस आधार पर भी सबके एक दूसरे पर अधिकार स्थापित होते हैं.