सुभाष चंद्र बोस की बर्लिन यात्रा: महिलाओं की भूमिका को याद करना जरूरी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 23-01-2025
Subhash Chandra Bose's Berlin visit: It is important to remember the role of women
Subhash Chandra Bose's Berlin visit: It is important to remember the role of women

 

saleemसाकिब सलीम

भारत की स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण घटना, 1941 में सुभाष चंद्र बोस का ब्रिटिश अधिकारियों से बचकर बर्लिन तक का सफर, अब एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक कथानक बन चुका है.सुभाष चंद्र बोस ने जब कोलकाता (तब कलकत्ता) में ब्रिटिश सरकार द्वारा अपने घर में नजरबंदी से बचने का प्रयास किया, तो उन्होंने अपना भेष बदलकर और कठिन रास्तों को पार करके बर्लिन पहुंचने में सफलता प्राप्त की.यह घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे चर्चित और साहसी पलायनों में से एक मानी जाती है.

सुभाष चंद्र बोस के इस महान पलायन में उनकी मदद करने वाली कई अहम हस्तियाँ थीं, जिनमें पुरुषों का योगदान मुख्य रूप से उजागर किया गया है.इतिहासकारों और लेखकों ने विस्तार से बताया है कि कैसे भगत राम तलवार, उत्तम चंद, मियां अकबर शाह, शिशिर बोस, हाजी अमीन और अन्य व्यक्तियों ने नेताजी की इस यात्रा में सहायता की.

लेकिन दुर्भाग्यवश, महिला योगदानकर्ताओं की भूमिका अक्सर नजरअंदाज कर दी जाती है.इस लेख में हम उन महिलाओं के बारे में चर्चा करेंगे, जिन्होंने सुभाष चंद्र बोस की इस महत्वपूर्ण यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

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 बीवीबती देवी: एक अद्वितीय सहयोगी

बीवीबती देवी, सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई शरत चंद्र बोस की पत्नी थीं, और सुभाष उन्हें अपनी दूसरी माँ मानते थे.भगत राम तलवार, जो सुभाष के साथ पेशावर और अफगानिस्तान गए थे, लिखते हैं, "सुभाष चंद्र बोस मुश्किल समय में हमेशा बीवीबती देवी से सलाह और मार्गदर्शन प्राप्त करते थे."

बीवीबती देवी ने सुभाष के घर से भागने के बाद उनके कमरे में भोजन भेजने का प्रबंध किया और यह सुनिश्चित किया कि खाली बर्तन वापस ले लिए जाएं, ताकि पुलिस को उनकी अनुपस्थिति का पता न चले.इस प्रयास में उनकी सूझबूझ और चतुराई का कोई मुकाबला नहीं था.उन्होंने सुभाष की यात्रा को सुरक्षित बनाने में अहम भूमिका निभाई.

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 रामो देवी: काबुल में सुरक्षा की गारंटी

रामो देवी, उत्तम चंद की पत्नी थीं, जो काबुल में एक भारतीय व्यवसायी थे.भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सक्रिय भागीदार थे.रामो देवी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि जब सुभाष चंद्र बोस काबुल में थे, तो उन्होंने उन्हें अपनी चतुराई और सूझबूझ से न सिर्फ सुरक्षित रखा, बल्कि इस बात का भी ध्यान रखा कि सुभाष की उपस्थिति को लेकर कभी किसी को शक न हो.

भगत राम तलवार लिखते हैं कि रामो देवी ने नेताजी के काबुल में ठहरने को जितना आरामदायक और सुरक्षित बना दिया, वह बहुत सराहनीय था.खासकर जब नेताजी बीमार थे, तब रामो देवी ने उनकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी.उनकी उपस्थिति में काबुल के पड़ोसियों और आगंतुकों को कभी यह महसूस नहीं हुआ कि उनके घर में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति छुपा हुआ है.

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 लारिसा क्वारोनी: इतालवी पासपोर्ट और संदेशवाहक

काबुल में इटली के राजदूत अल्बर्टो पिएत्रो क्वारोनी की पत्नी लारिसा क्वारोनी ने भी सुभाष चंद्र बोस की सहायता की.लारिसा ने सुभाष के लिए एक इतालवी पासपोर्ट तैयार करवाने में मदद की, जिसमें उनका नाम ऑरलैंडो मज़ोटा था.इस पासपोर्ट की मदद से सुभाष को काबुल से बाहर जाने और बर्लिन तक पहुंचने में सहूलियत मिली.

लारिसा क्वारोनी ने इतालवी दूतावास और सुभाष के बीच संदेशवाहक का काम किया.वह दूतावास से संदेश लेकर उत्तम चंद की दुकान तक जाती थीं और वहां से संदेश वापस भेजती थीं.उनके प्रयासों ने सुभाष को काबुल से सुरक्षित बाहर जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

श्रीमती हाजी अब्दुल सोभान: ग़दर पार्टी की सक्रिय सदस्य

हाजी अब्दुल सोभान, जो काबुल में एक भारतीय क्रांतिकारी थे, ने भी सुभाष चंद्र बोस की यात्रा में अहम भूमिका निभाई.वे ग़दर पार्टी के सदस्य थे और अपनी देशभक्ति गतिविधियों के कारण पहले जेल भी जा चुके थे.सोभान ने काबुल में सुभाष की देखभाल की और इस योजना के तहत जर्मनी से संपर्क स्थापित किया, जिससे सुभाष को बर्लिन तक पहुंचने में मदद मिली.उनके प्रयासों के बिना, यह यात्रा इतनी सहज और सुरक्षित नहीं हो पाती.

इन महिलाओं की भूमिका को अनदेखा करना भारतीय इतिहास की एक बड़ी भूल होगी.बीवीबती देवी, रामो देवी, लारिसा क्वारोनी और श्रीमती हाजी अब्दुल सोभान जैसी महिलाओं के योगदान के बिना, सुभाष चंद्र बोस की बर्लिन तक की यात्रा की सफलता पर सवाल उठ सकते थे.

ये महिलाएं केवल पारंपरिक घरेलू भूमिका तक सीमित नहीं थीं, बल्कि उन्होंने एक बड़े राष्ट्रीय कार्य में सक्रिय रूप से भाग लिया.इतिहासकारों और लेखकों को इन महिलाओं के योगदान को उचित मान्यता देनी चाहिए और उन्हें उस साहसिक कार्य में शामिल करना चाहिए, जिसे सुभाष चंद्र बोस ने ब्रिटिश साम्राज्य से बचकर किया था.

( लेखक इतिहासकार और स्तंभकार हैं ).


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